मक़सद

गीतिका सक्सेना (अंक: 175, फरवरी द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

अक्तूबर महीना ख़त्म होने को था। दिल्ली का मौसम आजकल बहुत सुहाना था तो सुहासिनी ने सोचा थोड़ी देर पार्क में घूमकर आया जाए। अपने बँगले से निकलकर वो पास ही कॉलोनी में बने पार्क में पहुँच गई, यहाँ आकर उसे अक़्सर ही बहुत अच्छा लगता था। ख़ूब सारी हरियाली के बीच एक तरफ़ खेलते बच्चे, कुछ सहेलियाँ हँसती खिलखिलाती, कुछ जोड़े साथ में चहलकक़दमी करते हुए, कुछ किशोर  दौड़ लगाते हुए और कुछ रिटायर्ड साथी आपस में गप्पे लड़ाते हुए, सभी एक साथ दिख जाते थे। उन्हें देखते-देखते सुहासिनी का समय कहाँ जाता उसे पता ही नहीं चलता था। इन्हीं वरिष्ठ नागरिकों में सुहासिनी के कई जानकार थे, जिनमें से कुछ उसके अच्छे दोस्त भी थे। यूँ तो सुहासिनी सामाजिक रूप से काफ़ी सक्रिय थी लेकिन दोस्त बहुत सोच-समझकर बनाती थी। पार्क में दो चक्कर लगाते लगाते सबसे नमस्ते हो गई थी, अब सुहासिनी आकर एक बेंच पर बैठ गई और अपने आस-पास के नज़ारे देखने लगी। पिछले दस सालों से उसकी यही आदत थी जब भी वो शाम को ख़ाली होती पार्क में आकर बैठ जाती थी। इतनी बड़ी कोठी ख़ाली उसे काट खाने को दौड़ती थी। फिर आज तो उसका ६७वां जन्मदिन था। आज तो अकेलापन उसे खाए जा रहा था। पार्क में घूमते हसीन जोड़ों को देख कर वो भी पुरानी यादों में खो गई। 

वो सिर्फ़ १९ साल की थी जब रंजन से पहली बार कॉलेज में मिली थी। वो उससे दो साल आगे था और अपने दोस्तों के साथ उसकी रैगिंग कर रहा था। ना जाने उसकी आँखों में क्या कशिश थी कि सुहासिनी का दिल उनमें डूबे जा रहा था। वो मंत्रमुग्ध सी एकटक उसे देखे जा रही थी। वैसे वो ख़ुद भी कोई कम ख़ूबसूरत नहीं थी। काले लम्बे बाल, गोरा रंग, बड़ी-बड़ी आँखें, गुलाबी होंठ जैसे लिपस्टिक लगाई हो और बात करने में इतनी सौम्यता कि मानो मुँह से फूल झड़ रहे हों। ऐसा नहीं कि रंजन उसकी ख़ूबसूरती से अछूता रह गया था लेकिन वो कुछ बोला नहीं, शायद अपने दोस्तों के बीच उसने चुप रहना ही बेहतर समझा। उस रात सुहासिनी को ठीक से नींद नहीं आई वो रह-रह कर रंजन के ख़्यालों में खोई जा रही थी। उधर ऐसा ही कुछ हाल रंजन का भी था। वो भी बेचैनी से सुबह होने का इंतज़ार कर रहा था जिससे दोबारा जाकर सुहासिनी से मिल सके, उसे जान सके, दोस्ती कर सके। ऐसा लग रहा था  दोनों पहली नज़र में ही एक दूसरे को अपना दिल दे बैठे थे। अगले दिन दोनों कॉलेज पहुँचे और मौक़ा मिलते ही रंजन सुहासिनी की क्लास में पहुँच गया और उससे बोला "मुझसे दोस्ती करोगी?" 

