अपनी रूखर भाषा में
सन्तोष कुमार प्रसाद
अगर तुम सोचते हो कि
छंद, लय और तुक ही
कविता की परिभाषा हैं
तो तुम अभी भी प्राचीन काल में
जी रहे हो,
तुमने कविता कि नई देह,
को देखा नहीं हैं ।
परखा नहीं हैं ।
समाज में फैले भ्रष्टाचार,
तनाव और ग़रीबी को देखकर,
बेटियों पर होते अत्याचार को,
देखकर मेरी कविता भी रूखर हो गयी है ।
मैं क्या लिखूँ,
जो मैंने भोगा है, महसूस किया है,
मैं वही लिखूँगा ।
टूटे हुए, टेढ़े मेढ़े शब्दों में,
ताकि उस दर्द को तुम भी समझ सको,
बिना किसी लाग लपेट के,
अब यह तुम्हारे ऊपर हैं कि
तुम उसे ज़ेहन में रखो या
मोबाइल कि रील्स कि तरह
देखकर छोड़ दो ।
पर समय अपने आप को
दुहराता है,
फिर कोई आएगा
और फिर वो लिखेगा कविता
अपनी रूखर भाषा में