बिगुल

रत्नकुमार सांभरिया (अंक: 204, मई प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

पचासेक साल का एक मदारी था। उसके पास एक बंदरिया थी। चितकबरी। मदारी दिन उगते ही बंदरिया को छोटी-सी घघरी और चोली पहनाकर तमाशा दिखाने के लिए निकल पड़ता। मदारी की डुगडुगी पर जब बंदरिया नाचती, तमाशबीनों का हुजूम हो जाता था। बंदरिया थी कि वह नमकहलाली का भरपूर ध्यान रखकर नृत्यकर्म करती। लोग उसे ठुमक-ठुमक नाचता देख, आनन्दविभोर हो मुस्कुराते और तालियाँ पीटते। तमाशा ख़त्म होते मदारी की चादर पैसों से पट जाती। 

तमाशगिरी से एकत्रित पैसों की मदारी शाम को दारू पीता, होटल में अच्छा खाना खाता और सो जाता। बेचारी बंदरिया को माँगी हुई सूखी बासी और मुड़ी-तुड़ी रोटियों से संतोष करना पड़ता। मदारी शराब पीता, बंदरिया घृणित आँखों से उसे दुत्कारती। भोजन करता या लड्डू-जलेबी खाता उसकी ओर टुकुर-टुकुर घूरती। मदारी के शरीर पर माँस चढ़ता गया, बंदरिया की जवान देह पर हड्डियाँ चमकने लगीं। 

दिन-ब-दिन शोषण, अत्याचार और पक्षपात। एक रात बंदरिया के ज़ेहन में एक युक्ति उग आई। मदारी सोकर उठा, बंदरिया निस्तेज पड़ी थी। मदारी ने उसे दुलरा-दुलरा, थपक-थपक उठाना चाहा, लेकिन बंदरिया के शरीर में चेतना नहीं लौटी। मदारी ने उसे डपटा, धमकाया, दरेरा, गालियाँ बकीं, थप्पड़ मारे, गले की चेन खींच-खींच, उठाने की चेष्टा की, बंदरिया मानो अब मरी। 

बंदरिया बीमार पड़ गई है। मदारी उसके लिए चाय लाया। बंदरिया ने चाय को मुँह तक नहीं लगाया। वह भुने हुए चने, केले, होटल का खाना, जलेबी लाया। बंदरिया ने उनको सूँघा तक नहीं। उसके स्वस्थ होने की चिंता में मदारी शाम तक माथा पकड़े बैठा रहा। दूसरे दिन जब उसने बंदरिया की हालत पहले से भी बदतर देखी, उसका मन भर आया। उसने बंदरिया के जीने की उम्मीद छोड़ दी। भरी आँखों से मदारी ने बंदरिया के गले की चेन खोलकर अपनी झोली में रख ली और आगे बढ़ गया था। 

कुछ क़दम चलकर मदारी ने पीछे मुड़कर देखा। बंदरिया नदारद थी। 

1 टिप्पणियाँ

  • 2 May, 2022 12:34 PM

    जो तोको कांटा बुवै ,ताहि बोउ तू भाला। वह भी याद रखेगा हरदम,किससे पड़ा था पाला।।

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