एक मशीन का दर्द
सन्तोष कुमार प्रसादहाँ हाँ भूल जाओ मुझे . . .
घर के किसी काम की नहीं
रख दो किसी कोने में
कचड़े कि ढेर में
जबकि तुम जानते हो
कि अभी भी जान बाक़ी है
पर मैं अभी भी उपयोग में रही
तो तुम्हें आधुनिक कौन बोलेगा
अत्याधुनिक संसाधनों वाला
समय के साथ बदलने वाला
कौन बोलेगा
हाँ, मेरी ग़लती थी
कि मैंने अपने ऊपर कुछ
बदलाव नहीं किये
समय के साँचे में ढल नहीं पायी
उसकी क़ीमत तो मुझे चुकानी पड़ेगी
घर के साफ़-सफ़ाई के बहाने
आएगा कोई फेरी वाला
और ठोक पीटकर
मेरे अंदर बचे हुए
प्राण को भी हर लेगा
और किलो के भाव
मुझे बेच दिया जायेगा
कबाड़ी बाज़ार में
शायद फिर मैं
कुंदन बनकर उभरूँ