बिना टिकट

25-01-2016

बिना टिकट

बृजमोहन गौड़

"टिकट बोलना भाई साहब! बगैर टिकट.... आपका टिकट हो गया भाई साहब?"

.... कहते हुए कण्डक्टर उसके समीप आकर रुक गया।

"नहीं" .... उसने छोटा सा जवाब दिया।

"कहाँ जाना है भाई साहब?" कण्डक्टर ने उसी लहज़े में कहा।

"अबे जहाँ जाना है वहाँ उतर जाएँगे क्यों बेकार में मगज-पच्ची कर रहा है ....और रहा टिकट का सवाल तो अपने राम ने आज तक नहीं लिया," उसने बड़ी बेरूखी से कहा। "सरकारी सम्पत्ति आपकी अपनी ही तो है।"

"मेरी नौकरी का सवाल है भाई साहब...," कण्डक्टर लगभग गिड़गिड़ाते हुए कहा।

"अबे दूर हट!" उसने कण्डक्टर को झिड़कते हुए कहा.... और साथ ही दो चार भद्दी गालियाँ सुना दीं। सीटी बजी। गाड़ी रुकी। कण्डक्टर ने टिकट की माँग का जवाब नहीं में मिला। वह अकेला था। सभी यात्रियों ने उस पर ज़ोर डाला कि वह उनका समय बर्बाद न करे और टिकट ले ले। एक बारगी तो उस पर असर नहीं हुआ। लेकिन दूसरे ही क्षण उसने कुछ सोचकर अगले स्टेशन के पैसे कण्डक्टर को थमाते हुए बोला, "ठीक है! कल देखा जाएगा। अब नहीं आओगे क्या इधर।"

कण्डक्टर किसी अनिष्ट की आशंका से काँप उठा।

सीटी की आवाज़ के साथ गाड़ी आगे बढ़ी, लेकिन कण्डक्टर का मन कहीं पीछे की ओर भाग रहा था। कल भी तो इसी तरफ़ आना है उसे। उसने टिकट के पैसे लेकर ग़लती की है। लेकिन उसे रह-रहकर ये विचार चौंका जाता कि कहीं बीच में "फ्लाइंग स्क्वाड" आ जाए तो! उसके विचारों की कड़ियाँ जुडती चली गईं। क्या ज़िन्दगी है हमारी भी। एक तरफ़ कुआँ है तो दूसरी तरफ़ खाई। तभी गाड़ी के ब्रेक के साथ ही उसके विचारों को भी ब्रेक लगा। पता चला सामने "फ्लाइंग स्क्वाड" यमदूत के समान खड़ी है। उसने आवश्यक कार्यवाही पूरी की व मन ही मन ईश्वर को धन्यवाद दिया।

दूसरे दिन बस स्टैण्ड पर कोहराम मचा हुआ था। लोग उसी कण्डक्टर को अस्पताल भिजवा रहे थे। बस के सभी शीशे चटके हुए थे। जो अभी-अभी हुये पथराव की कहानी कह रहे थे। पता चला उसने और उसके साथियों ने कण्डक्टर की यह हालत बना दी थी। वह और उसके साथी फ़रार थे। पुलिस बड़ी सरगर्मी से उनकी तलाश कर रही थी। और वह दिन भी आया जब "बकरे की अम्मा" वाली कहावत चरितार्थ हुई। वह अपने ही शहर के बाज़ार से गुज़र रहा था। हाथों में हथकड़ी पहने हुए वह नज़रें झुकाए अपनी धुन में चला जा रहा था। एकाएक वह चौंका देखा सामने भटनागर अंकल चले आ रहे हैं लेकिन उनकी आँखों में वह पहले वाला स्नेह नज़र नहीं आया। उन्होंने भी उसे एक सरसरी निगाह से देखा और आगे बढ़ गये।

"क्या इतना बेकार हो गया है वह?" …उसने अपने आप से प्रश्न किया। वह पश्चाताप की आग में जल रहा था। लेकिन अब पछताए होत क्या? उसकी आँखों के सामने अपने अतीत के दृश्य तैर गये। कितनी उम्मीदें थी पिताजी को उससे क्योंकि हर वर्ष ही तो प्रथम आ रहा था वह। खेल के मैदान में भी उसका अपना रुतबा था। पश्चाताप के आँसुओं के साथ स्मृतियों आगे बढ़ी तो उसे जज साहब के वह शब्द याद आए जो उन्होने उसे विभिन्न पुरस्कार देते हुए कहे थे।

"बेटा तुममें इतनी सारी प्रतिभाएँ देखकर मुझे बड़ी ख़ुशी हुई। भगवान तुम्हारा भविष्य सुखमय बनाए।" ....।और अब वही उसके भविष्य का फ़ैसला करेंगे। यही सोच-सोचकर वह ग्लानि से गड़ा जा रहा था। सभी मित्र, परिचित उसे देखते ही मुँह मोड़ने की कोशिश करते वह चला जा रहा था। उसे याद आया कि उसके द्वारा प्राप्त सभी उपलब्धियों को इस एक ही घटना ने तहस-नहस कर दिया।

