थम सी गई पृथ्वी
संजीव बख्शीकाल थोड़ा और आगे बढ़ गया
थोड़ा और साफ हो गया आकाश
मैं उस चौराहे पहुँच गया
कमल थोड़ा और खिल गया
थोड़ी और तन गई पतंग की डोर
बाल थोड़े और सफेद हो गए
आ गई झुर्रियाँ थोड़ी और
बच्चे हो गए जवान
बसंत आ गया फिर
फिर दीवाली आ गई
अभी जो की थी घर की सफाई-पुताई
दीवारों पर दिखने लगा फिर से
वही पुरानापन
कि लगा थम सी गई है पृथ्वी
एक कविता लिख गई इस बीच
एक चित्र बन गया
नाटक के पात्र ने रच लिया संसार
कि फिर घूम गई पृथ्वी ।