अध्यात्म
ज्योत्स्ना मिश्रा 'सना'स्त्री जब अध्यात्म की
ओर मुड़ती है, वह
अँधियारी रात्रि में
दुधमुँहे बच्चे को भाग्य
के भरोसे नहीं छोड़ जाती है
ना ही प्रयास करती है
गृहत्याग करने का
वह ‘यशोधरा’ सम
स्वीकार करती है
अपने कर्तव्य का
उसके लिए स्वीकारना
ही अध्यात्म है।
स्त्री कृत्रिमता ओढ़कर
संसार से दूर नहीं
भागती है
वह ‘कुंती’ सम
ढाल लेती है
स्वयं को समय के
अनुरूप बड़ी ही
सहजता से
उसके लिए सहज होना
ही अध्यात्म है।
स्त्री धर्म के द्वंद्व में
नहीं पड़ती कभी
वह ‘द्रौपदी’ सम
बाहर से मिली घृणा
को भीतर सँजोकर
करुणा उड़ेलती है
वह मानती है धर्म
स्वयं के अंदर होता है
उसके लिए स्वयं को जानना
ही अध्यात्म है।
स्त्री जानती है ज्ञान
मनुष्य को श्रेष्ठ बनाता है
नहीं भरती दंभ वह
कभी अपने ज्ञान का
उम्रदराज़ होने के साथ
स्वयं केंद्रित नहीं होती
शनैः शनैः भर जाती है
वह ‘सीता’ सम
संवेदना से
उसके लिए संवेदनशील
होना ही अध्यात्म है।