सुहासिनी की तो जैसे मन माँगी मुराद पूरी हो गई। बस फिर क्या था दोनों की दोस्ती ख़ूब जमी और प्यार में बदल गई। दोनों का प्यार अभी परवान चढ़ ही रहा था कि रंजन के फ़ाइनल ईयर के एग्ज़ाम आ गए। दोनों  बहुत दुखी थे कि अब रोज़ यूँ मिलना नहीं होगा। कॉलेज ख़त्म होने के बाद रंजन ने अपने पिता का ऑटो पार्ट्स का व्यवसाय देखना शुरू कर दिया। उनका काम अच्छा चलता था और रंजन की  नयी सोच की वज़ह से और बढ़ रहा था। पहले जो व्यवसाय सिर्फ़ एक राज्य तक सीमित था उसने उसे पूरे हिन्दुस्तान में फैला दिया था। रंजन काम में व्यस्त तो हो गया पर सुहासिनी से अब भी उतना ही प्यार करता था। बस अब दोनों हफ़्ते में एक ही दिन मिल पाते थे। सुहासिनी एक बहुत ही समझदार लड़की थी उसने कभी रंजन से कोई शिकायत नहीं की। वो जानती थी कि रंजन जो भी कर रहा था वो उन दोनों के लिए ही था। वैसे भी अभी उसके भी कॉलेज के दो साल और थे सो वो ख़ुद भी पढ़ाई में व्यस्त रहती थी। 

रंजन के माता पिता सुहासिनी और  रंजन  के बारे में जानते थे और उन्हें दोनों के रिश्ते पर कोई आपत्ति नहीं थी। जब सुहासिनी की पढ़ाई पूरी होने लगी तो उसके घर में उसकी शादी की बात चलने लगी, उस समय रंजन के घर से रिश्ता आया तो उसके माता-पिता मना नहीं कर सके, उन्हें तो इतने बड़े घर में रिश्ता होने की उम्मीद ही नहीं थी। बस अब क्या था सुहासिनी और रंजन दोनों  सातवें आसमान पर थे। अच्छा सा मुहूर्त देखकर दोनों की शादी हो गई। दोनों अपनी गृहस्थी में बहुत ख़ुश थे। कुछ साल बाद सुहासिनी ने एक बेटी को जन्म दिया, आकांक्षा। फिर कुछ चार साल बाद एक बेटा हुआ, विश्वास। दोनों बच्चे धीरे-धीरे बड़े होने लगे। रंजन अपने काम में काफ़ी व्यस्त रहता था और सुहासिनी बच्चों में। दोनों ने एक दूसरे से वादा किया था कि विश्वास जब बड़ा होगा तो रंजन अपना सारा व्यवसाय उसे सौंप देगा और उसका समय सिर्फ़ सुहासिनी का होगा। लेकिन हमेशा सब वैसा कहाँ होता है जैसा हम चाहते है, विश्वास बड़ा हुआ तो उसे अपने पिता के काम में कोई दिलचस्पी ही नहीं थी। उसने पढ़ाई पूरी करके दुबई में नौकरी की और वहीं बस गया, वहीं एक लड़की पसंद की तो रंजन और सुहासिनी ने दोनों की शादी करवा दी, अब उसके दो बच्चे हैं। उसकी शादी से कुछ समय पहले आकांक्षा के लिए दिल्ली में ही एक लड़का ढूँढ़ कर उसकी भी शादी कर दी थी, उसके एक बेटी है। अब रंजन और सुहासिनी इतने बड़े मकान में अकेले रह गए। रंजन को लगने लगा था कि उसके व्यवसाय का कोई वारिस तो है नहीं और उन दोनों के लायक़ उसने बहुत कमा लिया है इसलिए उसने अपना काम अब समेटना शुरू कर दिया था। वो चाहता था अब ज़्यादा से ज़्यादा समय सुहासिनी के साथ बिताए मगर एक बार फिर क़िस्मत उसे धोखा दे गई। उस दिन वो घर से निकला ये कहकर कि आकर लंच सुहासिनी के साथ करेगा लेकिन लौटा नहीं। उसकी कार एक ट्रक से जा टकराई और रंजन की मौक़े पर ही मृत्यु हो गई। सुहासिनी की तो जैसे दुनिया ही उलट-पलट हो गई। उसकी आयु उस समय कोई ५७ वर्ष रही होगी। उसे समझ नहीं आ रहा था कि अब कैसे जीएगी, अभी तो कुछ पल चैन से साथ रहने के आए थे सो नियति ने ऐसा आघात किया कि सँभलना भी मुश्किल था। विश्वास कुछ दिनों की छुट्टी लेकर पत्नी और बच्चों के साथ पिता का अंतिम संस्कार करने आया। उसने माँ से कहा भी कि वो उनके साथ दुबई चले लेकिन सुहासिनी ने मना कर दिया। वो रंजन की यादों के साथ उसी घर में रहना चाहती थी।

