यायावर स्त्री के जादुई शब्द चित्र: क्षितिज पर ठिठकी साँझ

15-01-2022

यायावर स्त्री के जादुई शब्द चित्र: क्षितिज पर ठिठकी साँझ

डॉ. चंद्रकान्ता किनरा (अंक: 197, जनवरी द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

चर्चित पुस्तक: क्षितिज पर ठिठकी साँझ (यात्रा संस्मरण)
लेखक: डॉ. रेखा उप्रेती
प्रकाशक: प्रिकल्पना प्रकाशन, बी-7, सरस्वती काम्प्लेक्स, तृतीय तल, सुभाष चौक
लक्ष्मीनगर, दिल्ली-110092
ई-मेल: prikalpana.delhi2016@gmail.com
ISBN: 978-81-948440-3-7
 

उत्तराखंड के छोटे से पहाड़ी गाँव में अपने छोटे-छोटे क़दमों से स्कूल की राह नापती एक बच्ची विस्मित होती है—यह सोच कर कि दुनिया कितनी बड़ी है! बड़े होने पर निर्मल वर्मा की यात्रा संस्मरण ‘चीड़ों पर चाँदनी’ के शब्द चित्रों में ख़ुद तो डूबती है, छात्राओं को पढ़ाते हुए उन्हें भी मंत्रमुग्ध कर देती है। आख़िर शक्करख़ोरे को कभी न कभी शक्कर मिल ही जाती है, पृथ्वी के दूसरे छोर पर स्थित लिस्बन में आयोजित विश्व हिंदी सम्मेलन में भाग लेने के बहाने यूरोप के कुछ नगरों में यायावरी का अपूर्व सुख संवेदनशील लेखिका को मिलता है तो घुमक्कड़ी के सपने सच होते दिखाई देने लगते हैं। अनुभव में बदलती सपनों की बहुरंगी छवियाँ मित्रों और प्रियजनों तक पहुँच जाएँ, इस आकांक्षा की परिणति है डॉ. रेखा उप्रेती की यात्रा संस्मरणों की पुस्तक ’क्षितिज पर ठिठकी साँझ’। 

पुस्तक के पहले खंड में लक्ष्य कॉन्फ़्रेंस में अकादमिक पत्र पढ़ना है, दूसरे खंड का ताना-बाना स्वीडन में बसी दोस्त सरीखी बहन की बेटी के परिवार के आसपास बुना गया है, लेकिन सच पूछा जाए तो पुस्तक में आद्यन्त घुमक्कड़ी का रस बिखरा हुआ है; इसीलिये वह कॉन्फ़्रेंस के लिए लिस्बन पहुँचने से पहले अपनी अभिन्न और हमनाम मित्र रेखा सेठी के साथ ऑस्ट्रिया की राजधानी वियना के चौक-चौराहों पर बिखरे कलात्मक सौन्दर्य को जी भर के निहारने का समय चुरा लेती है, काफ़्का और निर्मल वर्मा की याद दिलाते प्राग में ’ओल्ड टाउन’ की खगोलीय घड़ी हो या शहर के दूसरे छोर पर चार्ल्स ब्रिज, मालास्त्राना और बल्तोवा के मनमोहक दृश्य सबको अपने मन में बसा लेने का अवसर निकाल लेती है। निर्द्वंद्व होकर यायावरी का आनंद उठाती हुई लेखिका इस प्रसंग में स्त्रियों की अनिवार्य नियति—चूल्हे चौके की चिंता—पर तंज़ कसती है: “सुबह से लेकर रात तक रसोई की चिंता में खटने और खपने की आदत वाली भारतीय नारियों के लिए ‘खाने में क्या है?’ इस सवाल से मुक्ति में भी परम आनंद है।”

दिल्ली विश्वविद्यालय के इंद्रप्रस्थ कॉलेज में हिंदी पढ़ा रही लेखिका को इस विश्व हिंदी सम्मेलन में अपनी भाषा को नये सिरे से समझने, ख़ासकर विदेशों में हिंदी शिक्षण से जुड़ी नयी जानकारियों से समृद्ध होने का अवसर तो मिला ही है लेकिन ज़मीनी सच्चाई यह है कि देश-विदेश में बसे हिंदी के विशेषज्ञ साथियों से मित्रता और उनके साथ मिलकर यूरोपीय शहरों में घुमक्कड़ी लेखिका का बहुत बड़ा हासिल है। इसी मित्रता के चलते वह अकादमिक गोष्ठियों में शिरकत करने के साथ-साथ समय निकालकर पुर्तगाल के विभिन्न नगरों की ख़ूबसूरती को आँखों में भर लेती है, औपचारिक अंतिम सत्र से बंक मार कर बैलेम पैलेस की खोज-ख़बर लेना उसे बेहतर लगता है, इस संग साथ में बतरस का सुख उठाती लेखिका के लिए भोजन आख़िरी कन्सर्न है, इसी के चलते पुर्तगीज़ रेस्तरां का महँगा लेकिन अजीबोग़रीब खाना भी गले से उतारना उसे मुश्किल नहीं लगता। 

घुमक्कड़ी के सुख से लबालब लिस्बन की अकादमिक यात्रा को अल्पविराम लगता है फ्रैंकफ़र्ट हवाई अड्डे पर। अजनबी शहर में अजनबियों से भरे एअरपोर्ट पर अकेले रात गुज़ारती लेखिका निःशंक भाव से एकान्त के आनंद (bliss of solitude) को जीती है। अगली सुबह शुरू होने वाली स्वीडन यात्रा के रोमांचक गियर में जाने से पहले भारत में अपने परिवार की खोज-ख़बर लेकर उसके घूमन्तू मन को सुकून मिलता है। 

