बाँझ

रत्नकुमार सांभरिया (अंक: 204, मई प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

राममेख अपने बीसेक दिन के बच्चे को लोरियाँ खेला रहा था, कितना सुन्दर है मेरा बेटा, ठेठ बाप-सा। उसकी पहली पत्नी वन्नू वहीं बैठी खाना खा रही थी। राममेख ने बच्चे के छोटे-से मुँह को अपने मूँछैल होंठों से चूमा और अपनी पत्नी से मुख़ातिब व्यंग्य विद्रूप से कहा, “वन्नू हो गया न तुम्हारा वह वहम दूर कि मेरे आदमी में कमी है। मैं तेरी बातों पर रहता, कैसे चलती मेरी वंशबेल?” 

पति की विषबुझी सुनकर वन्नू ने थाली दूर सरका दी। दीवार से कमर सटा ली और पति के गिरगिटी चेहरे में अपना भविष्य खोजने लगी। 

राममेख ने एक बार फिर वात्सल्यमयी आँखों से बच्चे को निहार कर चूम लिया था। उसने वन्नू की पीठ में अपने पाँव का ठेला मारकर कहा, “देख, तूने पाँच बरस में भी कोई बच्चा नहीं जना, मेरी नई पत्नी को आये साल भर हुआ है, बाप बन गया हूँ, मैं। और सुन, वह पहले वाली बात नहीं रही, अब। मैं जहाँ जाता हूँ, लोग मेरे लिए पलक-पाँवड़े बिछाते हैं।” वह कहता गया, “मेरे मित्र तेरे बारे में सौ कहें, मेरी नई धर्मपत्नी की मेहमान-नवाज़ी की वे प्रशंसा करते नहीं थकते।”

पति की बाण सी बातों से वन्नू का हृदय छलनी हो गया। रुलाई छूटी और सुबकियाँ बँध गईं, उसे। राममेख पत्नी के आँसू देखकर भी चुप नहीं रहा, “बड़े-बूढ़ों ने ठीक कहा है, जो कोख की बाँझ होती है, वह मन की भी बाँझ होती है।”

पास बैठी दूसरी पत्नी मन-मन मगन हुई जाती थी। 

वन्नू ने साड़ी के पल्लू को अपने मुँह में ठूँस लिया। रोकते-रोकते भी उसके अंतस का ज्वालामुखी फूट पड़ा, “अगर आपके दोस्तों से मैं भी होती, ना कहते।”

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