बुद्धिनाथ मिश्र और उनकी सृजन-यात्रा

15-01-2021

बुद्धिनाथ मिश्र और उनकी सृजन-यात्रा

डॉ. अवनीश सिंह चौहान (अंक: 173, जनवरी द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

‘देवं धारयति इति देवधा’ यानी कि जो देव को धारण करता है उसे देवधा कहेंगे। ‘देवो दानाद्वा द्योतनाद्वा दीपनाद्वा द्युस्थानो भवतीति वा’ (निरुक्तकार यास्क) अर्थात् देव वह है जो दान देता है और यह दान, यह प्रकाश विद्या का हो सकता है एवं ज्ञान का भी। मेरी समझ में जो जीव मात्र के हित की बात करे, उसे अज्ञान से ज्ञान की ओर ले जाय, उसके जीवन में उजाला भर दे— वही है देव और आज के कठियाये समय में इस देवत्व की उपलब्धि उसी को होती है जिसके व्यक्तित्व का चरम विकास हो गया हो। देव या महामानव की स्थिति को प्राप्त होने के लिए सबसे पहले हमें मनुष्य बनना होगा और अपने गुणों को प्रकाशित करना होगा। शायद इसीलिए समस्तीपुर (बिहार) के छोटे से गाँव देवधा में 1 मई 1949 को जन्मे संवेदनशील नवगीतकार डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र 'मनुष्यता के भाव को' गीतायित करने का काम कर रहे हैं। मिश्रजी का यह गाँव उनके तरल मन की अतल गहराइयों में आज भी अपना आकार लिए बैठा है— तभी तो देवभूमि देहरादून में उनके बसने के बाद यह उनके आवास के रूप में ‘देवधा हाउस’ हो गया।

स्व पं. भोला मिश्रजी का यह भोला पुत्र 10 वर्ष की छोटी-सी अवस्था में अपना गाँव छोड़कर संस्कृत परिपाटी से विद्याध्ययन करने बनारस आ गया। यहाँ से पुनः उन्हें गाजीपुर जिले के रेवतीपुर गाँव जाना पड़ा, जहाँ उन्होंने गुरुकुल में रहकर मध्यमा तथा उत्तर मध्यमा की परीक्षाएँ उत्तीर्ण कीं। कुछ समय बाद मिश्रजी रेवतीपुर से वाराणसी लौटे। बनारस में रहकर उन्होंने बीएचयू से अंग्रेज़ी में एम.ए. किया। बाद में गोरखपुर विश्वविद्यालय से भी हिन्दी में एम.ए. कर लिया और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, बनारस से ‘यथार्थवाद और हिंदी नवगीत’ शोधप्रबंध पर पी-एचडी. की उपाधि प्राप्त की। संस्कृत, हिन्दी तथा अंग्रेज़ी भाषाओं के साथ उन्होंने उर्दू, पाली, भोजपुरी एवं बंगला भाषाएँ भी सीख लीं। उनके अंदर लेखकीय संस्कार था ही— उन्होंने विद्यार्थी जीवन में ही लेख, रिपोर्ताज, कहानियाँ और गीत-कविताएँ लिखना प्रारम्भ कर दिया था। परिणामस्वरूप वे कई पत्र-पत्रिकाओं में छपने लगे। इसी दौरान उन्होंने अपने चर्चित गीत ‘नाच गुजरिया नाच!’ के सस्वर पाठ से काव्य मंच पर भी अपनी उपस्थिति दर्ज करा दी— अवसर था बनारस में आचार्य सीताराम चतुर्वेदी की अध्यक्षता में गणेशोत्सव काव्य गोष्ठी का। उनकी इस गीत प्रस्तुति ने समां बाँध दिया। यहीं से कवि सम्मेलन को एक नया नाम मिला और सूँड फैजाबादी, शंभुनाथ सिंह, नजीर बनारसी, नीरज, सोम ठाकुर, ठाकुर प्रसाद सिंह, चन्द्रशेखर मिश्र, उमाकांत मालवीय, शिवबहादुर सिंह भदौरिया, माहेश्वर तिवारी (बाद में कैलाश गौतम, दिनेश सिंह, वीरेन्द्र आस्तिक, यश मालवीय आदि भी काव्यमंचों पर सहयात्री बने) से लेकर आचार्य सीताराम चतुर्वेदी, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, पं कमलापति त्रिपाठी, पं. सुधाकर पाण्डेय, शंकरदयाल सिंह जैसे दिग्गजों के सान्निध्य ने मिश्रजी को अल्पकाल में ही राष्ट्रीय ख्याति दिला दी थी। वहीं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर जो पहचान, जो प्रतिष्ठा, जो सम्मान उन्हें मिला, वह मिला धर्मवीर भारतीजी द्वारा संपादित ‘धर्मयुग’ में छपने के बाद। इसी में पहली बार 19 जनवरी 1972 के अंक में उनका बहुचर्चित गीत ‘जाल फेंक रे मछेरे!’ छपा था। फिर क्या था उनके प्रशंसकों का ताँता लग गया। बीबीसी के ओंकारनाथ श्रीवास्तव इस गीत को रिकार्ड करने लंदन से काशी चले आये और उनके इस गीत को श्रोता भी मिल गया। वह भी अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर।

सन् 1971 में ‘आज’ दैनिक के आमंत्राण पर मिश्रजी इस पत्र के संपादकीय विभाग से जुड़ गये। दस वर्षों तक पत्रकारिता करने के बाद 1980 में यूको बैंक के मुख्यालय में राजभाषा अधिकारी पद पर नियुक्त होकर कलकत्ता चले गये। वहाँ से स्थानान्तरित होकर 1998 में आप ओएनजीसी के देहरादून, उत्तरांचल स्थित मुख्यालय में मुख्य प्रबंधक (राजभाषा) पद पर कार्य करने लगे। यहाँ से सेवानिवृत्त होकर आप पूरे मन से साहित्य साधना में जुट गये हैं।