विश्वास ने कुछ दिन रुककर रंजन के बैंक खाते और जीवन बीमा का सारा पैसा सुहासिनी के खाते में डलवा दिया और तो और उसने रंजन का व्यवसाय भी बंद करने की बजाय बेच दिया। अच्छा चलता हुआ काम था सो अच्छे पैसे भी मिले। उन  पैसों को भी उसने सुहासिनी के नाम में फ़िक्स्ड डिपॉज़िट करवा दिया जिससे उसे हर महीने ब्याज मिलता रहे और उसे कभी पैसों की कमी ना हो। यूँ भी रंजन इतना छोड़ गया था कि पूरी उम्र सुहासिनी को कोई कमी नहीं होने वाली थी। कुछ दिन उसके साथ रहकर विश्वास अपने परिवार के साथ वापस लौट गया। अब सुहासिनी इतने बड़े घर में अकेली रह गई थी। बँगला, गाड़ी, पैसा सब था उसके पास लेकिन समय कैसे काटे ये उसे समझ नहीं आ रहा था। अभी विश्वास को गए दो दिन ही हुए थे कि आकांक्षा अपनी बेटी के साथ उसके पास रहने आ गई। दोनों भाई-बहन ने शायद आपस में ये बात कर ली थी कि एक जाएगा तो दूसरा आ जाएगा। अभी आकांक्षा आई ही थी कि सुहासिनी की बाई अपनी बेटी को लेकर उससे मदद माँगने आ गई। उसने सुहासिनी को उसके ज़ख़्म दिखाए और कहा, "मैडम देखो इसके पति ने इसे दारू पीकर कितना मारा है क्योंकि खाने में नमक थोड़ा ज़्यादा था, क्या करूँ समझ नहीं आ रहा।" सुहासिनी ने उसे समझाया कि जाकर महिला थाने में उसकी शिकायत दर्ज करवाए। उसने कहा मैं एस.एस.पी साहब से कह दूँगी तेरी शिकायत पर कार्यवाही हो जाएगी। वो हज़ारों दुआएँ सुहासिनी को देती हुई चली गई। अब सुहासिनी जाकर आकांक्षा के पास बैठ गई। दोनों माँ बेटी अपने दिल की बातें कर रहीं थीं कि सुहासिनी ने कहा, "बेटा तेरे पापा मेरे लिए बहुत कुछ छोड़ गए हैं लेकिन मुझे उनकी कमी हमेशा खलती रहेगी। मैं यूँ ख़ाली इस घर में नहीं रह सकती क्या करूँ समझ नहीं पा रही हूँ। तुम दोनों भाई-बहन की भी अपनी गृहस्थी है कब तक मुझसे बँधे रहोगे?" 

आकांक्षा ने बचपन से ही माँ को ग़रीबों की मदद करते देखा था कभी पैसों से, कभी उनके बच्चों को पढ़ा के। वो जानती थी कि उसे समाज सेवा करना पसंद है, सो उसने सुहासिनी को सुझाव दिया,"माँ तुम अपना एक एनजीओ रजिस्टर करवा लो और लोगों की ख़ूब मदद करो जैसे तुमने अभी की। इससे तुम्हारा समय भी कट जाएगा, लोगों की मदद भी होगी और शहर में तुम्हारी जान पहचान भी बढ़ेगी।" सुहासिनी को सुझाव पसंद आया उसने आकांक्षा की सहायता से  "बेटियाँ" नाम से अपना एनजीओ रजिस्टर करवा लिया। अब धीरे-धीरे उसने उसमें कई कार्यक्रम चलाए जैसे विधवा औरतों को सिलाई सीखना, अपने घर के एक कमरे में उसने पापड़ और अचार बनवा कर बाज़ार में बिकवाने करने शुरू करवा दिए, उससे जो पैसा आता वो उन्हीं औरतों को बाँट देती इससे वो स्वावलंबी बनने लगीं। ऐसे ही लड़कियों का स्कूल में एडमिशन करवाना, उनकी स्कूल की फ़ीस से लेकर पढ़ाई का सारा ख़र्चा करना, क्योंकि वो मानती थी कि अगर एक लड़की पढ़ जाए तो समझो एक पूरा घर पढ़ गया।

धीरे-धीरे सुहासिनी के एनजीओ को प्रसिद्धि मिलने लगी थी। शहर में भी उसका नाम होने लगा था, लोग उसे पहचानने लगे थे और उसे आदर भाव से देखते थे। जगह-जगह उसे सम्मानित करने के लिए, भाषण देने के लिए बुलाया जाने लगा। आज वह महिला सशक्तिकरण का एक जीता जागता उदाहरण थी। उसने ये कहावत सच कर दिखाई थी कि एक औरत कुछ भी कर सकती है वो कभी अबला नहीं होती।

