परछाईं
ज्योत्स्ना मिश्रा 'सना'छोटा-सा बबलू सब का दुलारा,
ग़ुस्से में था चाँद सा चेहरा प्यारा!
कभी आगे कभी पीछे से आती है
माँ यह परछाईं मुझे बड़ा सताती है।
मैं उठता तो उठती, बैठूँ तो बैठ जाती है
मेरे साथ मेरा हर काम दोहराती है।
तुम कहती हो यह परछाईं सिर्फ़ मेरी है,
हैं नहीं क्यूँ कोई शक्ल इसकी जैसे मेरी है?
माँ क्या यह जानती है कोई जादू मंतर
छोटी बनती कभी बड़ी जैसे जाने कोई जंतर?
मुस्कान माँ की देखकर ग़ुस्से में बोला
बड़ी बुरी है माँ, मैं परेशान तू मुस्काती है।
रूठा हूँ तुमसे, लो मैं चला बाबा के पास,
उनसे पूछूँगा अब अपने सारे सवाल ख़ास।
बाबा को काम से फ़ुर्सत ना मिल पाएगी
वहाँ अस्पताल तेरी सवारी कैसे जाएगी?
ठिठक गया पलभर सुनकर माँ की बातें
सोचने लगा कुछ छोटा-सा दिमाग़ खुजाते।
बहुत सोचकर फिर नन्हा बबलू बोला
छोटे-से दिमाग़ का बड़ा पिटारा खोला।
मैं भी परछाईं जैसा जादू सीख जाऊँगा
आबरा-का-डाबरा कर बड़ा बन जाऊँगा।
बाबा संग हाथ मिला कोरोना से लड़ जाऊँगा
लौट ना पाए फिर कभी इतनी दूर भगाऊँगा।
सब डॉक्टर फिर वापस अपने घर जाएँगे
बाबा संग फिर हम मिलकर मौज़ मनाएँगे।
आबरा-का-डाबरा कर फिर छोटा बन जाऊँगा।
राजा बेटा बनकर माँ तब तुमसे लाड़ लड़ाऊँगा ।
सुनकर बातें बबलू की माँ आँसू में मुस्काती है
गले लगाकर राजा बेटे की बलाइयाँ लेती है।
2 टिप्पणियाँ
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Sana ji aap bahat hi achha likhti hain. Aapki lekhan ki jitni bhi prasansha ki jae waha kam hi h.
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सुंदर बाल सुलभ रचना!