नाना जंजाला

संजीव ठाकुर (अंक: 148, जनवरी द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)

‘गृहकार्य नाना जंजाला’. . . बाबा तुलसीदास बरसों पहले कह गए हैं। मेरे जैसे लोगों को प्रतिदिन इसका एहसास होता है। कभी पंखा ख़राब, कभी नल। कभी सीलन की समस्या, कभी बाथरूम की। काम वाली की दिक्क़तें। सोसाइटी की मोटर ख़राब। जेनरेटर फुँक गया। रोज़ रात कुत्तों के द्वारा सीढ़ियों पर गंद फैलाना। टंकी का ढक्कन ग़ायब! अचानक किसी पाइप का फट जाना। कूड़े वाले का न आना। बिजली बिल इतना ज़्यादा? गैस बिल तो इतना कभी नहीं आता था? फ्रिज में गड़बड़ी। ए.सी. कमरे को ठंडा नहीं कर रहा। कंप्यूटर स्टार्ट ही नहीं होता! माउस भी बीस बार ठोकने पर चलने को राज़ी होता है। बैटरी तो निश्चित रूप से बैठ गई है! बीमारी पीछा नहीं छोड़ती। कभी पत्नी बीमार, कभी ख़ुद, कभी बच्चे की बीमारी। डॉक्टर, जाँच, दवाई!... कितना गिनाऊँ? लोग रोज़-रोज़ इन समस्याओं से जूझते रहते हैं। कुछ झेल लेते हैं, कुछ नहीं। बिजली वाले, प्लंबर, कूड़ा वाले, सफ़ाई वाले, प्रेस वाले, डॉक्टर – सबको झेलना आसान भी तो नहीं होता। एक के बदले दो माँगने वाले, फिर भी अच्छा काम न करने वाले तो भरे पड़े हैं! हमारे जैसे लोग इनसे कहाँ निबट पाते हैं? जो दुनियादार हैं उन्हें कुछ फ़र्क नहीं पड़ता। वे कभी ज़्यादा दे देते हैं, कभी टेंटुआ दबा देते हैं!

पिछले एक महीने से आर ओ ख़राब चलता रहा है। मिस्त्री – नहीं, इंजीनियर एक चीज़ ठीक करके  जाता है कि दूसरी चीज़ ख़राब हो जाती है। किचन का नल टपकता था। कल प्लंबर आया, उससे पुराना फ़ेस खुला ही नहीं। पानी और ज़्यादा टपकने लगा। सुबह टंकी का पानी ख़त्म! आज दिन में आने का बोलकर गया प्लंबर शाम में आया। दिन भर उसका फोन ऑफ़। दिन भर पानी को टपकते देखकर और प्लंबर को फोन लगा-लगाकर तनाव बढ़ता रहा। शाम में ठीक हुआ तो जान में जान आई। 

"पैसे कितने देने हैं?"… 

"लो, भाई, जो कहते हो ले जाओ!"

पिछले साल दोनों बाथरूम तुड़वाकर नए सिरे से बनवाने में क्या दुर्गति नहीं हुई? पहले तीन मिस्त्रियों से मोल-भाव करने में जान खपाई हुई। फिर बेसिन, कमोड, इंडियन सीट, नल वग़ैरह ख़रीदने को जगतपुरी की दौड़ लगाई। नहीं हुआ तो ‘प्लंबरम शरणम गच्छामि’ बोलकर उसकी बताई दुकान से सारा सामान मँगवा लिया। सीमेंट, रेत, रोड़ी के लिए ख़ुद दौड़ने के बदले प्लंबर को ही उसकी इच्छानुसार पैसे समर्पित कर दिए। इसके अतिरिक्त रोज़-रोज़ वह जो सामान लाता रहा, उसके पैसे बिना तर्क किए उसे देता रहा। उसने तो बाथरूम में दो कीलें लगाकर शीशे लगाने के पैसे भी ले लिए। बाथरूम की दीवारों की सफ़ाई के अलग से लिए ही, मलवा फिंकवाने के नाम पर भी मूँड लिए!

इस साल घर की रँगाई-पुताई करवानी है, छोटी बालकोनी को घेरकर बेटी की पढ़ाई के लिए जगह बनानी है। विंडो ए सी हटाकर स्प्लिट ए सी लगवानी है! पिछली बालकोनी में घर का कबाड़ सुरक्षित रखने के लिए लोहे की अलमारी बनवानी है। कबूतरों से बचने के लिए कुछ उपाय करवाना है। किताबों के लिए एक शेल्फ़ की आवश्यकता का भी कुछ करना है। 

तुलसीदास घर छोड़कर साधु ऐसे ही नहीं बन गए थे! पहले तो इतने झमेले थे भी नहीं। न फ़्लैट होते  थे, न बाथरूम। लोग खुले में निबट लेते थे, पंखा झल लेते थे। नदी, तालाब, कुएँ से पानी निकाल लेते थे। वैद्य जी की पुड़िया खा लेते थे। दीया, ढिबरी जला लेते थे। बस कभी दीये का तेल ख़त्म हो जाए, बाती जल जाए समस्या हो जाती थी। आज जैसे झमेले होते तो तुलसीदास क्या करते? ‘रामचरित मानस’ लिख पाते? ‘हनुमान बाहुक’ लिखकर अपने फोड़ों का इलाज कर लेते? ‘हनुमान चालीसा’ पढ़कर कंप्यूटर चालू कर लेते? ‘श्रीराम चंद्र कृपालु भज मन, हरण भव भय दारुनम’ गाकर प्लंबर और भाँति-भाँति के मिस्त्रियों का भय हरवा लेते?

यक़ीन मानिए, वे जाकर गंगा में कूद जाते। या वैद्य जी से संखिया माँगकर खा लेते। उन्हीं के ’कवि-वंश’ में जन्म लेकर अगर हम कवि लोग इस दुनिया के जंजालों को झेल लेते हैं तो हम लोग उनसे बड़े कवि हो गए कि नहीं? बहनौं-भाइयौं! बोलिए, हुए कि नहीं?

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