मेरे ग्राम को बचा लो
सन्तोष कुमार प्रसाद
मेरे ग्राम की आबो हवा को बचा लो, 
छुपा लो माँ की आँचल में, 
बच्चों के बचपन को, 
उनके अस्तित्व को, 
कभी सुनता था धूल से सना तन, 
पर अब तो पूरी हवा धूल से सनी हुई, 
वो जंगल की हवा, 
नदियों की कलकलता, 
पहाड़ों के गीत, 
कहाँ से लाऊँ 
जिसे पर्वत को चीरकर, 
डोलोमाइट की शक्ल में, 
मेरे गाँव को परोसा जा रहा है।
ताकि हम आने वाली पीढ़ी, 
को दे सके बीमारी का पोटला।
लोग सिर्फ़ यादों में रहे, 
और मुर्दो का टीला, 
कौन हैं ज़िम्मेदार, 
साम्राज्यवादी लोलुपता, 
पैसे की खनक, 
सरकार की नीतियाँ
और हम ग्रामवासियों का दर्द? 
