पुरुष वर्चस्व का प्रतिरोध: रुके रुके से कदम

01-12-2022

पुरुष वर्चस्व का प्रतिरोध: रुके रुके से कदम

डॉ. चंद्रकान्ता किनरा (अंक: 218, दिसंबर प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

समीक्षित पुस्तक: रुके रुके से कदम (उपन्यास)
लेखक: पूनम कासलीवाल
प्रकाशक: रुझान प्रकाशन (https://rujhaanpublications.com/)
मूल्य: ₹250/$15 (CDN)
पृष्ठ संख्या: 190

पुरुष प्रधान भारतीय समाज में स्त्री की कंडीशनिंग को चुनौती देती हुई रचना है पूनम कासलीवाल की उपन्यासिका—रुके रुके से कदम। परिवार और समाज में नीति निर्णय में स्त्री की भागीदारी के प्रश्न को प्रबुद्ध लेखिका ने मेधा और माधव के विवाह के इर्द गिर्द बुनते हुए एक तार्किक निष्कर्ष पर पहुँचाने का प्रयास किया है। 

विवाह स्त्री पुरुष दोनों के जीवन में मील के पत्थर सरीखा मोड़ है जिसमें सफल होने के लिए लड़की को आरंभ से ट्रेनिंग दी जाती है, कारण है मध्यवर्गीय परिवार की सोच जहाँ पुत्र जन्म की घोषणा मिठाई बाँटकर, कहीं-कहीं थाली बजाकर दी जाती है इसके विपरीत बेटी के जन्म पर मुँह लटका कर बैठे हुए परिवार को सांत्वना दी जाती है, चलो कोई बात नहीं घर में लक्ष्मी आयी है। 

अपनी ज़मीन से उखड़ कर पराए घर को अपना बनाने—वहाँ एडजस्ट करने की कुनीन को विवाह की ग्लैमरस मिठास में इस तरह लपेट कर लड़की के सामने इतनी बार पेश किया जाता है कि वह उसके जीवन का केंद्र बिंदु बन जाता है, उपन्यास का आरंभ ऐसे ही वाक्य से होता है। 

“मेधा को बचपन से ही शादी का शौक़ है . . . उसका ख़्याल है कि बस अपनी पढ़ाई लिखाई पूरी करो, शादी करो और ससुराल जाओ, सँजो सँवरो, घूमो-फिरो, जमकर शाॅपिंग करो . . . अपना घर संसार देखो और सबके साथ मिलजुल कर रहो”।

लड़की के हाथ पीले करके अपनी ज़िम्मेदारी से मुक्त होने की भारतीय माता-पिता की चाहत को पूरा करने के लिए दो-तीन दशक पहले ‘शादी डॉट कॉम’ या ‘भारत मैट्रीमॅनी’ का काम परिवार के मित्र, मामा, चाचा, मौसी किया करते थे। उपन्यास में मेधा के लिए मैच मेकिंग का माध्यम बनते हैं उसके मामा। अपने पड़ौस में रहने वाले तथाकथित विदेश से लौटे इंजीनियर और उसके परिवार को मेधा के परिवार से मिलवाते हैं। दो-तीन औपचारिक बैठकों के बाद जहाँ मेधा-माधव के संवाद की अथवा एक दूसरे को जानने की ज़्यादा गुंजाइश नहीं, माधव के सुदर्शन व्यक्तित्व पर मुग्ध मेधा माधव के साथ विवाह के बंधन में बँध जाती है। 

ससुराल में पहला क़दम स्वप्नों में खोयी मेधा को यथार्थ के खुरदुरे धरातल पर पहुँचा देता है। साथ सज्जा रहित छोटा सा घर जहाँ स्वागत के लिए कोई पड़ौसी या रिश्तेदार नहीं, तिस पर अलमारियों से भरे जिस कमरे में उसे बिठाया जाता है वहाँ मात्र एक बंद खिड़की है जो लगता है कभी खुली ही नहीं। 

