अधूरी उड़ान

15-08-2025

अधूरी उड़ान

महेन्द्र तिवारी (अंक: 282, अगस्त प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

वह दिन मेरी स्मृति में आज भी ऐसे अंकित है, जैसे कल की ही बात हो, जब मेरे सपनों की उड़ान को पहली बार पंख लगे थे। उस दिन की हर छोटी-बड़ी घटना, हर शब्द, हर ख़ामोशी मेरे भीतर गहरे तक समाई हुई है—एक अमिट छाप की तरह। मैं तब केवल बीस साल का एक उत्साही युवक था, जिसके मन में अंतरिक्ष के अनछुए रहस्यों को जानने की तीव्र लालसा थी। मेरे पैतृक गाँव में, जहाँ खेती ही जीवन का आधार थी, विज्ञान और खगोलशास्त्र की बातें किसी अजूबे से कम नहीं थीं। मेरे माता-पिता, सादगी और परंपरा में पले-बढ़े, मेरे इन “अजीब” सपनों को पूरी तरह समझ नहीं पाते थे, पर मेरे भीतर एक अदम्य इच्छाशक्ति थी। 

बचपन से ही, जब गाँव के सभी बच्चे खेतों में खेलते या पशु चराते थे, मैं रात को खुले आसमान के नीचे घंटों तारों को निहारता रहता था। मुझे याद है, एक बार मैंने अपने पिताजी से पूछा था, “पिताजी, क्या हम कभी चाँद पर जा सकते हैं?” उन्होंने मुस्कुराकर कहा था, “बबुआ, पहले धरती पर तो पैर जमा ले, चाँद पर जाने की बात बाद में करना।” उनकी बात में प्यार था, पर मुझे अपनी लालसा को दबाना पड़ा था। 

मेरी पढ़ाई में हमेशा से ही रुचि थी, और मैं गाँव के स्कूल में अव्वल आता था। पिताजी ने मुझे शहर भेजने का फ़ैसला किया, ताकि मैं उच्च शिक्षा प्राप्त कर सकूँ। यह उनके लिए एक बड़ा त्याग था, क्योंकि हमारे पास सीमित संसाधन थे। शहर में मैंने विज्ञान को चुना, और मेरी रुचि खगोलशास्त्र में और गहरी होती गई। मैंने दिन-रात एक कर दिया, किताबों में खोया रहता, प्रयोगशाला में प्रयोग करता, और हर उस अवसर को भुनाता जिससे मुझे अंतरिक्ष के बारे में कुछ नया जानने को मिले। 

मेरी मेहनत रंग लाई। मैंने अपनी इंजीनियरिंग की पढ़ाई में उत्कृष्ट प्रदर्शन किया, और मुझे देश के एक प्रतिष्ठित शोध संस्थान में इंटर्नशिप का अवसर मिला। वहाँ मुझे पहली बार बड़े-बड़े टेलीस्कोप और अंतरिक्ष अनुसंधान के उपकरणों को छूने का मौक़ा मिला। मेरा सपना अब और भी स्पष्ट हो चुका था—मुझे एक अंतरिक्ष वैज्ञानिक बनना था। 

एक दिन, जब मैं अपने शोध कार्य में व्यस्त था, मुझे एक ईमेल मिली। यह यूरोपियन स्पेस एजेंसी (ई एस ए) से था! उन्होंने मुझे अपने एक महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट के लिए आवेदन करने का न्योता भेजा था। मेरा दिल ज़ोरों से धड़क उठा। यह मेरे बचपन का सपना था, जो अब हक़ीक़त बनने की कगार पर था। मैंने तुरंत आवेदन किया, और कुछ हफ़्तों बाद, मुझे इंटरव्यू के लिए बुलाया गया। 

इंटरव्यू बहुत कठिन था, पर मैंने अपनी पूरी क्षमता से जवाब दिए। जब मुझे बताया गया कि मेरा चयन हो गया है, तो मेरी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा। यह मेरे जीवन का सबसे बड़ा क्षण था। मैंने तुरंत अपने माता-पिता को फोन किया। 

“माँ, पिताजी! मेरा चयन ई एस ए में हो गया है! मुझे यूरोप जाना होगा!” मैंने उत्साह से कहा। 

एक पल के लिए फोन पर चुप्पी छा गई। फिर पिताजी की आवाज़ आई, जो हमेशा की तरह शांत नहीं थी, “बबुआ, तू विदेश जाएगा? हमें छोड़कर?” 