अब उसे कुछ और सोचने की फ़ुरसत कम ही मिलती थी। बच्चे अपनी ज़िन्दगी में ख़ुश भी थे और व्यस्त भी। शुरू-शुरू में दो-तीन बार विश्वास के बहुत बुलाने पर वो दुबई गई लेकिन उसका मन तो बस समाज सेवा में रम गया था। अब साल में एक बार वहाँ हो आती थी, एक बार विश्वास भी पत्नी और बच्चों को लेकर आ जाता था। जब से रंजन गया था वो माँ से सुबह शाम ज़रूर बात करता था उसके हाल-चाल पूछने को। आकांक्षा क्योंकि दिल्ली में ही रहती थी सो वो कभी भी बेटी और पति के साथ आ जाती थी।  लेकिन आज सुबह से विश्वास ने एक फ़ोन भी नहीं किया। लगता है व्यस्तता में माँ का जन्मदिन भूल गया। आकांक्षा ने सुबह ही फ़ोन करके माँ को बधाई तो दे दी थी लेकिन कह रही थी आज कुछ ज़रूरी काम है आ नहीं पाएगी। अभी सुहासिनी ये सब सोच ही रही थी कि मिसेज़ शर्मा ने आकर कहा, "क्या हुआ सुहासिनी आज इतनी देर तक यहाँ, घर नहीं जाना?"  

उनकी आवाज़ सुनकर सुहासिनी अतीत के पन्नों से बाहर आई, उसने घड़ी देखी तो  सात बज गए थे। 

"यहाँ अच्छा लग रहा था इसलिए बैठी थी बस अब जा ही रही हूँ," उसने जवाब दिया और उठकर घर की तरफ़ चल दी। घर पहुँची तो उसने देखा आज वो घर की लाइटें जलाना भूल गई थी। घर पहुँचकर जैसे ही उसने लाइट जलाई सारा कमरा ख़ूबसूरत रोशनी से जगमगा उठा और अन्दर से आकांक्षा और विश्वास का पूरा परिवार "तुम जियो हज़ारों साल" गाते हुए बाहर आ गए। सबको देखकर सुहासिनी अचंभित थी। उसे कुछ समय लगा ये समझने में कि उसके बच्चों ने मिलकर उसे ये यादगार सरप्राइज़ दिया है। उसने सबको बहुत बहुत धन्यवाद दिया और कहा, "ये मेरे जीवन का सबसे प्यारा जन्मदिन है। तुम लोगों ने मिलकर इसे बहुत ख़ास बना दिया। लेकिन ये तो बताओ तुम सब अंदर आए कैसे?" 

इसपर आकांक्षा ने कहा, "माँ तुम भूल गईं घर की एक चाबी तुमने मुझे दे रखी है और हाँ तुम्हें यूँ चौंका देने का ये प्रोग्राम विश्वास ने एक महीने पहले ही बना लिया था।"  

सुहासिनी ने गद्‌गद्‌ होकर विश्वास को गले लगा लिया। इतने में ही सुहासिनी के एनजीओ की सभी महिलाएँ और बेटियाँ एक बड़ा सा केक लेकर आ गईं। 

"तुम्हारा जन्मदिन इनके बिना अधूरा है माँ हमसे भी ज़्यादा ये तुम्हारा परिवार हैं, इसलिए इन्हें भी बुला लिया।" 

आकांक्षा ने कहा तो सुहासिनी ने उसकी समझदारी से ख़ुश होकर उसका माथा चूम लिया।

सुहासिनी ने रंजन की फोटो की तरफ़ देखा और मन ही मन कहा, "जब तुम मुझे छोड़ कर गए थे तो मुझे लगा था जैसे मेरे जीने का अब कोई मतलब ही नहीं है लेकिन मेरे इन दोनों परिवारों ने मिलकर मेरे जीवन को एक नई दिशा दी और ज़िन्दगी जीने का नया उद्देश्य भी।" 

सच ही कहते हैं "भगवान ने आपको किसी मक़सद से ज़िंदा रखा है और मेरे जीवन का मक़सद यही सब लोग हैं, कुछ मेरे अपने और कुछ मेरे अपनों से भी ज़्यादा अपने।"
 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें