गाजर-घास उग आई है, केसर के बाग़ानों में
अनिरुद्ध सिंह सेंगर
गाजर-घास उग आई है, केसर के बाग़ानों में।
घर का पुरखा रोता है, घर बाहर दालानों में॥
अंग्रेज़ी की आँधी में, हिन्दी के अरमान उड़ चले।
फूहड़ता के तूफ़ानों में, संस्कृति के सोपान उड़ चले॥
अपने संस्कार छोड़कर, गुम हुए मयखानों में।
गाजर-घास उग आई है, केसर के बाग़ानों में॥
भूल रहे हैं होली-दिवाली, तीज-त्यौहार भूल रहे।
निजी स्वार्थों के प्रलोभन, घर-परिवार भूल रहे॥
बूढ़ी अम्मा कण्डा बीने, वे मज़ा करें बेगानों में।
गाजर-घास उग आई है, केसर के बाग़ानों में॥
क्या होती है राष्ट्रभक्ति, और क्या होता है स्वाभिमान।
आज़ादी पाने को कितने, वीरों ने दिया बलिदान।
भूलकर हम वीरों की गाथा, कमर हिलाते नादानों में।
गाजर-घास उग आई है, केसर के बाग़ानों में॥
राजपथों पर तो चकाचौंध हैं, पगडंडी पर पसरा अँधियारा।
महलों में हर रोज़ दिवाली, झोपड़ियों में तम की कारा।
झूठे आश्वासन मिलते हैं, सरकारी फ़रमानों में।
गाजर-घास उग आई है, केसर के बाग़ानों में॥
राम-कृष्ण की पावन धरती, ऋषियों की संतान है।
सारे जग में अपना देश, भारत देश महान है॥
भरी पड़ी अद्भुत गाथाएँ, हमारे वेद-पुराणों में।
गाजर-घास उग आई है, केसर के बाग़ानों में॥