दर्द का लम्हा

15-09-2021

दर्द का लम्हा

पूनम चन्द्रा ’मनु’ (अंक: 189, सितम्बर द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

दर्द 
जब साँसों के गलियारे से 
घूँट बनकर बह नहीं पाता
तभी आँखों के रास्ते . . . 
ज़मीं पर गिरता है!
 
एक एक बूँद
काँच सी टूटती है . . . बिखरती है
कुछ देर . . . टिमटिमाती है
और बुझ जाती है।
 
जाते जाते
एक लम्बी . . .
गहरी साँस दे जाती है 
जैसे —
सारा बीता वक़्त . . .
उस एक साँस में ही उतरा हो।
  
जैसे आने वाली ज़िन्दगी में
मिलने वाली हर साँस
इसके बाद जीने के लिए
अधूरी सी आनी हो . . .
 
माथे पर सिलवटें बहुत देर तक
उन दो गीली आँखों को बंद रखती हैं . . .
जैसे उस लम्हे को दुबारा पढ़ कर–
मिटाना चाहती हों
वो लम्हा जो न मिटाया जा सकेगा . . .
और न भुलाया . . .
 

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