डॉ. मिश्र की रचनाएँ देश की सभी प्रमुख हिन्दी और मैथिली की पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। दूरदर्शन के प्रमुख केन्द्रों, विविध भारती तथा आकाशवाणी की विदेश प्रसारण सेवा से कई-कई बार काव्यपाठ प्रसारित हो चुके हैं। आपने कई देशों की साहित्यिक यात्राएँ की हैं। देश-विदेश में आयोजित कई राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय कवि सम्मेलनों में गत पाँच दशकों से काव्यपाठ किया है। साथ ही आपके मैथिली में लिखे संस्कार गीतों के दो ई पी रिकार्ड (वाराणसी), संगीतबद्ध शृंगार गीतों का ऑडियो कैसेट ‘अनन्या’ (कलकत्ता) तथा सस्वर काव्यपाठ के दो कैसेट ‘काव्यमाला’ और ‘जाल फेंक रे मछेरे!’ (वीनस कंपनी, मुंबई) काफी लोकप्रिय हुए हैं; जबकि आपके द्वारा विरचित— ‘जाल फेंक रे मछेरे!’ (नवगीत संग्रह, 1983), ‘नोहर के नाहर’ (एक समाजसेवी की जीवनी, 1991), ‘जाड़े में पहाड़' (दुष्यंत कुमार अलंकरण, भोपाल के उपलक्ष्य में प्रकाशित नवगीत संग्रह, 2001), शिखरिणी (नवगीत संग्रह, 2005) एवं ‘ऋतुराज एक पल का’ (भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली से प्रकाशित नवगीत संग्रह, 2013), 'निरख सखी ये खंजन आए' (आलेखों का संग्रह, 2016), 'क्यो नहि दै अछि आगि (मैथली गीत संग्रह, 2016), 'पुरना सतघरवा मे बैसल' (मैथली गीत संग्रह, 2020) आदि कृतियाँ उल्लेखनीय हैं। 'शिखर बोलते हैं' (कोरोना काल में फेसबुक पर धारावाहिक रूप से प्रस्तुत 111 दिवंगत गीतकारों की सृजन-यात्रा पर केंद्रित संकलन),  'The Clouds Graze on the Bugyals' (बुद्धिनाथ मिश्र के 40 चर्चित गीतों का डॉ अनुराधा बनर्जी द्वारा अंग्रेज़ी में अनुवाद), 'अव्यय अतीत' (दिवंगत साहित्यकारों के आत्मीय संस्मरण) एवं 'जाल फेंक रे मछेरे!' (1970 में लिखे इस गीत के 50 वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में प्रारंभिक गीतों का विशिष्ट संग्रह) शीघ्र प्रकाशित होने वाले हैं।

इसके अतिरिक्त डॉ शंभुनाथ सिंह द्वारा संपादित ‘नवगीत दशक-3’, कुमुदिनी खेतान द्वारा संपादित ‘एक हजार साल की हिन्दी कविता : स्वान्तः सुखाय’, साहित्य अकादमी द्वारा कन्हैयालाल नंदनजी के संपादन में प्रकाशित गीत संकलन ‘श्रेष्ठ हिन्दी गीत संचयन’, मारिशस से प्रकाशित अन्तर्राष्ट्रीय काव्य संकलन ‘विश्व हिन्दी दर्पण’, नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया द्वारा देवशंकर नवीन के संपादन में ‘अक्खर खंबा’ (स्वातंत्रयोत्तर मैथिली कविता संग्रह) तथा 'हिंदी समय', ‘कविताकोश’, ‘अनुभूति’, ‘सृजनगाथा’, 'पूर्वाभास', ‘रेडियोसबरंग डॉट काम’, ‘गीत-पहल’ आदि ई-पत्रिकाओं में भी मिश्रजी की अनेकों हिन्दी, मैथिली एवं भोजपुरी रचनाएँ संकलित की जा चुकी हैं। उनके कुछ गीतों का जहाँ भारत की कई अन्य भाषाओं में अनुवाद हो चुका है, वहीं उनके रचना-संसार पर कई छात्रा-छात्राओं द्वारा शोधप्रबंध भी लिखे जा चुके हैं। उनके साहित्यिक अवदान को रेखांकित करने के उद्देश्य से मार्च 2011 में 'नये-पुराने' पत्रिका का ई-अंक— "बुद्धिनाथ मिश्र की रचनाधर्मिता" वेब पत्रिका 'रचनाकार' पर प्रकाशित किया गया। 2013  में अवनीश सिंह चौहान के संपादकत्व में "बुद्धिनाथ मिश्र की रचनाधर्मिता" पुस्तक प्रकाश बुक डिपो, बरेली द्वारा प्रकाशित की गयी, जिसकी साहित्य समाज में भूरि-भूरि प्रशंसा हुई।

“एक बार और जाल/ फेंक रे मछेरे! जाने किस मछली में/ बंधन की चाह हो।” यह मछेरे वाला गीत जब मिश्रजी को एक गीतकार के रूप में साहित्य जगत में पहचान दिला रहा था, तभी से कुछ आलोचकों ने गीत की इन प्रारंभिक पंक्तियों पर प्रतिक्रियाएँ करना शुरू कर दिया था। यह कहकर कि आधुनिक समय में जहाँ महिला अधिकारों की बात की जा रही है, उसकी मौलिक स्वतंत्रताओं की सुरक्षा पर बल दिया जा रहा है, वहाँ उसके बंधन की बात करना, परतंत्रता की बात करना नारी की गरिमा को ठेस पहुँचाना है। लेकिन मुझे लगता है कि इन पंक्तियों में गीतकार महिला मन को निरूपित करने का प्रयास कर रहा है। उसके स्वाभाविक गुण को, उसकी मानसिक स्थिति को, उसकी संवेदनाओं को परख कर ही कवि ने यह बात कही होगी। इस दृष्टि से यह ‘जाल’ और यह ‘बंधन’ परतंत्रता का सूचक नहीं बल्कि प्रीति का है, प्रेम का है, आकर्षण का है। और यही बात कवि अपने उक्त गीत की इन पंक्तियों में कह भी रहा है- “यों ही न तोड़ अभी/ बीन रे सपेरे! जाने किस नागिन में/ प्रीत का उछाह हो।”