स्वीडन के नैसर्गिक सौन्दर्य को अपनी आँखों के कैमरे से क़ैद करती हुई लेखिका ने यात्रा के दूसरे खंड में अनेक लुभावने दृश्यों को पाठक के सामने साकार किया है, जैसे क्षितिज पर देर तक ठिठके सूरज का सिंदूरी आभामंडल, बोटेनिकल गार्डन में मूसलाधार बारिश में भीगकर गर्म कॉफ़ी की चुस्कियों का अद्भुत स्वाद, ब्रैंगो आइलैंड का अछूता प्राकृतिक लावण्य। गाथनबर्ग से स्टाकहोम—चौदह द्वीपों का समूह—तक रेलयात्रा में लपक कर खिड़की वाली सीट हथियाना या होटल में पिट्ठू बैग पटक कर गैमलास्टेन की गलियों में उन्मुक्त हवा में साँस लेने की तीव्र इच्छा लेखिका की उत्कट जिज्ञासु वृत्ति और उछाह को रेखांकित करती है। गाइडेड टूअर के स्थान पर उन्मुक्त होकर स्टाकहोम के महलों और क़िलों में पसरी 15वीं 16वीं शती की स्थापत्य कला में खो जाना, अचानक मिले भारतीय और पाकिस्तानी दुकानदारों से दुआ-सलाम, कभी सड़क पर ’हरे कृष्णा हरे राम’ संकीर्तन करते, नाचते गौरांग भक्तों की मस्ती में डूबना उतराना लेखिका के साथ पाठक के अनुभव संसार को विस्तार देता है। 

बीस दिनों की यूरोप यात्रा के संस्मरणों को 15 अध्यायों और 120 पृष्ठों में समेटती इस पुस्तक के लघु कलेवर में वियना, प्राग, पोर्तो, लिस्बन, सिंत्रा, अटलांटिक सागर, गाथनबर्ग, स्टाकहोम के शब्दचित्रों की एक लड़ी है या यूँ कहें कि शब्द चित्र एक फ़िल्म की तरह मानस पटल पर उभरते हैं, रोमांचक यात्रा के प्रवाह को कहीं कहीं लेखिका के जीवनानुभवों से प्राप्त सूत्र ठहराव देते है, पल भर पाठक को सोचने के लिए विवश करते हुए। कुछ चुम्बकीय पंक्तियाँ इस प्रकार हैं:

एक व्यक्ति के भीतर कितनी तरह के व्यक्तित्व समाहित रहते हैं . . . परत दर परत . . . कई बार तो हम ख़ुद ही नहीं जान पाते कि कब कौन सा जिन्न हमारे चिराग़ से बाहर निकल आएगा . . . 

कुछ ही रिश्ते होते हैं जहाँ हिसाब-किताब नहीं रखना पड़ता, भूल-चूक लेनी-देनी की रसीद नहीं सम्हालनी होती . . . 

समय की गति उतनी नपी-तुली, सीधी-सपाट नहीं है शायद, जितनी हम समझते हैं। काल के बहुआयामी होने का अर्थ इन्हीं क्षणों के सघन अनुभवों में छिपा है ’समुद्र का बूँद में समा जाना’ . . . कबीर की उलटबांसियाँ इन्हीं संदर्भों में खुलने लगती हैं। सम्भव लगने लगता है—अगस्त्य द्वारा समुद्र का आचमन कर लेना . . . वामन का तीन पगों में तीन लोक समेट लेना . . . 

पुस्तक की गुणवत्ता को बढ़ाते हैं महत्त्वपूर्ण मोड़ों पर सज्जित यूरोपीय स्थापत्यकला के सजीव रेखांकन, जिनका श्रेय लेखिका के किशोर पुत्र अयन उप्रेती को है। 

अपने नीड़ की ओर लौटती हुई लेखिका मित्रों के साथ यायावरी का सुखद अवसर देने वाले परिवार के प्रति कृतज्ञ अनुभव करती है, इस प्रसंग में घुमक्कड़ शिरोमणि महापंडित राहुल सांकृत्यायन बरबस याद आते हैं जिन्होंने एक बार कहा था, ’यात्रा करना स्त्रियों के लिए भी अनिवार्य है, अपने स्वार्थ के लिए पुरुषों ने स्त्री पर बंधन लगाए हैं!’ 

यात्रा संस्मरणों के इतिहास पर दृष्टि डालें तो राहुल सांकृत्यायन, भगवत शरण उपाध्याय, रामवृक्ष बेनीपुरी, रांगेय राघव, अज्ञेय, अजितकुमार आदि की समृद्ध परम्परा में पुरुष लेखकों का ही वर्चस्व दिखाई देता है। स्वतंत्रचेता स्त्री की नयी अवधारणा की तरह महिला रचनाकारों के यात्रा संस्मरण अधिक नहीं मिलते। ’क्षितिज पर ठिठकी साँझ’ से गुज़रने के बाद लेखिका एक आधुनिक चेतना सम्पन्न महिला यायावर के रूप में सामने आती है जो गौतम बुद्ध या गुरु नानक की तरह गृहस्थी का त्याग कर कुछ अपूर्व अनुपम की खोज में नहीं निकल पड़ती, निश्चिंत होकर मित्रमंडली के साथ घुमक्कड़ी पर निकलने से पहले शेष परिवार की रोज़मर्रा ज़रूरतों का प्रबंधन करती है, यात्रा के दौरान मोबाइल की बदौलत परिवार से उसका संवाद बना रहता है। अनथक प्रयास से जुटाए सुखद यायावर पलों को लौटती बेर जादू की झप्पी देने के बहाने स्मृतियों में सहेज लेना अनजाने ही यात्रा संस्मरणों की एक बेहतरीन पुस्तक की नींव रख देता है। 

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