स्वत्व की पहचान-वाया-'उगाना होगा अपना-अपना सूरज'

01-04-2022

स्वत्व की पहचान-वाया-'उगाना होगा अपना-अपना सूरज'

डॉ. चंद्रकान्ता किनरा (अंक: 202, अप्रैल प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

समीक्षित पुस्तक: उगाना होगा अपना-अपना सूरज
लेखक: अरुणा गुप्ता
प्रकाशक: कनिष्क पब्लिशिंग हाउस, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली-110002
ई-मेल: kanishkabooks@gmail.com
मूल्य: `300.00
पृष्ठ संख्या: 140

बहुरंगी जीवन के उतार चढ़ाव में रचे-पचे अनुभवों को जब रचनाधर्मी स्त्री मन काव्य-मय शब्दों में पिरोता है तो 'उगाना होगा अपना-अपना सूरज' जैसे कविता संकलन का जन्म होता है। उच्च शिक्षा, अध्ययन, अध्यापन, रेडियो, साहित्यिक संगोष्ठियों, वैबिनारों में भागीदारी के साथ सक्रिय सामाजिक जीवन के ताने–बाने पर बुनी गयी अनुभूतियाँ यहाँ अरुणा गुप्ता के कविता कौशल से पाठक को रूबरू कराती हैं। इस अनुभव संसार में सबसे मुखर बिम्ब दृढ़संकल्प और सशक्त स्त्री का है। प्रगति की राह में हर क़दम पर परम्पराएँ चुनौती खड़ी करेंगी लेकिन साहस ख़ुद ही जुटाना होगा, कवयित्री के शब्दों में:

पसोपेश तो बहुत है
फ़ैसले भी कठिन हैं
×××××××××××
हिम्मत करनी है तुझे

'उगाना होगा अपना-अपना सूरज' का सृजन अपना दीपक स्वयं बनने का प्रयास है। गौतम बुद्ध ने भी तो यही कहा था, 'अप्प दीपो भव'। 
वैश्विक सूचनाओं से लैस आधुनिक स्त्री को आभास है कि पुरुष वर्चस्व से जकड़े समाज के पास स्त्री आकांक्षाओं के सिर उठाने से पहले उसके पंख काट देने के सौ बहाने हैं, लक्ष्मण रेखा और अग्नि परीक्षाओं की घेरेबंदी पर प्रश्न चिह्न लगाने वाली स्त्री की स्वतंत्र सोच इन शब्दों में व्यक्त हुई है:

कभी तो फन उठाएगा? 
मेरा मैं भी
××××××
जीने का मक़सद
तो चाहिए हमें भी

पिंजरा तोड़ने की कोशिश में घायल पक्षिणी मुक्ति की आस नहीं छोड़ती, उसे विश्वास है कि दीवारों में सेंध लगाई जा सकती है, बानगी के तौर पर देखें:

नहीं चाहिए मुझे संरक्षण किसी का
नहीं बेड़ियाँ कोई
मान औ पहचान है चाहत मेरी

 'स्व' की पहचान और अपने लिए 'स्पेस' की चाहत ‌आधुनिक होने का तकाज़ा है। 
 
365 दिन अपनी धुरी पर घूमती पृथ्वी की तरह परिवार की हर आड़ी तिरछी रेखा में संतुलन बनाए रखने की चुनौती से दो-चार होती है। सभी पक्षों को जोड़ने की चाहत में कभी-कभी उसे समझौतों से तसल्ली करनी पड़ती है। निकट आती जीवन संध्या में अकारण खो गए पलों का पश्चाताप तो है बची-खुची ज़िन्दगी में ख़ुशियाँ ढूँढ़ने का सन्तोष भी यहाँ देखा जा सकता है, जैसे:

मिथ्या था सब कितना
छीना था हमने ख़ुद ही सुकून अपना
काश समझ पाते

नकारात्मकता से ऊपर उठने पर वीतराग होने का भाव कितना स्वाभाविक है, देखिए:

न कोई आशा
न शेष इच्छा
न गिला न शिकवा
मस्त ज़िन्दगी
समझ आई
थोड़ी देर से। 

जीवन के आकस्मिक मोड़ और संघर्ष मन को उद्वेलित करते हैं, श्यामल यमुना में छिपे कालियनाग की तरह देह में अनजाने ही आ बैठे कैंसर की आहट चौंकाती और डराती है, लेकिन शाश्वत सत्य का सामना करने की प्रतिबद्धता देखिए:

हारी हूँ न हारूँगी
थकी ज़रूर हूँ कुछ कुछ
पर हिम्मत अभी बाक़ी है। 

जीवन और मृत्यु के बीच पेंडुलम से झूलते अपनों की पीड़ा भरी पुकार सुन कुछ न कर पाने का बोध धीरे-धीरे नियति के स्वीकार में बदल जाता है, शारीरिक रूप से बिछुड़े स्वजन किस तरह हमारे व्यक्तित्व और स्मृतियों का हिस्सा बन जाते हैं:

अभी भी रचे बसे हो तुम
भीतर बाहर सब ओर
कैसे कह दूँ, तुम थीं। 

बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में जन्मी हमारी पीढ़ी को अपने स्व का विस्तार समाज के साथ साझेदारी में मिला। मोबाइल फ़ोन, टेलीविज़न, रिमोट से चलने वाले घरेलू गैजेटों से रहित हमारा बचपन जाड़े की धूप सेकने के बहाने मिल बैठकर मूँगफली और संतरे का आनंद लेना, मिट्टी की गंध से महकते सावन में मेहँदी रचाकर झूले झूलने, महँगे उपकरणों के बिना रस्सी कूदने, कबड्डी, खो खो जैसे सहज सरल खेल खेलते हुए गुज़रा। इक्कीसवीं सदी के तीसरे दशक में मीडिया, मित्र मंडली, बाज़ार, बैंक सब कुछ स्मार्ट फ़ोन में सिमट गया है, साझेदारी के इस नये धरातल पर नयी पीढ़ी के साथ क़दम मिलाते हुए नवाचार को अपनाने का उत्साह इन पंक्तियों में देखा जा सकता है:

लौट नहीं सकते
पुराने ज़माने में तो क्या
आज की भागती ज़िन्दगी में
चलो मिल तो लें 
एक बार गले
चाहे फ़ेसबुक पर ही सही

लेखिका का तर्क शील मन परंपराओं को ज्यों का त्यों स्वीकार कैसे करे! स्त्री के भूखे रहने से उसके जीवन सहचर की आयु कैसे लम्बी हो सकती है, नयी पीढ़ी का यह सवाल उसे मथता है। मंदिर बनाने से ज़्यादा क्या यह ज़रूरी नहीं कि राम के चरित्र को जीवन में उतारा जाए, शबरी, केवट, सुग्रीव के प्रेमभाव को अपनाकर ऐसे समाज की रचना की जाए जहाँ अहिल्या को पत्थर न बनना पड़े और कूड़े के ढेर से खाना ढूँढ़ते साधनहीन बच्चों के लिए ऊँची मीनारों में बैठे लोग किसी मिशन की स्थापना करें। 

पिछले दो वर्षों से पूरे विश्व को आतंकित करने वाले विषाणु-करोना-से उपजी भयावह परिस्थिति से रचनाकार कैसे असम्पृक्त रह सकता है। इस दुष्चक्र में फँसकर व्यक्ति का अकेले पड़ना, अन्तिम क्षणों में दुर्गति, विशेष रूप से दूसरी लहर में मची त्राहि त्राहि से लेखिका की क़लम उद्वेलित हो उठती है, अन्तर्मन् से आवाज़ उठती है, भौतिकता की अंधी दौड़ में प्रकृति का अत्यधिक दोहन करने की लालसा पर हमें लगाम लगानी होगी। इससे पहले की सभ्यता का चक्का जाम हो, प्रदूषण से आच्छादित आसमान की नीली झलक से हम महरूम हो जाएँ, हमें लौटना होगा प्रकृति और जलस्रोतों का वंदन करने वाली अपनी संस्कृति की ओर। वर्तमान स्वास्थ्य संकट से उबरने के लिए हम हर सम्भव प्रयास करेंगे:

आस्थावान रहकर
बत्तियाँ बुझाकर
जला तो लेंगे 
दिए भी

पाठक का धर्म होता है रचनाकार की भावभूमि पर उतरकर उसे समझे। 'उगाना होगा अपना अपना सूरज' की कविताओं में अतरंगी जीवन के मकड़जाल को भेदकर अपनी राह बनाती हुई, लेखिका के शब्दों में कहा जाए तो स्वयं को तराशती हुई जीवन दृष्टि का पाठक से परिचय होता है। सिंदूरी आभा से दिपदिपाते आकर्षक कवर और और बीच-बीच में बिटिया पारुल द्वारा भावानुरूप बनाए गये चित्रों से सजी 140 पृष्ठों की यह पुस्तक अरुणा जी की काव्य यात्रा का महत्त्वपूर्ण पड़ाव है जो उनकी काव्य प्रतिभा की संभावनाओं के प्रति पाठक को आश्वस्त करता है। पाठक इस काव्य संग्रह को तीन सौ रुपए में कनिष्क पब्लिशिंग हाउस, अंसारी रोड दिल्ली से प्राप्त कर सकते हैं। 

डॉ. चंद्रकान्ता किनरा
असोसिएट प्रोफ़ेसर (रिटायर्ड) 
हिंदी विभाग, इंद्रप्रस्थ कॉलेज
दिल्ली विश्वविद्यालय

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