प्रेम की अभिव्यक्ति इस गीतकार के कई गीतों में देखने को मिलती है। और यह विशुद्ध रूप से प्रेम की आदिम संवेदना का उद्‌घाटन ही है। ऐसा लगता है कि यह कवि प्रेम को खास अहमियत देता है न केवल अपनी रचनाओं में, बल्कि अपने जीवन-व्यवहार में भी। अकबर इलाहाबादी की तरह ही- “इश्क़ को दिल में दे जगह अकबर/ इल्म से शायरी नहीं आती।” इसीलिए एक बात बार-बार मन में आती है कि इस गीतकार ने मंच पर पहली बार दस्तक दी, तो वह प्रेम की भावनाओं को उकेरता गीत था ‘नाच गुजरिया नाच!’ और मुद्रित साहित्य में गीत था ‘जाल फेंक रे मछेरे!’ उसकी यह प्रेम-यात्रा प्रथम गीत संग्रह से लेकर चौथे गीत संग्रह तक जारी है। ‘चलती रही तुम’ इसी चौथे गीत संग्रह में संकलित है, जहाँ प्रेम की उसकी वैयक्तिक भावना सामाजिक सरोकारों से जुड़कर विस्तृत हो जाती है।

इस कवि के प्रणयगीतों में प्रेयसी राधा की तरह है, सीता की तरह है, विपाशा की तरह नहीं- “मेरी मीता/ मन की राधा/ तन की सीता” और “सावन की गंगा जैसी/ गदरायी तेरी देह/ बिन बरसे न रहेंगे/ ये काले-काले मेघ।” उपभोक्तावाद के इस युग में जहाँ नारी देह को एक प्रोडक्ट के रूप में लाँच किया जा रहा है, कवि की यह सात्विक अभिव्यक्ति काफ़ी राहत देती है। चूँकि प्रेमगीतों का उत्स संयोग और वियोग की स्थितियों से मथकर आता है, वियोगी मन का चित्रण ज्यादा मार्मिक लगता है। कुछ ऐसी ही स्थिति बनती है इन पंक्तियों में– “मैंने युग का तमस पिया है/ सच है।/ लेकिन तुमसे प्यार किया है/ यह भी सच है।” यहाँ प्रेमी के विरहाकुल मन से लेकर उसके जीवन में इस कारण से आये बदलाव, पीड़ा-वेदना, राग-अनुराग-आनंद का सहज चित्रण देखने को मिलता है। कवि का यह प्रेम दर्शन निरा काल्पनिक नहीं है, बल्कि यथार्थ के धरातल पर टिका हुआ है, जिसमें जीवन को साथ-साथ जीने का संदेश छिपा है और इसीके बल पर यह प्रणयी अवरोधों का सामना करता है, हौसला बनाये रखकर, आत्मविश्वास एवं आस्था जगाये रखकर– “मैं दिया बनकर तमस से लड़ रहा था/ ताप में, बन हिमशिला गलती रही तुम” और “जब कभी मैं धूप में जलने लगा/ कोई साया प्यार का, बादल बना।” प्रेम की उक्त उदात्त एवं पवित्र संवेदना अपने जीवन को खुशहाल बनाने तक सीमित नहीं है, उसका यह चिंतन ‘सर्वजन हिताय’ की भावना से भी प्रेरित है– “मैं चला था पर्वतों के पार जाने/ चेतना का बीज धरती पर उगाने।” यह भावना इस कवि को लोक से जोड़ती है, जीवन से जोड़ती है, स्वामी विवेकानन्दजी के इस विचार की तरह ही– “पारलौकिक ज्ञान एवं प्रेम सार्थक तब होते हैं, जब हम यथार्थ से, इस लोक से जुड़े रहें और हताश हुए व्यक्तियों के प्रति दया एवं करुणा की अनुभूति करते रहें।” हालाँकि कहता है– “गंगातट की अमराई से/ कावेरी तट के/ झाऊवन तक एक प्रेम की/ भाषा का है राज।” एक बात और जो महत्त्वपूर्ण है इन गीतों में- प्राकृतिक दृश्यों की पृष्ठभूमि। जब-जब यह कवि प्रेम की वंशी बजाता है, राधा आती है, नाचती है, बतियाती है और सारा वातावरण मधुवन हो जाता है। ऐसे में एक चित्र-सा उभरने लगता है भावक के मन में– फूल-पाती, गाँव-खेत, तोता-मैना, चाँद-चाँदनी, नदी-कछार वाला। एक सुन्दर चित्र–

भूल आयी हँसिया मैं गाँव के सिवाने
चोरी-चोरी आयी यहाँ उसी के बहाने
पिंजरे में डरा-डरा
प्रान का है सुगना
चाँद, जरा धीरे उगना।

ऐसा स्वाभाविक चित्रण मन को मोह लेता है। शहर के प्लाज़ा, पब और पिज़्ज़ा संस्कृति से दूर गाँव-खेत के खुले वातावरण में ले जाता है यह गीतकार। गाँव, वही जो मिश्रजी के मन में बसा हुआ है। देवधा गाँव जहाँ उनका बचपन बीता। लेकिन ‘यह भी सच है’ कि शिक्षा-दीक्षा एवं आजीविका की दृष्टि से उनका अधिकांश समय घाटों के शहर बनारस, बौद्धिक नगरी कोलकाता और देव-संस्कृति की भूमि देहरादून में बीता। और जब कभी अवकाश मिला, तो उन्होंने न केवल अपने देश के एक छोर से दूसरे छोर तक, बल्कि विदेशों में कई यात्राएँ कर अपने कवि मन को विभिन्न अनुभवों से समृद्ध किया। शहर में लम्बे समय तक प्रवास के बावजूद उनका गाँव से रिश्ता बना हुआ है। कहा जाय तो उनके गीतों में मैथिली और भोजपुरी गाँवों का दर्शन प्रकृति के मनोहारी रंगों के साथ होता है। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि उनका यह ग्राम्य-चिन्तन इस क्षेत्र विशेष तक ही सीमित हो, वह तो भारत के सभी गाँवों का प्रतिनिधित्व करता है और उनका प्रकृति चित्रण सम्पूर्ण धरा का। प्रकृति से उठाए गये प्रतीक-उपमान उनके गीतों में ऐसे प्रकट होते हैं कि शब्दों और ध्वनियों में गाँव-जँवार जीवन्त हो उठता है। लगता जैसे सब कुछ आँखों देखा हो–