घर की रसोई में छोटे-छोटे डिब्बों, बोतलों में रखा सामान, बाथरूम में गीज़र की जगह पानी भरकर रखी गयी बाल्टी में इमर्सन राॅड से पानी गर्म करना उसे हतोत्साहित करता है। ऐसे में, माँ की दी हुई सीख उसका संबल बनती है 
“हर घर अलग होता है . . . लड़कियों में ही होता है असीम धीरज और दो घरों को जोड़ कर रखने की ताक़त, वह चाहे तो घर को स्वर्ग बना दे या नरक“और मेधा नये घर को अपना बनाने का बीड़ा उठा लेती है। 

पुरुष के दंभ का पहला कटु अनुभव मेधा को तब होता है जब माधव उस पर हाथ उठाता है। संक्षिप्त हनीमून की रस्म अदायगी के बाद घर में माधव के साथ खाने के लिए बैठते ही ज़ोरदार तमाचा उसके गाल पर पड़ता है, कारण—माधव के सामने रखे हुए मांसाहारी भोजन को हैरानी से देखना। इस पर सास का मेधा से कहना तू माफ़ी माँग ले, कह दे कि मैंने घूर कर नहीं देखा साथ ही धीरे से उसके कान में फुसफुसाना, ‘इसके दादाजी भी ऐसे थे, खाने में ज़रा सी देरी हो जाए तो थाली उठाकर फेंक देते थे।’ पीढ़ियों से चली आ रही परिवार में पुरुष सत्ता की ओर संकेत है। हनीमून पर एक अन्य नवविवाहिता द्वारा की गयी चुहल पर माधव का चिढ़ जाना, अपनी पत्नी का ध्यान रखने वाले मेधा के भाई को जोरू का ग़ुलाम कहना माधव के संकीर्ण विचारों की पुष्टि करते हैं। 

पत्नी पर अंकुश रखने के लिए माधव बैंक में उसके साथ जौंइट अकाउंट खुलवाता है, लेकिन मेधा को इस अकाउंट से पैसे निकालने का अधिकार नहीं है रोज़मर्रा ख़र्च के लिए उसे सास से पैसे लेने पड़ते हैं, घर में फोन लग जाने पर मेधा पर नज़र रखी जाती है कि वह ज़्यादा फोन न करे। मेधा के संयम का बाँध टूटने लगता है जब उसके गर्भवती होने का समाचार सुनकर माधव हफ़्ते भर उससे बात ही नहीं करता, उल्टे मेधा के मायके से आए फल, मेवे देखकर चिढ़ता है। 

सुयोग्य, नौकरीपेशा पत्नी को अपने से कमतर आंकने की माधव की धृष्टता और शाब्दिक हिंसा का एक और उदाहरण है:

पीने के लिए बीयर निकालते हुए मेधा की ओर मुख़ातिब होकर कहना, “अरे पीता हूँ तो तेरी शक्ल देख पाता हूँ, तू काली और छोटी, मुझे चाहिए थी लम्बी और गोरी लड़की।” 

माधव के दक़ियानूसी दृष्टिकोण की चरम सीमा है बेटी का जन्म होने पर मेधा और बच्ची को देखने के लिए हाॅस्पिटल नहीं जाना और बच्ची को लेकर मेधा के घर पहुँचने पर चिल्ला कर कहना, “लड़की लेकर क्यों आई मेरे सिर पर बोझा रखने, अपने बाप के घर क्यों नहीं गयी।” इतना ही नहीं, बेटी से छुटकारा पाने के लिए अविलंब उसे विदेश में रहने वाली निस्संतान बहन को गोद दे देने का प्रस्ताव रख देता है। बच्ची को पिता के कोप से बचाने और उसके उज्जवल भविष्य की उम्मीद में मेधा मजबूरन बेटी को अपनी ननद को सौंप देती है। 

