पीढ़ियाँ
संजीव ठाकुरहम पीते थे चाय एक साथ
फुटपाथ पर बैठते थे
अपने ग़म बिछाकर
बतियाते थे दुनिया की, जहान की
गलियाते थे
साहित्यिक चूतियापे को
मठों को, मठाधीशों को
पत्रिकाओं के संपादकों को
प्रकाशकों के कारनामों को
आलोचकों की क्षुद्रताओं को।
पिछले दरवाज़े से पुरस्कार झटकता कोई शख़्स
हमें नागवार गुज़रता था
पुस्तक विमोचन समारोहों को हम
कहा करते थे
भाँड-मिरसियों का काम!
समय बदलता गया धीरे–धीरे
हममें से कुछ लोग
आलोचक बन गए
झटक लिया किसी ने कोई पुरस्कार
सुशोभित कर रहा कोई
किसी पत्रिका के संपादक का पद
अकादमी की गतिविधियाँ
किसी की जेब में हैं!
डोलते हैं दस–बीस प्रकाशक
कंधे पर रखे झोले की तरह
विमोचन समारोहों में
झलक जाता है
किसी का विहँसता चेहरा।
गलिया रहे हैं चार लोग
सफ़दर हाशमी मार्ग के फुटपाथ पर
चाय पीते हुए –
संपादकों को,
प्रकाशकों को,
आलोचकों को,
मठाधीशों को ...!
3 टिप्पणियाँ
-
Bahut acchi Kavita hai। Aaj ke व्यवस्था और व्यवहार पर अच्छा व्यंग। शुभकामनाएं।
-
अच्छी भावनाएं। आज की सच्चाई पर प्रहार।बहुत अच्छी कविता है। शुभकामनायें।
-
अच्छी कविता . पहले भी कहीं पढ़ी है . शुभकामनाएं आपको . डिज़िटल स्पेस में आपको देखकर अच्छा लगा .