भाँति-भाँति के चित्र बेचती
गंधी बनी आज अमराई।
कुलदेवी की बाँह बंधे/ ‘सपता’ के डोरे
बनजारे की बाट रोकते/ हरे टिकोरे।
 
नाहक धूम मची विप्लव की/ गाँव-गाँव में
वात्याचक्र जिधर उन्मद/ गज-सा मुँह मोड़े।
छीन लिया सर्वस्व नीम ने
देकर एक डाल बौराई।

अमराई, कुलदेवी, ‘सपता’ के डोरे, बनजारे, नीम का बौराना- यह सब गाँव में ही मिलेगा। तभी तो लोक जीवन से लेकर प्रकृति में विचरण करते जीव-जंतुओं, हवा में कुलाँचे भरते पंछियों और फूल-पाती से आच्छादित प्रकृति के सौन्दर्य को इतनी मोहकता एवं कलात्मकता से उकेर ले जाते हैं अपनी रचनाओं में मिश्रजी। उनका मन गाँव जाने को करता है पर रोजी-रोटी की चिंता उन्हें शहर छोड़ कर जाने नहीं देती– “इच्छा हर भैये की होती/ अपने घर जाने की/ लेकिन जाए कहाँ नरक से/ चिंता है दाने की।” कितनी मर्मस्पर्शी हैं ये पंक्तियाँ।

कवि का यह चित्रण जीवन-जगत के सुखद पहलुओं की ओर संकेत तो करता ही है, विकास की अंधी दौड़ से उपजी आज की दुःखद स्थितियों की अभिव्यक्ति भी इसमें भरपूर होती है। ऐसा लगता है कि कवि भविष्य के गर्त में छिपे रहस्यों को भाँपना जानता है। तभी तो जिन तथ्यों का पूर्वानुमान उसने अस्सी और नब्बे के दशकों में कर लिया था, वह सब कुछ अब घटित हो रहा है। यह मामूली बात नहीं है। कहा जाय तो इस कवि में दूरदर्शिता है, वैचारिक गंभीरता एवं परिपक्वता है और है समाज एवं राष्ट्र के प्रति दायित्व-बोध। वह अपने हित के लिए नहीं सोचता, उसे चिंता है समाज की, जीवमात्र की, प्रकृति और पर्यावरण की। वह जानता है कि भूमण्डलीकरण और तकनीकी उन्नति भले ही हमें साधन-संपत्ति उपलब्ध करा दे, लेकिन यह हमसे हमारी प्राकृतिक संपदा, हमारा राग-भाव, हमारे रीति-रिवाज, हमारी आस्था-विश्वास, हमारी शांति तथा हमारा सौन्दर्य भी छीन रही है। यह नई व्यवस्था, नई प्रणाली हमारे समाज को अपने अधीन करके उसे उदासीन बना रही है और बना रही है स्वार्थी एवं खोखला। कवि चिंतित है–

जाने क्या हुआ/ नदी पर कोहरे मँडराये
मूक हुई साँकल/ दीवार हुई बहरी है।
बौरों पर पहरा है/ मौसमी हवाओं का
फागुन है नाम/ मगर जेठ की दुपहरी है।
अब तो इस बियाबान में/ पड़ाव ढूँढ रही
मृगतृष्णा की मारी जिंदगी।
*****
क्या भाषा क्या संस्कृति/ अवगुणता का हुआ विकास
पब के बाहर पावन तुलसी-/ पीपल हुए उदास।
कड़वी लगे शहद, मीठी/ पत्तियाँ नीम की आज।

शायद तभी दिनेश सिंहजी ने कहा होगा कि “कभी सपने में नहीं था/ जिन्दगी का रूप यह/ इतना अचीन्हा।” मिश्रजी इसका कारण भी खोज निकालते हैं। वह है शहरी जीवन का संत्रास। वहाँ की अपसंस्कृति। और यही शहरी कचरा गाँवों की ओर पसरता जा रहा है तथा वहाँ के वातावरण को प्रदूषित करने लगा है। कवि बहुत साँसत में है यह सब देखकर- “तुलसी की पौध रौंदते/ शहरों से लौटे जो पाँव/ शीशे-सा दरक गया है/ लपटों में यह सारा गाँव/ सूने आकाश के तले/ भिक्षा को फैला आँचल।” यानी कि गाँवों में अब वैसी स्थिति नहीं रही। ये भी बहुत बदल गये हैं। इतना कि स्व कैलाश गौतमजी कह उठते हैं- “गाँव गया था, गाँव से भागा।” गौतम जी का गाँव से भागना वहाँ की विकट स्थिति की ओर संकेत करता है, जबकि मिश्रजी की दृष्टि में यह गाँव अब झुलस रहा है। तभी तो वह कहते हैं- “सुमरो ना मन मेरे/ बीते दिन भूल के।” साथ ही वह मानते हैं कि हमारे खेत-खलिहान, हमारी हरियाली आदि वैश्वीकरण तथा निजीकरण की भेंट चढ़ रही है। क्योंकि हमने खेती की उपेक्षा की, वह भी अपने कृषि-प्रधान देश में। गाँव की बहुत-सी खेती योग्य जमीन पर हमने कंकरीट का जंगल उगा दिया और अपने किसान भाइयों को भूमिहीन मजदूर बनाकर छोड दिया– “मुट्ठी में कसकर मुआवजे के/ रुपये थोड़े/ अपने खेतों पर बुलडोज़र/ चलता देख गड़ा ।” जिससे सहकारिता पर आधरित हमारी कृषि, लघु एवं कुटीर उद्योग चौपट हो रहे हैं। ऐसे में बिनोवा भावेजी तथा लाल बहादुर शास्त्रीजी जैसे तेजस्वी व्यक्तियों की आवश्यकता को महसूस करता है यह कवि-

कहाँ गये वे अश्वारोही/ राजा और वजीर
धुंधली पड़ी सभी/ तेजस्वी पुरुषों की तस्वीर।
खेतों पर कब्जा मॉलों का/ उपजे कहाँ अनाज।