अब वह अपने ही मुहल्ले से गुज़र रहा था। उसका भी तो एक सपना था कि नौकरी के बाद उसका एक ख़ूबसूरत बँगला होगा, एक अदद बीबी होगी, प्यारे-प्यारे बच्चे होंगे वे ख़ुशी से चिल्लाएँगे… "पापा पापा अंकल को पुलिस ने क्यों पकड़ रखा है?" .... उसके विचारों को झटका लगा। देखा पड़ोसी का बच्चा उसके पापा से उसके पकड़े जाने का कारण पूछ रहा था।

बातें असहनीय हुई तो उसने जल्दी-जल्दी कदम आगे बढ़ा दिये। अपने घर पर सभी परिवारजन खड़े दिखाई दिये। सभी मौन, उदास शायद अपने बेटे की इस नई उपलब्धि को देख रहे थे। सभी के चेहरे तर थे। उसकी आँखों में आँसुओं का सैलाब उमड़ आया। उसके मन में यह विचार कौंधा कि जिस तरह मेरे पीछे अपना परिवार है उसी तरह उस कण्डक्टर के पीछे भी तो उसके अपने वीराने होंगे।

उसके विचारों को भंग किया जेल के बड़े दरवाज़े की खड़खड़ाहट ने अब वह जेल के अन्दर था और उसके सामने थी मोटी-मोटी रोटियाँ। इतनी मोटी रोटियों को उसने आज तक छुआ भी न था। लेकिन आज ....। उसने एक कौर तोड़कर मुँह में रखा लेकिन खाने की इच्छा न हुई। बस सूनी निगाहों से उन रोटियों को देखता रहा।

उधर उस परिचालक को देखने के लिये लोगों का तांता लगा हुआ था। हर एक उसकी गंभीर हालत को देखकर आज की स्थिति पर अपने विचार प्रकट करता और महाविद्यालयीन शिक्षा पद्धति को कोसता। उस परिचालक की पत्नी की सूजी हुई आँखों को देखकर लगता था कि गत दिनों से उसकी आँखों से आँसू ख़त्म ही नहीं हुए हों। अब भी उसकी आँखों का उमड़ता पानी लगता आने वाले लोगों से न्याय की दुहाई चाह रहा हो। डाक्टरों की कड़ी मेहनत रंग लाई व उसको बचा लिया गया।

इधर वह जेल में बैठा अपने अतीत को कुरेद रहा था। पुरानी यादें एक-एक करके याद आ रही थीं। घरवालों को सारी आशा उसी से तो थी। अपने परिवार में वही तो सबसे ज़्यादा पढ़ा लिखा था फिर कॉलेजी शिक्षा का भार वहन करना उसके मध्यमवर्गीय परिवार के लिये कितनी कठिन बात थी। आज उसे अपने ग्रुप के लोग याद आ रहे थे। आज जेल में तीन दिन हो जाने पर भी कोई मिलने नहीं आया।

उसे चिढ़ हो गई महाविद्यालयीन चुनाव प्रक्रिया से। वह सोच रहा था कि वह इस समय यदि कॉलेज में होता तो अभी इसी समय चुनावी प्रक्रिया को समाप्त करने की चेष्टा करता। लेकिन अब उसकी स्थिति पिंजरे में बंद पंछी के समान थी जो चाहकर भी खुली हवा में साँस नहीं ले पाता है। वह क्षण भी वह आज तक नहीं भुला पाया जब उसकी माँ ने उसे अपनी शादी के सोने के कंगन फ़ीस के लिये देते हुए कहा था, "बस बेटा! इस बार फ़ायनल कर ले फिर कहीं न कहीं नौकरी की तलाश करना। आजकल तू अपनी स्थिति को तो जानता ही है।" .... उसने सोचा था कि उसे जल्द ही नौकरी तलाश कर लेनी चाहिये। और .... आज उन सभी क़ुर्बानियों पर पानी फिर गया था। उसका मन आत्मग्लानि से भर उठा।

और अब वह जज साहब के सामने खड़ा था। उसे दो वर्ष के कारावास की सज़ा सुना दी गई। वक़्त बीता और जब वह सज़ा समाप्त कर बाहर आया तो सब कुछ बदला-बदला सा नज़र आया। उसे लगा कि दुनिया दो वर्ष में कहाँ की कहाँ पहुँच गई है। उसे अपने परिवार की याद सताने लगी तो वह एक बस में सवार हुआ।

"बगैर टिकट-बैगर टिकट" ....कहता हुआ कण्डक्टर उसके समीप आकर रुक गया।

"टिकट बोलना भाई साहब" ....सुनकर उसने चेहरा ऊपर किया तो बुरी तरह चौंक गया। दोनों की नज़रें मिलीं और कुछ देर तक दोनों एकटक एक दूसरे की ओर देखते रहे।

"हाँ …वही तो कण्डक्टर है यह," .... उसे याद आया। उसका हाथ अनायास ही जेब की ओर चला गया और उसने टिकट के पैसे कण्डक्टर को थमा दिये। कण्डक्टर कभी उसकी ओर देखता कभी टिकट के पैसों की ओर इसी पशोपेश में न जाने कब उसके मुँह से सीटी बजी और गाड़ी अपने गन्तव्य की और बढ़ दी।

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