माधव की पुरुषवादी ऐंठ का खोखलापन अचानक मेधा के सामने आता है जब पासपोर्ट बनवाने के लिए फ़ॉर्म भरते हुए माधव की योग्यता वाले काॅलम में इंजीनियर के स्थान पर मेधा लेबर लिखा हुआ देखती है! यहीं से उसके मन में प्रतिरोध की ज़मीन तैयार होने लगती है। माधव के ऑफ़िशियल टूर के बहाने जयपुर के ऐतिहासिक स्थलों की यात्रा के दौरान मुक्त जीवन जीने वाले सहपाठी से भेंट उसे अपने स्वत्त्व को पहचानने के लिए उकसाती है। पिता के अस्वस्थ होने का समाचार सुनकर माधव के निर्देश की परवाह किए बिना स्टेशन से सीधे अस्पताल जाना उसके व्यक्तित्व में बदलाव का सूचक है। 

माधव के दृष्टिकोण में परिवर्तन मेधा तब देखती है जब पिता की मौत के सदमें से उसके अचेत होने पर उसके गर्भ धारण का ख़ुलासा होता है। अपने पसंदीदा नर्सिंग होम में उसका अल्ट्रासाउंड करवा कर माधव बहुत ख़ुश दिखता है। मेधा के लिए फल, जूस वग़ैरा लाना, उसके आसपास बने रहना, समय आने पर उसे प्रसन्नता पूर्वक नर्सिंग होम ले जाना, बेटे का जन्म होने पर मिठाइयाँ बाँटना माधव के स्त्री विरोधी दृष्टि कोण को सतह पर ले आता है। बेटी को अपनी नज़रों से दूर भेजकर बेटे के स्वागत में पलक पांवड़े बिछाते माधव से मेधा का मन उचटने लगता है। स्कूटर पर रंग-बिरंगे गुब्बारे सजाकर आगे जाते माधव के पीछे भाई की कार में नवजात पुत्र को गोदी में लिए बैठी हुई मेधा सहसा माधव का अनुगमन करना छोड़ कर भाई को अपने घर चलने का निर्देश देती है दूसरे शब्दों में उसके ठिठके हुए क़दम स्वयं निर्धारित गंतव्य की ओर बढ़ जाते हैं। 

उपन्यास के आरंभ में चुलबुली किशोरी मेधा अंत तक पहुँचते पहुँचते दृढ़ व्यक्तित्व की स्वामिनी के रूप में सामने आती है। परम्पराओं से जकड़े समाज की कठोर सच्चाई के प्रतिरोध को लेखिका ने तार्किक घटना क्रम से अंत तक पहुँचाया है। सुघड़ लेकिन परम्पराओं से बँधी माँ से उसे पराए घर जाकर एडजस्ट करने की सीख दी लेकिन पिता की उदारता, सिसोदिया मैडम की स्वत्त्व को पहचानने की सीख, सहकर्मी सखियों और पड़ौसिन शान्ति तथा भाई भाभी के सहयोग से उसके आत्मविश्वास को बल मिला। 

उपन्यास की टैक्नीक में ज़्यादा घुमाव नहीं हैं क़िस्सागोई शैली में कथा एक ही दिशा में आगे बढ़ती है, कई तरह के ब्यौरे रोचकता बनाए रखते हैं, जैसे मोहल्ला संस्कृति में सब कुछ बाँट कर इस्तेमाल करने की आपसदारी, विवाह आदि में साड़ियाँ, ज्यूलरी आदि की विस्तृत चर्चा कथा को एकरस होने से बचाते हैं। अलंकरणों से दूर बोलचाल की सहज भाषा कथ्य को पाठक तक पहुँचाने में सक्षम है। बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न पूनम कासलीवाल की कथा यात्रा का यह पहला पड़ाव उनके उज्ज्वल रचनात्मक भविष्य का सूचक है। 

पुनश्च: रुझान पब्लिकेशन जयपुर से प्रकाशित 190 पृष्ठ का यह उपन्यास 250रु. का है, जिसे एक ही सिटिंग में पढ़ा जा सकता है। 

डॉ. चंद्रकान्ता किनरा
असोसिएट प्रोफ़ेसर हिंदी विभाग (रिटायर्ड) 
इंद्रप्रस्थ काॅलेज
दिल्ली विश्वविद्यालय

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