अंतिम इच्छा

15-06-2020

अंतिम इच्छा

सुमित दहिया (अंक: 158, जून द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)

तुम्हारे प्रेम से ऊपज कर 
मैं अनेक रिश्तों की खरपतवार नहीं बनना चाहता
इसलिए उग रहा हूँ
भविष्य की ओर
मेरे हृदय के पायदानों में अटकी धूल का
प्रत्येक कण गवाह है, तुम्हारे आने-जाने का
और इन स्मृतियों में जब-जब विवेक आता है
मैं अचानक चौंक पड़ता हूँ
जैसे मद्धम रोशनी के एकदम तेज़ होते ही
ताज़ा शिशु की अधमुँदी आँखें चौंक पड़ें
पिघलती साँसों के पर्दों के पीछे सदा मौजूद है
यौवन का घना जंगल
हाँ तहक़ीक़ात इस बात की होती है
कि आज का तथाकथित प्रेम है तो
उसमें मौजूद प्राणी कितने हैं


अपने बचपन के दिनों में 
जब बाल्टी के साथ मैं कुएँ में गिरता था
तब पानी के अक्स में तैरती कई तस्वीरें देखता था
और महसूस करता था
बहुत सारे शीर्ष प्रेम जागरण
जिन हाथों ने इस जलीय स्पर्श की  
बादशाहत को उठाया था
वे अपने जीवन के उस पड़ाव में पहुँच चुके हैं
जहाँ पैदा होने वाला हरेक भाव 
क़ाफ़िले को केवल एक दिशा की तरफ़ धक्का देता है
वास्तविक घोषणा के उसूल 
अगर गुनाह नहीं हुए हैं
तो सत्य आज भी आईना बना रहेगा
और उसके अंदर तैरती परछाईयों के कई आयोजन
अब भी जानते होंगे
कि यह प्रेम रूपी झरना आख़िर फूटता कहाँ से है
यह ओस की बूँदों का प्रथम सौभाग्य छूटता कहाँ से है


मेरे अंदर उमड़ते भावनाओं के कई इंक़लाब
जब यह पूछने आते हैं
कि तुम कविता लिखते क्यूँ हो
तो उनसे हर बार यही सवाल करता हूँ
कभी ये भी तो पूछो
मैं कविता पढ़ता क्यूँ हूँ
सुनो, अभी इकट्ठा मत करना अहाते के बाहर टपके
उस अज्ञात पसीने को
क्योंकि एक अरसे बाद वहाँ ज़रूर कोई आएगा 
उन विचलित उदास बूँदों में पड़ी
तुम्हारी अंतिम इच्छा सूँघने।

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