अनसुलझी बातें
डॉ. पल्लवी सिंह ‘अनुमेहा’
कभी-कभी अत्यधिक स्थूलता
भरा अन्तःकरण,
न कुछ समझना चाहता है,
न कुछ सुनना,
और न ही कुछ बोलना चाहता है।
नीरवता में लिप्त हो जाना चाहता है,
कभी चीखना चाहता है,
या फिर
फूट-फूटकर सिसकना
जी भरकर . . .
अन्तःकरण में उपजी गर्द के
रिक्त होने तक,
किन्तु—
समझ भी नहीं पाता कि—
उसे पीड़ा किस बात की है,
क्यूँ टीस-सी उठती रहती है
बार-बार,
प्रत्येक बात घूम-फिरकर
आघात करती है,
दस्तक-सी देती है बारम्बार,
कई बातें सुई-सी चुभोति मालूम
होती हैं,
ऐसा लगता है कि—
मेरा होना ही व्यर्थ हुआ,
आईने से भी होती है नफरत-सी,
वह भी यही कहलवाना चाहता है।
इसलिए
अपने अस्तित्व में लगता है
कुछ भारीपन,
आँखें न जाने क्यूँ इतनी
भारी-भारी-सी लगती हैं,
जैसे एक पारावार वहाँ ठहर गया हो,
ख़ैर . . .
ये सब अन्तःकरण की
अनसुलझी बातें हैं,
बस . . . .॥