एक थी उम्मीद
सरिता अंजनी सरसबहुत दिनों बाद
खूँटी पर टँगी उम्मीद को उतारा
धोया, पोंछा,
फिर निचोड़ कर टाँग दी
किसी खूँटी पर . . .!
और
दरख़्तों के बीच
अक्षत की तरह फैली धूप को
बटोरते हुए,
एक पेशानी शाम की
सिलवटों के बाद . . .!
पहुँची टँगी हुई उम्मीद को लेने
मगर देखती हूँ,
वो उम्मीद
किसी और के कंधे पर टँगी थी . . .!!