जनसंख्या बढ़ रही है। देश की ज़रूरतें बढ़ रही हैं। वस्तुओं के दाम बढ़ रहे हैं। मुद्रा का मूल्य गिर रहा है। हमारे साधन सीमित हैं। उस अनुपात में हमारा उत्पादन घटता चला जा रहा है। परिणामस्वरूप ग़रीबी, भुखमरी, बेरोज़गारी, अशिक्षा, कुपोषण, महँगाई, पिछड़ापन जैसी समस्याएँ मुँह बाये खड़ी हैं और हम बैठे हैं इस ग्रामीण की तरह ही– “पूरा गाँव जल गया मेरा/ पिछले फागुन मास में/ बड़ के नीचे बैठा हूँ/ अब भी राहत की आस में।” जो भी ऐसे संकट से गुजर रहा है और राहत की आस लगाये बैठा है, उसकी समस्याओं का निराकरण हो, उसे जीवन के लिए ज़रूरी मूलभूत सेवाएँ उपलब्ध करायीं जायें और उसके दुःख-तकलीफ दूर हों- यही तो चाहता है यह गीतकार। जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक समाज का यह वंचित वर्ग, पीड़ित वर्ग पिसता रहेगा, जीता रहेगा आह और कराह की ज़िंदगी। एक विडम्बना यह भी है कि हम तथाकथित सभ्य समाज के लोग किसी के दुःख-दर्द में शामिल होना एवं उसका सहयोग करना तो दूर, उससे बतियाना भी भूल गये हैं। यह हमारे आत्मीय संबंधों की छीजन और मानसिक विकृति का प्रमाण है-

मारे गये हजार बोलियाँ/ बोल-बोल कर आप
दरका हुआ दर्प का दर्पण/ धन है या अभिशाप!
यहाँ-वहाँ के तोता-मैना/ बतियाते खुलकर
तरस गया सुख-दुख बतियाने को/ यह सभ्य समाज।

लगता है कि इन्हीं स्थितियों से व्यथित होकर माहेश्वर तिवारीजी ने लिखा है-

उजड़ चुकीं/ संगीत सभाएँ/ ठहरे हैं संवाद
लोग-बाग/ मिलते आपस में/ कई दिनों के बाद।
गंगा सूख रही/ लहरों का टूटा साज रहा।

समाज का यह स्वरूप संकेत करता है कि हमारा आत्मपक्ष कमज़ोर हुआ है, हमारी संवेदना कुंठित हुई है। हमारे अन्दर अप्रत्याशित भय एवं असुरक्षा की भावना ने जगह बना ली है। हम सही-ग़लत का निर्णय लेने में कठिनाई महसूस करते हैं या कहें कि हम ऐसे निर्णय लेना ही नहीं चाहते तथा हमारा मन शंकालु हो गया है। अन्दर से टूटे हैं हम, पर प्रसन्नता का अभिनय करते हैं और सिद्ध करने में लगे हैं कि पैसा ही सब सुखों की खान है, जबकि स्थिति कुछ और है। कवि की कोशिश है कि देश-दुनिया के लोग उपर्युक्त तथ्यों पर भी ध्यान दें और अपना मौन तोड़ कर कुछ सकारात्मक कार्य करें मानव की भलाई के लिए।

कहने को सरकारी और गैर-सरकारी स्तर पर कई मानवीय प्रयास किये जा रहे हैं, पर आम आदमी को, पीड़ित समाज को कितना लाभ मिला? यह अपने आप में एक बड़ा सवाल है। आकड़े कुछ भी कह सकते हैं- “चर्चा उसने जरा चलायी/ महँगाई की थी/ लगे आंकड़े फूटी झाँझ/ बजाने उद्यम की।” कवि की मानें तो यह ढिंढोरा पीटने वाली स्थिति ज्यादा दिखाई देती है, जमीनी हकीकत कुछ और ही है। इसके लिए दोषी हम ही हैं। हमें खुद ही अपने अधिकारों का पता नहीं। हम तो चिड़ियाघर के इस तोते की तरह ही हैं- “चिड़ियाघर के तोते को है/ क्या अधिकार नहीं! पंख लगे हैं, फिर भी/ उड़ने को तैयार नहीं।” अब समय आ गया है कि हम अपने दायित्वों-अधिकारों के प्रति जागरूक हों और अपनी समस्याओं का हल स्वयं खोजें। तभी हम अपनी गरिमा को बनाये रखकर अपने दुःखों से निजात पा सकेंगे।

एक बात और जो बहुत ही महत्त्व की है– हमारे देश में सामाजिक एवं ज़मीनी स्तर पर लोकतंत्र का अभाव। स्वतंत्रता तो हमें मिली पर उसकी जगह स्वच्छन्दता ने ले ली, जिसकी ओट में पूँजीपति, राजनेता तथा नौकरशाह अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं और करते मनमानी भी। कवि की संवेदना देखिये– “गले लिपटा अधमरा यह साँप/ नाम जिस पर है लिखा गणतंत्र/ ढो सकेगा कब तलक यह देश/ जबकि सब हैं सर्वतंत्र स्वतंत्र/ इस अवध के भाग्य में राजा/ अब कभी राघव नहीं होंगे।” क्या सोचा था हमने और हुआ क्या? आज़ादी के समय हमने सोचा था कि हमारे समाज में भाईचारा होगा, समानता होगी, सर्वधर्म समभाव होगा और होगी आर्थिक समता। पर हुआ इसका उल्टा ही– जाति भेद, सांप्रदायिकता एवं आर्थिक विषमता ने जड़े जमा लीं हैं हमारे बीच। वहीं अराजकता, अव्यवस्था, शोषण, अत्याचार, प्रतिरोध एवं वर्गद्वेष जैसे विषांकुर हमारी जमीन पर उग आये हैं। ऐसे में हमारा संपूर्ण सामाजिक-राजनीतिक जीवन अलोकतांत्रिक दिखाई पड़ रहा है। तीखी टोन में कवि की यह वेदना मन को झकझोरती है–

