बुद्धिमान शिष्य

17-04-2012

गुरुकुल में शिष्यों की शिक्षा पूरी हो गई! गुरुजी ने अपने शिष्यों की परीक्षा लेने का विचार बनाया! गुरुजी बड़े अनुभवी थे! वे चाहते थे कि उनके शिष्य पूरी तरह योग्य बन कर ही घर जाएँ!

वैसे तो गुरुजी प्रत्येक शिष्य के विषय में सब जानते थे! फिर भी वे देखना चाहते थे कि शिक्षा पूरी कर के उनके शिष्य जीवन में क्या करेंगे? सच है कि केवल पुस्तकें पढ़ लेने से कोई आदमी बुद्धिमान नहीं बन जाता! लोगों के बीच जाकर बुद्धिमानी का व्यवहार करना ही ज़रूरी होता है! मूर्ख और बुद्धिमान की पहचान उनके व्यवहार से ही तो होती है!

गुरुजी ने अपने शिष्यों को बुलाया! सभी शिष्य आ गए! गुरुजी बोले- "प्रिय शिष्यों! तुम सब की शिक्षा पूरी हो गई है! अब तुम गुरुकुल से अपने-अपने घर जा सकते हो! मैं जानना चाहता हूँ कि किताबी ज्ञान के साथ-साथ तुमने सांसारिक ज्ञान कितना पाया है? आज मैं तुम सब की परीक्षा लूँगा!"

गुरुजी की बात सुन कर शिष्य प्रसन्न हुए! एक शिष्य ने हाथ जोड़ कर पूछा- "हे गुरुदेव! अब कौन सी परीक्षा ऐसी बची है जो आप लेना चाहते हैं?"
गुरुजी बोले- "शिष्य वही सफल माना जाता है, जो समाज में रह कर ठीक समय पर अपनी बुद्धि के प्रयोग से काम निकाल सके! मैं आज तुम्हारी बुद्धि की परीक्षा लूँगा! बोलो, तुम तैयार हो?"

शिष्य एक साथ बोल पड़े- "जी, गुरुदेव! हम सब परीक्षा देने को तैयार हैं! आप जैसी परीक्षा चाहें, हम खुशी से देंगे!" यह सुन कर गुरुजी उठकर अपने कमरे में चले गए! वहाँ से हाथ में एक खाली लोटा लेकर वापस आए! अपने आसन पर बैठ कर गुरुजी शिष्यों से बोले- "यह लोटा साफ़ और खाली है! तुम्हे बारी-बारी से इस खाली लोटे को बाज़ार में लेकर जाना है!"

शिष्यों ने आश्चर्य से पूछा- "खाली लोटा लेकर बाज़ार में जाना है,गुरुदेव?"

गुरुजी बोले- "जल्दी मत करो! पहले मेरी पूरी बात सुनो! धैर्य से बड़ों की बात सुनना एक उत्तम गुण होता है!" गुरुजी की बात सुनकर शिष्य शांत हो गए! सब गुरुजी की ओर टकटकी लगाए उनकी बात सुनाने को आतुर हो रहे थे!
गुरुजी ने शिष्यों को बताना शुरू किया- "प्रिय शिष्यों! तुम्हे बारी-बारी से यह खाली लोटा लेकर बाज़ार में जाना है! बाज़ार से इस लोटे के भीतर शुद्ध घी का लेप करा के लौटना है! यह ध्यान रहे कि एक शिष्य केवल एक ही दुकान पर जाकर लोटे के भीतर घी लगवा सकता है! कोई भी शिष्य दुकानदार को घी का दाम नहीं देगा, यह इस परीक्षा की शर्त है!"

गुरुजी की बात सुन कर शिष्य आपस में ओलने लगे- "खाली लोटे में शुद्ध घी लगवा कर लाना कौन सा कठिन काम है? गुरुजी ने यह कैसी आसान परीक्षा लेने की सोची है?"

