घर के माने
बबिता कुमावत
मिट्टी और ईंटों के ढेर
को घर नहीं कहते,
चार दीवारी में महदूद घर को,
घर नहीं कहते
बदगुमानों से भरा घर,
घर नहीं होता,
नफ़रतों के खेल चले वो घर,
घर नहीं होता
घर में कुर्बतों में रखते हैं
गर फ़ासले,
पस्त हो जाते है
गिले शिकवों में हौसले
घर वो होगा जिसमें
नासूर बने कोई ज़ख़्म नहीं,
जहाँ गिले शिकवे
और कोई मलाल नहीं
जहाँ माँ की ममता,
बहन के स्नेह की छाँव होगी,
पिता का प्यार होगा
वो घर की परिभाषा होगी।
जहाँ लब-ए-दम
उजालों के सिलसिले रहेंगे,
घर वो होगा जहाँ रिश्ते
नज़रों से दरकिनार ना रहेंगे
घर उसको कहेंगे साहब
जहाँ हमदर्दी जताकर
अहसान दिखाते नहीं,
घर को कैसे परिभाषित करें
वो समझेगा नहीं
जो इस दौर से गुज़रा नहीं