बोझिल

सुमित दहिया (अंक: 158, जून द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)

वक़्त के इस पहर का अवशेष 
इतना बोझिल है कि वह अगले पहर का
हल्का सा छींटा भी बर्दाश्त नहीं कर सकता
मेरी रूह के प्रत्येक ठिकाने को 
किसी संजीवनी की तलाश है
लेकिन ज़ेहन का कोई भी आयोजन
इसे पकड़ने में समर्थ नहीं


कौन चाहता है गहरी वेदनाओं पर 
अपने सर्वाधिकार सुरक्षित रखना
प्रेम प्रयासों का विषय ही नहीं
ये तो एक आकस्मिक घटना है
क़ायनात की –
शुद्धतम आकस्मिक घटना


एक सम्पूर्ण सत्य के रूप में परिभाषित 
मगर विरोधाभास ओढ़े, क्योंकि
सम्पूर्ण सत्य कभी बेअसर नहीं होता 
लेकिन यह ज़्यादातर बोला नहीं जा सकता।

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