अनसुलझी बातें

15-02-2025

अनसुलझी बातें

डॉ. पल्लवी सिंह ‘अनुमेहा’ (अंक: 271, फरवरी द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

कभी-कभी अत्यधिक स्थूलता
भरा अन्तःकरण, 
न कुछ समझना चाहता है, 
न कुछ सुनना, 
और न ही कुछ बोलना चाहता है। 
नीरवता में लिप्त हो जाना चाहता है, 
कभी चीखना चाहता है, 
या फिर
फूट-फूटकर सिसकना
जी भरकर . . .
अन्तःकरण में उपजी गर्द के
रिक्त होने तक, 
किन्तु—
समझ भी नहीं पाता कि—
उसे पीड़ा किस बात की है, 
क्यूँ टीस-सी उठती रहती है
बार-बार, 
प्रत्येक बात घूम-फिरकर
आघात करती है, 
दस्तक-सी देती है बारम्बार, 
कई बातें सुई-सी चुभोति मालूम
होती हैं, 
ऐसा लगता है कि—
मेरा होना ही व्यर्थ हुआ, 
आईने से भी होती है नफरत-सी, 
वह भी यही कहलवाना चाहता है। 
 
इसलिए
अपने अस्तित्व में लगता है
कुछ भारीपन, 
आँखें न जाने क्यूँ इतनी
भारी-भारी-सी लगती हैं, 
जैसे एक पारावार वहाँ ठहर गया हो, 
ख़ैर . . .
ये सब अन्तःकरण की
अनसुलझी बातें हैं, 
बस . . . .॥

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