एक शिष्य उठा! गुरुजी से लोटा लेकर नगर के बाज़ार में पहुँच गया! घी वाले की दुकान पर पहुँच कर बोला- "महोदय! क्या आप मेरे इस लोटे के भीतर घी का लेप कर देंगे?"

दुकानदार ने शिष्य को घूरते हुए पूछा- "शुद्ध घी का लेप कराने के लिए दाम लाए हो? दाम निकालो तो लोटे के भीतर घी का लेप मैं अभी कर दूँगा! बिना दाम के भला घी का लेप कौन करेगा?"

"दाम तो नहीं हैं मेरे पास!"- शिष्य ने दुकानदार से कहा!
दुकानदार झुंझलाया- "तब तो यहाँ से भाग जाओ अपना लोटा लेकर!"

वह शिष्य निराश होकर खाली लोटा लिए गुरुकुल लौट आया! बारी-बारी से शिष्य बाज़ार जाते रहे! इन दाम लिए किसी भी दुकानदार ने खाली लोटे के भीतर शुद्ध घी का लेप नहीं करके दिया! शिष्यगण निराश होकर गुरुकुल लौटते रहे!

अंत में एक ही शिष्य बचा! उसे देख कर गुरुजी बोले- "प्रिय शिष्य! तुम्हारे साथी एक-एक कर बाज़ार गए और खाली लोटा लेकर वापस आ गए! अब तुम ही भला क्या कर पाओगे?"

वह शिष्य बुद्धिमान था! हाथ जोड़ कर बोला- "गुरुदेव! आपने ही तो सिखाया है कि सदा धैर्य से काम करना चाहिए! दूसरों की निराशा और असफलता देख कर कभी भी हार नहीं माननी चाहिए!"

गुरुजी गदगद हो कर बोले- "बिल्कुल सच कहा तुमने, वत्स! दूसरों की असफलता देख कर हिम्मत हार बैठना तो कायरता होती है! अब तुम बाज़ार जाकर इस खाली लोटे में घी का लेप करा के लाओ!"

शिष्य बोला- "जैसी आज्ञा गुरुदेव! मैं इस खाली लोटे के भीतर शुद्ध घी का लेप करा कर ही गुरुकुल में प्रवेश करूंगा!"

शिष्य ने खाली लोटा लिया और बाज़ार की ओर चल दिया!

शिष्य खाली लोटा लेकर बाज़ार की एक बड़ी प्रसिद्द दुकान पर पहुँचा! उसने दुकानदार से अधिकार पूर्ण स्वर में पूछा- "श्रीमान! क्या आपकी दुकान पर शुद्ध घी बेचा जाता है?"

दुकानदार ने शिष्य को अच्छा ग्राहक समझ कर कहा- "हाँ, हाँ, ब्रह्मचारी! हमारी दुकान पर बिल्कुल शुद्ध घी ही बेचा जाता है! हम बेइमानी नहीं करते! ग्राहक को संतुष्ट करना ही हमारा धर्म है! हमारे घी की शुद्धता तो दूर-दूर तक प्रसिद्ध है!"

शिष्य बुद्धिमान था ही! दुकानदार से बोला- "हो सकता है श्रीमान! आप कहते हैं तो आपका घी शुद्ध ही होगा, परन्तु .....!" शिष्य ने अपनी बात बीच में ही रोक दी!

दुकानदार तपाक से बोला- "विश्वास करो, ब्रह्मचारी! हमारी दुकान का घी पूरी तरह शुद्ध ही होता है! हम कभी कोई भी मिलावट घी में नहीं करते! तुम चाहो, तो परीक्षा कर लो!"

बुद्धिमान शिष्य मधुर वाणी में बोला- "नहीं, नहीं,श्रीमान! आपकी बात पर मुझे तो पूरा भरोसा हो गया है! मैं तो तुंरत घी खरीदने को तैयार हूँ, लेकिन मेरे गुरुजी को भी तो विश्वास होना जरूरी है न?"

