सूरज को ना ढलने दूँगा
मुकेश बोहरा ’अमन’चल पड़ा हूँ,
मंज़िल के पथ,
कदम नही मैं रुकने दूँगा।
जीवन के अब,
उजियारों को,
सूरज को ना ढलने दूँगा॥
जग जीवन के सच का हमको,
भान हृदय से हो चुका है।
जो बहना था वह पानी सब,
सर से होकर रह चुका है।
पद, प्रलोभन,
लालच आगे,
मति नहीं मैं मरने दूँगा।
जीवन के अब,
उजियारों को,
सूरज को ना ढलने दूँगा॥
गैंरों की चालों में यूँ ही,
बहकावों में बह जाता था।
हित-अहित सोचे बिन ही,
किसी को कुछ भी कह जाता था।
ख़ुद देखूँगा,
सोचूँगा फिर,
अब ना ख़ुद को छलने दूँगा।
जीवन के अब,
उजियारों को,
सूरज को ना ढलने दूँगा॥
1 टिप्पणियाँ
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मुकेश जी बहुत ही सुन्दर कविता