ज़िंदगी
गौरव भारतीज़िंदगी
तेरी तरफ़ मुड़ता हूँ
पलटता हूँ
और फिर से देखता हूँ
जो सवाल तूने
दे मारे थे सन्नाटे में
जवाब उसका लिए
मैं लौटता हूँ
जवाब यह है कि
कोई जवाब नहीं है
भटका बहुत
कुछ हाथ न लगा
थका हारा
तेरी तरफ़ मुड़ना पड़ा
ज़िन्दगी नाराज़ मत होना
जवाब के बदले सवाल ही लाया हूँ
मैं नहीं रहा है मुझमें
बहुत ग़रीब ख़ुद को पाया हूँ
मैं साधने चला था तुझे
ख़ुद को साधा अब तक नहीं
दिग्भ्रमित रहा अब तक
पड़ाव की अहमियत समझा नहीं
ज़िंदगी मेरे सवालों का जवाब
दिन के उजाले में देना तुम
अँधेरा और सन्नाटा
भयभीत करता है मुझे
मैंने देखे है सफ़ेदपोश चेहरे
अँधेरे में स्याह पड़ जाते हैं
चीखें रह जाती हैं गुम
चारदीवारी के भीतर
बाहर पहरेदार खड़े होते हैं
मैंने देखा है
गँवार को
शिकार होते हुए
बौद्धिकता का
उसके अंतर्द्वंद्व में उलझा हूँ
अपराधबोध की पीड़ा से
कई दफ़ा मैं भी गुज़रा हूँ
मैंने झाँका है
बुझती आँखों में
वह आह टीस पैदा करती है
जो धस जाती है
कहीं मेरे भीतर
हमउम्र को
ख़ूब कोसता हूँ
ज़िंदगी
जवाब ढूँढ़ने निकला था
तेरे सवालों के
सवाल ही लेकर आया हूँ
ऊब कर अपने आप से
तेरी शरण में लौट आया हूँ।