लोकतंत्र हो गया तमाशा पैसे का है
उजले पैसे पर हावी है काला पैसा
सदाचार की बस्ती हाहाकार मचा है
रौंद रहा सबको सत्ता का अँधा भैंसा।
पाण्डुरोग से ग्रस्त तरुण भारत के खातिर
वादों का है जंतर-मंतर, जनता कहती।

इसी को शिवबहादुर सिंह भदौरियाजी “लोकतंत्र : लठियाव” की संज्ञा देते हैं। यानी कि जिसके पास पैसा है, ताकत है, पहुँच है वही हमारे देश में चढ़ता है संसद की सीढ़ियाँ। इस प्रकार चुने गये भ्रष्ट, बेईमान एवं पतित राजनेता लोकतंत्र का तमाशा बनाते हैं और मतदाताओं को छलते हैं– “हर चुनाव के बाद आम/ मतदाता गया छला/ जिसकी पूँछ उठाकर देखा/ मादा ही निकला/ चुन जाने के बाद हुए/ खट्‌टे सारे अंगूर।” ऐसे में “लहूलुहान जनता की/ है परवाह किसे।” जनता की यह पीड़ा सामाजिक-राजनीतिक क्षेत्र के साथ-साथ आध्यात्मिक जगत में भी देखी जा सकती है। मिश्रजी अपने गीत ‘भोले बाबा’ में यही तो कहते हैं- “सड़क किनारे, नित असंख्य/ संतानों के संग/ सोता है बूढ़ा बेचारा/ जीवों-मरजीवों के बाबा।” कितनी सटीक प्रस्तुति है हमारे बहुसंख्यक भाइयों की, बहिनों की, हमारी आस्था की और हमारे अध्यात्म की, हमारे परित्यक्त मंदिरों और मूर्तियों की। और आजकल जो लोग आध्यात्मिकता का पाठ पढ़ा रहे हैं, उनका स्वयं चरित्र गिर गया है। वे महत्वाकांक्षी एवं विलासी हो गये हैं। साथ ही देखें आम आदमी का संघर्ष भी कवि के इन शब्दों में–

मुझ गृहस्थ को दाना-पानी/ जुट जाए तो सफल मनोरथ
कुछ संन्यासी होकर भी/ चाहते पालकी, चाँदी का रथ।
संत रंग के कलाकार सब/ ईश्वर से ज्यादा पूजित हैं।

इन विडम्बनाओं को ध्यान में रखते हुए हमें जनता की पीड़ा-परेशानी को समझना होगा, उसके महत्व- उसकी गरिमा का ध्यान रखना होगा और उसके हित में सोचना होगा, तभी अपने प्रजातांत्रिक भारत में सही मायने में समृद्धि, शांति, सुख एवं विकास की धारा बह सकेगी। और तभी हम मानवता की राह पर चल सकेंगे। खलील जिब्रान भी इसी ओर संकेत करते हैं- “मानव जीवन प्रकाश की वह सरिता है, जो प्यासे को जल प्रदान कर उसके जीवन में व्याप्त तिमिर को दूर भगाती है।” ऐसा दृष्टिकोण ही मनुष्य को मनुष्य बनाता है, सामाजिकता एवं मूल्यपरक जीवन जीने की भावना जगाता है और बोध् कराता है जीवन के वास्तविक उद्देश्यों का। इस कवि की रचनाधर्मिता का मूल अभिप्राय भी यही है।

कविप्रवर मिश्रजी की भारतीय जीवन के विविध सरोकारों के प्रति यह सजगता एवं संवेदनशीलता भारतीय भौगोलिक सीमाओं से बाहर पसर कर सागर पार पहुँच जाती है, जहाँ यह “वसुधैव कुटुंबकम्‌” की भावना को उदघाटित करने लगती है। तभी तो ‘मॉरिशस’, ‘लाल पसीना’, ‘मस्क्वा नदी के तट पर’ तथा ‘पीटर्सबर्ग में पतझर’ आदि गीत सागर-पार की संवेदना को व्यंजित ही नहीं करते, वहाँ के समाज, वहाँ की संस्कृति, वहाँ के परिवेश, वहाँ की विसंगतियों तथा वहाँ के सौन्दर्य से भारतीय पाठकों का परिचय भी कराते हैं। गीतकार की यह सहज एवं सटीक अभिव्यक्ति सराहनीय तो है ही, सहृदयों को इस आयाम पर भी चिंतन करने की प्रेरणा प्रदान करती है।

मिश्रजी गीत को गीत की तरह ही व्यंजित करने के आग्रही हैं। यानी कि गीत को सार्थक रागवेशित रचना के रूप में लिपिबद्ध करना ही आवश्यक नहीं मानते, बल्कि उसके सस्वर पाठ की जरूरत को भी महसूसते हैं। इसीलिए वह अपने मधुर स्वर, खनकते शब्द तथा लयात्मक प्रस्तुति से अपने गीतों को जन-मन तक पहुँचाने का भरसक प्रयत्न कर रहे हैं। वह अपनी प्रत्येक कोशिश में गीत की नदी को अनवरत बहाने, उसका व्यापक प्रसार करने तथा गीत का वातावरण बनाने के लिए संकल्परत लगते हैं। यही कारण है कि उन्होंने हिन्दी गीत को न केवल भारत भूमि पर, बल्कि विदेशों में भी सम्मोहक स्वर में गाया-गुनगुनाया है और उसकी पहचान एवं प्रासंगिकता का पाठ बड़े मन से पढ़ाया है। इस जिजीविषु, सेवाधार्मी एवं आशावादी गीतकार का हम सबके लिए संदेश है–

शुभ्र ज्योत्सना-स्नात/ भारतभूमि के ओ सार्थवाहो
तोड़ना होगा तुम्हें माया-रचित/ प्रतिसूर्य का भ्रम।
शक्ति के विद्युतकणो,/ चलते रहो तुम अग्निपथ पर
लक्ष्य थोड़ी दूर पर/ स्वाराज्य का है दिव्य अनुपम।
आज तक कटती रही हैं/ जिस तरह तिथियाँ बदी की
यह अंधेरी रात भी/ कट जायगी अतिशीघ्र निश्चित।
पिफर उगेगा सूर्य प्राची में/ खिलेंगे कमल के दल
ब्रह्मबेला को करेंगे/ भैरवी के गीत मुखरित।