उनकी आवाज़ में एक अजीब-सी उदासी थी, एक अनकहा डर। मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की, “पिताजी, यह मेरे जीवन का सबसे बड़ा अवसर है। भारत में ऐसे मौक़े बहुत कम मिलते हैं। मैं वहाँ जाकर देश का नाम रोशन करूँगा।”

“देश का नाम रोशन करेगा या हमें अकेला छोड़ देगा?” माँ की आवाज़ आई, जो अब तक चुप थीं। उनकी आवाज़ में दर्द था। 

मेरा दिल भारी हो गया। मैं जानता था कि उनके लिए मुझे विदेश भेजना कितना मुश्किल होगा। पिताजी ने हमेशा मुझे अपनी मिट्टी से जुड़े रहने की शिक्षा दी थी। वे कहते थे, “अपनी धरती से बढ़कर कुछ नहीं।” और अब, मैं उन्हें छोड़कर सात समंदर पार जा रहा था। 

अगले कुछ दिनों तक घर में तनाव का माहौल रहा। पिताजी ने मुझसे बात करना कम कर दिया था। वे हर बार जब मैं उन्हें समझाने की कोशिश करता, तो बस इतना कहते, “हमें बुढ़ापे में अकेला छोड़कर जा रहा है।” माँ चुपचाप रहतीं, पर उनकी आँखों में नमी साफ़ दिखती थी। 

एक शाम, जब मैं अपने कमरे में बैठा था, पिताजी मेरे पास आए। वे शांत थे, पर उनकी आँखों में एक गहरी पीड़ा थी। 

”बबुआ, तू जानता है, हमने तुझे कितनी मुश्किल से पढ़ाया है। हमारी तो एक ही इच्छा थी कि तू हमारे पास रहे, हमारे बुढ़ापे का सहारा बने।”

“पिताजी, मैं आपको कभी नहीं भूलूँगा। मैं आपको अपने साथ ले जाऊँगा, जब मैं वहाँ स्थापित हो जाऊँगा,” मैंने उन्हें दिलासा देने की कोशिश की। 

“क्या फ़ायदा ऐसी तरक़्क़ी का, जो अपने ही घर से दूर कर दे? तू यहीं रह, यहीं कोई नौकरी ढूँढ़ ले। हम सब साथ रहेंगे,” उन्होंने कहा। 

मैं जानता था कि उनकी बात में प्यार था, पर वे मेरे सपनों को नहीं समझ पा रहे थे। भारत में अंतरिक्ष अनुसंधान के क्षेत्र में अवसर सीमित थे, और जो थे, वहाँ तक पहुँचना आसान नहीं था। मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की कि यह अवसर मेरे लिए कितना महत्त्वपूर्ण है, पर वे अपनी बात पर अड़े रहे। 

“देख बबुआ, तेरी माँ की तबियत भी ठीक नहीं रहती। तुझे छोड़कर हम कैसे रहेंगे?” पिताजी ने कहा। 

माँ की तबियत का ज़िक्र आते ही मेरा मन और भी विचलित हो गया। मैं जानता था कि माँ की साँस की बीमारी उन्हें अक्सर परेशान करती थी। मैं उन्हें अकेला छोड़कर कैसे जा सकता था? मेरे भीतर एक भयंकर द्वंद्व चल रहा था—एक तरफ़ मेरे सपने थे, और दूसरी तरफ़ मेरे माता-पिता का प्यार और उनकी उम्मीदें। 

मैंने अपने प्रोफ़ेसर से बात की। उन्होंने मुझे समझाया, “रोहन, यह अवसर तुम्हारे लिए बहुत बड़ा है। ऐसे मौक़े बार-बार नहीं मिलते। तुम्हें अपनी प्रतिभा को पंख देने चाहिएँ।”

लेकिन मेरे मन में शान्ति नहीं थी। मैं रात-रात भर सो नहीं पाता था। अंततः, मैंने एक कठिन फ़ैसला लिया। मैंने ESA को एक ईमेल लिखी, जिसमें मैंने उन्हें बताया कि मैं उनका प्रस्ताव स्वीकार नहीं कर पाऊँगा। यह मेरे जीवन का सबसे दर्दनाक फ़ैसला था। मैंने अपने सपनों की उड़ान को रोक दिया था, अपने माता-अनादि के लिए। 

जब मैंने पिताजी को बताया कि मैंने ई एस ए का प्रस्ताव ठुकरा दिया है, तो उनकी आँखों में चमक आ गई। माँ ने मुझे गले लगा लिया। उनके चेहरे पर ख़ुशी थी, पर मेरे दिल में एक अजीब-सा ख़ालीपन था। मैंने अपने सपनों को क़ुर्बान कर दिया था, अपने माता-पिता के लिए। 

आज, मैं अपने गाँव के पास एक छोटे से शहर में एक इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ाता हूँ। मेरे माता-पिता मेरे साथ ख़ुश हैं। मैं उन्हें हर पल अपने साथ रखता हूँ, उनकी देखभाल करता हूँ। वे मेरी हर ख़ुशी में ख़ुश होते हैं, और हर दुख में मेरे साथ खड़े रहते हैं। उनकी उपस्थिति मात्र से मुझे दुनिया का सबसे बड़ा सुकून मिलता है। 
लेकिन, कभी-कभी रात को, जब मैं तारों को निहारता हूँ, तो मुझे अपनी अधूरी उड़ान की याद आती है। मुझे याद आता है वह सपना, जो मैंने कभी देखा था। मैं जानता हूँ कि मैंने अपने माता-पिता के लिए सही फ़ैसला लिया है, पर मेरे भीतर कहीं गहरे में, वह युवा वैज्ञानिक आज भी अंतरिक्ष में उड़ान भरने का सपना देखता है। 

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