दुकानदार प्रसन्न होकर बोला- "हमारा घी पूरी तरह से शुद्ध है! तुम्हारे गुरुजी चाहें तो हमारे घी की परीक्षा कर लें! डरेगा तो वही, जिसके मन में चोर होगा! हम भला क्यों डरेंगे?"

शिष्य ने विश्वास पूर्वक कहा- "आप बिल्कुल सच कहते हैं, श्रीमान! सांच को कभी आंच नहीं होती! मुझे आपकी बात बात पर पूरा भरोसा हो गया है! मैं अपने गुरुकुल के लिए शुद्ध घी अब आपकी ही दुकान से खरीदूँगा! बस, एक छोटी सी प्रार्थना आप को मेरी माननी होगी!"

बहुत प्रसन्न होकर दुकानदार बोला- "कहो, ब्रह्मचारी! तुम्हारी छोटी सी प्रार्थना क्या है? तुम्हारी वाणी तो बहुत मधुर है!"

बुद्धिमान शिष्य उत्साह में भर कर बोला- "श्रीमानजी!आप सचमुच बड़े दयालु हैं! आपका घी निश्चय ही शुद्ध होगा! आप बस इतना कर देना की इस छोटे से लोटे में घी भर कर तुलवा देना! मैं अभी गुरुकुल जाकर गुरुजी को घी दिखा देता हूँ! गुरुजी को पसंद आएगा तो पूरा दाम देकर घी खरीद लूँगा! पसंद नहीं आएगा, तो आप ज्यो-का-त्यों अपना सारा घी वापस ले लीजिएगा! यही मेरी आपसे छोटी सी प्रार्थना है!"

शिष्य की बात सुन कर दूकानदार ने खुशी-खुशी खाली लोटे में घी भर कर तोल दिया! फिर घी का दाम बता कर शिष्य से बोला- "लो, ब्रह्मचारी! मैंने लोटे में शुद्ध घी भर दिया है! तुम गुरुकुल जाकर अपने गुरुजी को दिखा दो! गुरुजी को हमारा घी पसंद आ जाए, तो दाम दे जन! पसंद नहीं आएगा,तो मैं अपना घी वापस ले लूँगा!"

शिष्य ने घी से भरा लोटा लिया और धन्यवाद दे कर चल दिया! थोडी दूर जाकर वह पेड़ की छाया में बैठ गया! कुछ देर वहीं आराम करके बुद्धिमान शिष्य उठा! दूकान पर पहुँच कर विनम्रता से बोला- "क्षमा करें, श्रीमानजी! जाने क्या हुआ की गुरुजी को आपका घी पसंद ही नहीं आया! मैंने तो बहुत कहा की आप सबसे ज्यादा ईमानदार हैं! क्या करूँ, गुरुजी माने ही नहीं! आप कृपा करके अपना घी इस लोटे में से निकाल कर मेरा लोटा मुझे वापस कर दीजिए! मैं आपको हुए कष्ट की क्षमा चाहता हूँ!"

दुकानदार ने कहा- "कोई बात नहीं, ब्रह्मचारी! मैं अभी तुम्हारा लोटा खाली करके वापस कर देता हूँ!" दुकानदार ने लोटे का घी निकाल तो लिया, लेकिन लोटे के भीतर घी लगा ही रह गया! लोटा पूरी तरह चिकना हो गया था! शुद्ध घी की सुगंध लोटे से आ रही थी!

बुद्धिमान शिष्य खुशी-खुशी गुरुकुल लौटा! उसने शुद्ध घी से लिपा हुआ लोटा सभी शिष्यों के सामने गुरुजी को दिया! गुरुजी प्रसन्न होकर बोले- "प्रिय वत्स! तुम सचमुच ही मेरे बुद्धिमान शिष्य हो! बुद्धि की परिक्षा में तुम सफल रहे हो! जैसे इस खाली लोटे में घी की सुगंध पूरे गुरुकुल को महका रही है, वैसे ही तुम अपनी बुद्धि की सुगंध से संसार को महकाते रहना!"

बुद्धिमान शिष्य सफल हो कर अपने घर लौट आया!

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