मिश्रजी के गीतों का अध्ययन करते समय मन कह रहा था कि यदि उनकी मैथिली कविताओं की यहाँ चर्चा न की गई तो बात अधूरी रह जायेगी। सो इस बहुभाषी रचनाकार के मैथिली साहित्य को भी निरख-परख लिया जाय। लेकिन समस्या यह है कि उनकी अभिव्यक्ति एवं भावान्विति को मैं कैसे समझूँ? मुझे तो मैथिली आती ही नहीं है। पर प्रयास कर रहा हूँ थोड़े में अपनी बात कहने का, बाकी पाठक स्वयं समझ लेंगे उनकी मैथिली रचनाएँ पढ़कर।मिश्रजी की मैथिली कविताओं का कथ्य उनके गीतों जैसा ही है। अपनी परंपरा, अपनी जातीय संस्कृति तथा लोकजीवन के साथ उत्तर-आधुनिक प्रवृत्तियों के प्रति सजग यह कवि चीजों को बहुत ही विश्लेषणात्मक ढंग से प्रस्तुत करता है। उसे अपने अंचल की स्थितियों-परिस्थितियों की गहरी समझ है। उसके इस आंचलिक बोध से लगता है कि वह शहर में नहीं बल्कि अपने गाँव में रह रहा हो, अपने आसपास की वस्तु-स्थिति का अध्ययन कर रहा हो। और अपनी प्रतिभा से अपनी इन भावनाओं को अपनी कविता में आकार दे रहा हो। अपनी इस प्रक्रिया में उसे पता है कि कैसे समय के साँचे में उभरी टेढ़ी-मेधी आकृतियों का शब्द-चित्र खींचा जाय, कैसे विद्रूप स्वरों को अपनी काव्य-ध्वनियों में समोया जाय, कैसे अपनी अभिव्यक्ति में टटकापन लाया जाय और कैसे इसे सीधे-सरल ढंग से व्यक्त किया जाय! उसकी यह अपनी कला है, कोई जादू नहीं। न कोई दिखावा, न कोई दुराव। जो दिखाई दिया, व्यक्त कर दिया। लेकिन अपनी इस व्यंजना में यह कवि बोल्ड है। कुछ पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं–

देसी गुरूजीक एक्काँ-दुक्काँ/ सबैया-अढैया आ
गरहाँ जा रहल’ ए भूगर्भ मे/ जीवाश्म बनबा लेल।
*****
मैकालेक बनाओल/ स्कूलक चारू कात
कटि रहल छै मेहदीक वंश/ बढि रहल छै नागफेनीक बेढ़ ।
*****
आब अहाँ छी परम स्वतन्त्र
वैश्वीकरणक सुनामी
अहाँक चौरा पर साटि रहल अछि
विश्वग्रामक चुम्बकधर्मी विज्ञापन।
*****
जनी जाति/ आब साम-कौनी
आ गम्हरी धन/ नहि रहि गेली’ हे।

इन रचनाओं से संकेतित होता है कि हमने अपने पुरातन ज्ञान की अवहेलना की, हमारी वर्तमान शिक्षा प्रणाली में सुधार की आवश्यकता है, हमने अपनी विरासत को भुला दिया है और भटका दिया है अपने आपको विश्व-ग्राम के रेले मेले में तथा हम अपनी जड़ों से कटकर किसी डाल पर कटी पतंग की तरह फँसे हुए फड़फड़ा रहे हैं। हमारा आपसी प्रेम कम होता जा रहा है। हमारी जातीय अस्मिता खतरे में है और हमारे अन्दर तामसी प्रवृत्तियों की एक संवेदनहीन इंडस्ट्री खड़ी हो गई है, जोकि अपना मुँह बनाकर हमें चिढ़ा रही है। यही तो है आज का यथार्थ, हमारे लोक जीवन का यथार्थ। ऐसा चित्रण करने की सामर्थ्य है इस कवि के पास और है समसामयिक सोच भी। ऐसे में मुझे लगता है कि यदि मिश्रजी केवल मैथिली कविताएँ ही लिखते होते तब भी एक सार्थक रचनाकार के रूप में उनको काव्य जगत में विशिष्ट स्थान मिला होता।

मिश्रजी का कण्ठस्वर उतना ही प्रीतिकर है, जितना कि उनका शब्द-सौन्दर्य एवं भाव-सौन्दर्य। इसीलिए उन्हें श्रोताओं और पाठकों में समान प्रतिष्ठा मिली। उनके पास न केवल गायन की, बल्कि गीत-कविता को ढालने की भी अपनी शैली है, अपनी सामर्थ्य है। वे जब गाते हैं, तो शब्दों का उतार-चढ़ाव, टेक, लय, धुन तथा उसकी मिठास रसिकों को आप्लावित करती है। और जब वह लिखते हैं तब उनका एक-एक शब्द मक्के के दाने की तरह सहजता से सेट होता चला जाता है उनकी रचनाओं में। उन्हें इसके लिए अतिरिक्त परिश्रम नहीं करना पड़ता होगा। इस हेतु उनके पास संस्कृत परिपाटी से अध्ययन, पत्रकारिता और राजभाषा अधिकारी के रूप में कार्य कर अर्जित किया हुआ भाषाई ज्ञान है और है अपना शब्दकोश। इसमें तत्सम, तद्‌भव तथा देशज शब्द हैं और फारसी तथा अरबी जैसी विदेशी भाषाओं के शब्द भी। साथ ही यौगिक तथा योगरूढ़ शब्द भी प्रचुर मात्रा में मिलते हैं उनके गीतों में। भोजपुरी तथा मैथिली का उनकी भाषा पर विशेष प्रभाव दिखाई पड़ता है। लेकिन उनकी शब्दावली व्यावहारिक, सहज एवं ग्राह्य है। केवल संस्कृत ग्रंथों, इतिहास की पुस्तकों तथा लोक कथाओं से ली गयी ‘टर्मोलॉजी’ को छोड़कर, जोकि कहीं-कहीं गूढ़ है। बिना फुटनोट्‌स पढ़े समझ में नहीं आती–

