गोल

सुमित दहिया (अंक: 157, जून प्रथम, 2020 में प्रकाशित)

सुबह उगता है गोल सूरज
तीव्र किरणों के माध्यम से
हर आदमी के चेहरे पर 
अपने लाल दशमलव फेंकता हुआ


और इतने शून्यों तले दबा आदमी
अपनी उदास नींद से एकदम अपरिचित उठता है


उस वर्गाकार बिस्तर से गोल ज़मीन पर रखता है
अपना ढुलमुल पहला क़दम
वहाँ जहाँ नीचे कुछ लक्ष्य बिखरे पड़े हैं
उन पर बढ़ाता जाता है अस्पष्ट योजनाबद्ध क़दम
कुछ अमीर बिस्तर भी गोल होते हैं
मगर वे भी आर्थिक ऊर्जा स्थानांतरण का मन बनाकर ही
निरंतर अपने क़दम बढ़ाते जाते है


फिर प्रारंभ होते है अनचाहे गोल-मोल स्पर्श
रोज़ी-रोटी, रोज़गार, राशन, धुआँ-धक्का इत्यादि
अनेकों, अनेकों स्पर्श
फटी जेबों पर अनेकों दशमलव ढोते हुए
यह अनंत यात्रा ताउम्र चलती रहती है


वह दिन में कई बार यूँ ही माथे पर हाथ रखकर
अपने विवेक से पूछता है
उन खोई भाग्य रेखाओं का पता
कई दफ़ा नाराज़ होता है, चीख़ता,चिल्लाता है
इतने मौन जवाबों पर
अंततः परिणाम निकालता है
विवेक भी तो गोल है
हाँ बिल्कुल 
पृथ्वी, चाँद, सूरज, ग्रहों और उल्कापिंडों की भाँति
विवेक भी गोल है


और क्यूँ अक्सर
यह विवेक भटकता है एक गोल खाई में
जहाँ ज़बरदस्ती सन्नाटा निगला जाता है
और ऊगली जाती है लोहे की डकारें
आँखों में धसते जाते हैं गोल,तिकोने और चौकोर पत्थर
नाक अचानक से भाव सूँघती है
ताज़ा नहीं बल्कि बासी भाव
अपने साथ लेकर विचारों का समूह 
फ़िज़ा में आरक्षित ठिकाना तलाशते हुए
मानो विस्तार से कहीं क़ैद हो जाना चाहते हों


शरीर के चारो तरफ़ विलुप्त कालखंड घूमते हैं
किसी जीवित रूह में प्रवेश करने को आतुर
फिर पुनर्जीवित करना चाहते हैं 
कोई बरसों पहले मरी हुई वास्तविकता


वह शाम होते-होते ख़ुद पर सवार होती देखता है
गोल थकावट
यह वज़नदार परिणामों की गवाह धक्के मार-मारकर माँग करती है
इस दिनचर्या की बोझिल बेड़ियों से छुटकारा पाने की
किसी नए तरीक़े से उन पुरानी गोल नसों में प्रवेश करने की
उस बेबस ठंडे लहू के साथ दौड़ लगाने की


रात उभरती है तो बॉलकनी की ग्रिल पर 
एक जोड़ी कँपकँपाते हुए हाथ टिकते हैं
इक दिशा से एक और दिन गोल चाँद उतरता है
गोल यौवन से सराबोर हवाओं के परों पर चढ़कर दस्तक देता है
लेकिन कौन सुने यह अराजक अंतस ध्वनि


घर के अंदर से रिसता रहता दूषित शोर
बाहर धुँधली होती जाती भोर
इनके बीच कही विरोधाभासी आदमी अपना अस्तित्व तलाशता है


हालाँकि ओशो सहित दुनिया के सभी महामानवों ने फ़रमाया है
विचार-शून्य होना ही ध्यानस्त होना है
जीवन शून्यता की ही खोज है
फिर भी दिन-रात दशमलव ढोते हुए
चारों तरफ़ दशमलव होते हुए
तुम अपना शून्य महसूस नहीं कर पाते
अगर महसूस ही नहीं कर सकते
तो उसके पार जाना तो असम्भव होगा


अपनी गोल मृत्यु से साक्षात्कार के क्षणों में
तुम ज़रूर याद करना मेरी ये "गोल कविता"
 

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