है व्यवस्था-सूर्य के रथ में/ जुतें बैशाखनंदन
हयवदन के मुण्ड से हो/ अर्चना गणदेवता की।
*****
बाजबहादुर राजा, रानी वह रूपमती
दोनों को अंक में समेट सो रही धरती।
*****
यह नदी ही है कि जिसके पाश में
बंधकर कभी उड़ ही न पाये/ पंखवाले नग।

संस्कृत ग्रंथों में वर्णन आता है कि विष्णु ने दैत्यों से वेदों का उद्धार करने के लिए जो घोड़े का रूप धरा था, उसीसे वह हयवदन कहलाये। इतिहास में माण्डू के राजा बाजबहादुर तथा रानी रूपमती की प्रेमकथा का उल्लेख है, जबकि लोककथाओं में कहा गया है कि पहाड़ों के पंख होते हैं, हिरामन तोता बहुत ही बुद्धिमान होता है आदि। इससे पता चलता है कि यह कवि अध्ययनशील है, चीजों को गौर से देखता-परखता है और यह प्रक्रिया उसकी यात्राओं के दौरान भी जारी रहती है। जहाँ से जो मिला, ले लिया। इसीलिए उसकी भाषा कबीर की तरह लगती है। लेकिन उसमें अपना लालित्य है, अपनी लय और अपना अर्थ है। उसमें प्रेषणीयता है तथा जनता की मनोलय से जुड़ने की अद्‌भुत क्षमता भी है। कमोवेश यही स्थिति कवि के बिंबों की भी है। उसके बिंब उसकी निजी प्रयोगशाला में रचे गये हैं, इनका सौन्दर्य एवं आकर्षण देखते ही बनता है। इन बिंबों का प्रभाव हमारे मानस पटल पर लम्बे समय तक बना रहता है और यही तो विशेषता है अच्छे बिंबों की। यथा– “बंसबिट्टी में कोयल बोले/ महुआ डाल महोखा/ आया कहाँ बसंत इधर है/ तुम्हें हुआ है धेखा।” सांकेतिकता से युक्त उनके बिंब तरल हैं और द्रावक भी। हमारे मन को छूने वाले ये बिंब चिंतनपरक भी हैं। वह बिंब तो बनाते ही हैं, उसके साथ ध्वनियाँ भी रचते हैं और ये ध्वनियाँ अर्थ को, विचार को स्पष्ट करने में पूरी तरह से सहायक हैं। जबकि उनके मिथकों में भारतीय संस्कृति व्यंजित होती है, लोकमन व्यक्त होता है, जोकि न केवल मानकीय है, बल्कि उनकी अपनी आभा है।

मिश्रजी को गीत को कविताई अनुशासन में बँधने की महारत है। उनके छन्द कसे हुए हैं। उनके ज्यादातर गीतों में वाक्य-विन्यास सन्तुलित है तथा उनकी लय बंधी हुई है। कभी-कभी उनके छन्दों में पंक्तियाँ बढ़ जाती हैं लेकिन उनमें विचार की लय टूटती नहीं। कथ्य एवं शिल्प दोनों ही दृष्टि से उनके गीत वजनी हैं। उनमें नवीनता है। अभिव्यक्ति में तल्खी है। तरलता, सरलता एवं स्वाभाविकता ने उनके शिल्प-सौन्दर्य को बढ़ा दिया है। उनके छन्दों में मैथिली और भोजपुरी की लोकधुनें भी सुनाई पड़ती हैं। कुल मिलाकर, जब भी उनकी संवेदना गीतों में ढलती है, उनके गीत अपनी विशिष्ट लय, तुक-ताल, नाद और गेयता को समोये हुए सामने आते हैं। इसीलिएयह कवि कह लेता है कि “जो भी मैं लिखता हूँ/ वह कविता हो जाती है।”

मिश्रजी गद्य में भी साधिकार लिखते हैं। उनकी भाषा में शक्ति है, संप्रेषणीयता है और है शब्द सामंजस्य। उनकी विशिष्ट सोच से परिचय कराती उनकी उर्जस्वित लेखनी जीवन और साहित्य को सलीके से व्यंजित करती है। उनकी यह व्यंजना प्रामाणिक एवं रोचक भी है, जोकि गद्य साहित्य में एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि हो सकती है, बशर्ते विद्वान- आलोचक इस दृष्टि से भी उनका मूल्यांकन करने का कष्ट करें।

शिलर का कथन है कि मनुष्य अनुकरण करने वाला प्राणी है और जो सबसे आगे बढ़ जाता है वही समूह का नेतृत्व करता है। मुझे लगता है कि मिश्रजी में नेतृत्व की अपूर्व क्षमता तो है ही, उनमें आत्मविश्वास, दृढ निश्चय, विवेक, उदारता, सहजता, सौम्यता एवं दूसरों से अपनी बात मनवाने का बेजोड़ हुनर भी है। शायद तभी इस बेसुरे कविता समय में उनके आग्रह पर उन पत्र-पत्रिकाओं ने भी गीत को ‘स्पेस’ देना प्रारंभ कर दिया, जिन्होंने काव्य की इस विधा को लगभग भुला ही दिया था। उनकी इस विशिष्ट ‘पहल’ से गीत-कविता की चेतना का व्यापक विस्तार तो हुआ ही, प्रतिभाशाली गीतकार-कवि भी उभरकर सामने आने लगे। इस हेतु उन्होंने दो कार्य और किये हैं—  ओएनजीसी के माध्यम से आर्थिक तंगी से जूझ रहीं साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं को आर्थिक सहयोग दिलवाना और आर्य बुक डिपो, दिल्ली के प्रकाशक को प्रेरित कर नवगीत-संग्रहों की श्रृंखला प्रकाशित करवाना। यह अपने आप में कम महत्त्वपूर्ण नहीं है, वह भी तब जब बहुत से लोग अपने आपको प्रचारित-प्रसारित करने में जुटे पड़े हों और दीगर रचनाकारों को उपेक्षा की दृष्टि से देखने के लिए मजबूर हों। कुल मिलाकर मिश्रजी का अवदान अविस्मरणीय है।

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