वो गरमी की छुट्टियाँ...

15-03-2021

वो गरमी की छुट्टियाँ...

भारती परिमल (अंक: 177, मार्च द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

वो गरमी की छुट्टियाँ 
पुकारती हैं मुझे
वो बचपन का 
बेफ़िक्र समय
पुकारता है मुझे।
 
वो परीक्षा शुरू होते ही
उसके ख़त्म होने की बेताबी
और आख़री पेपर होते ही
स्कूल से घर न लौटने की बेफ़िक्री
नींद से टूटता रिश्ता
मस्ती से जुड़ता नाता
रिश्ते-नातों की ये 
भूल-भुलैया सताती है मुझे
वो गरमी की छुट्टियाँ 
पुकारती हैं मुझे
 
वो नानी के घर 
जाने का इंतजार
वो छुट्‌टी लगने से पहले ही
शुरू होता छुट्टियों का इंतज़ार
वो स्टेशन पहुँचकर
करना ट्रेन का इंतज़ार 
और ट्रेन में क़दम रखते ही
खिड़की की ओर बैठने का क़रार
वो बैठते ही
धूप की बढ़ती तपिश
और हटते ही जगह 
छिन जाने का डर
वो गरम लू के थपेड़े
और तपती सलाखें
जलाती हैं मुझे
वो गरमी की छुट्टियाँ 
पुकारती हैं मुझे
 
सफ़र करते-करते
वो टिफ़िन का खुलना 
वो नमकीन पूड़ियों और
अचार की ख़ुशबू का फैलना
वो सुराही से पानी निकालना
थोड़ा पीना, बहुत गिराना
कुछ देर में ही
अजनबियों से नाता जुड़ना
चंपक, लोटपोट ओर 
चंदामामा के लेन-देन से
अपनापन बढ़ना
कभी इसे पढ़ने के लिए
प्यार से हाथ बढ़ाना
तो कभी छीना-झपटी करना
वो अंताक्षरी का दौर चलना
सुर-बेसुर होकर गुनगुनाना
वो हँसी-ठहाके, वो मस्ती
ख़ुशियाँ होती थीं कितनी सस्ती
वो डिब्बे में आती
ककड़ी, भेल, चनाजोर गरम की 
तीखी-मीठी आवाज़ें
पुकारती है मुझे
वो गरमी की छुट्टियाँ 
पुकारती हैं मुझे
 
वो नानी के घर पहुँचते ही
उनकी आँखों की बेक़रारी
वो शाम को नाना के संग
साइकिल की सवारी
वो तेज़ धूप में 
नंगे पैर ही 
मामा-मौसी के पीछे-पीछे
बर्फ़ ख़रीदने
दौड़कर जाना
तलुओं में जलन और
हाथों में ठंडक महसूसना
घर आकर सबकी डाँट खाना
और कुछ देर बाद ही
आम की गुठलियाँ चूसना
तरबूज की फाँके खाना
वो अपनों के दुलार में
अम्मा की झिड़की का दब जाना
वो खिड़की पर गौरैया का आना
और गुलेल की मार से उसे उड़ाना
तो कभी घायल कर जाना
वो फड़फड़ाते पंखों की सिसकियाँ
रुलाती हैं मुझे
वो गरमी की छुट्टियाँ 
पुकारती हैं मुझे
 
दोपहर में सबके सोते ही
चुपके से उठकर 
घर से बाहर निकलना
पकड़े जाने पर
टाट की पट्‌टी को
गीला करने का बहाना बनाना
और दौड़कर आँगन में आ जाना
अकेले में ख़ूब झूला झूलना
पहाड़े और कविताएँ गुनगुनाना
एक-एक कर सभी के जमा होते ही
गप्पों का शामियाना सजाना
वो बूढ़े नीम पर पड़े
झूलों की पेंगे
बुलाती हैं मुझे
वो गरमी की छुट्टियाँ 
पुकारती हैं मुझे
 
वो रात को छत पर सोना
तारों से दोस्ती करना
चंदा से बातें करना
एक कोने से दूसरे कोने तक
दौड़ लगाना
एक-दूसरे के कपड़े खींचना
बालों में च्युंइंगम चिपकाना
धमा-चौकड़ी के बीच
एक का गिरना और उसके रोते ही
मामा की डाँट सुनकर
सभी का चुप होकर बैठ जाना
फिर हल्के माहौल में
नानी की गोद में बैठकर
रानी परी और शैतान राक्षस
की कहानी सुनना
सुनते-सुनते ही सो जाना
फिर किसी की बाँहों से होकर
अपने बिस्तर तक पहुँचना
और झीनी चादर का ओढ़ना
गालों पर हल्की चपत के साथ
वो माथे पर पड़ती 
गीले होठों की 
खट्टी-मीठी निशानी
अहसासों की ये लड़ियाँ
पिघलाती है मुझे
वो गरमी की छुट्टियाँ 
पुकारती हैं मुझे
 
नहीं था कोई होमवर्क का झंझट
न प्रोजेक्ट का टेंशन
न कोई कॉम्पिटिशन
बस था तो केवल बेफ़िक्र बचपन
अल्हड़ता, नादानी, बेफ़िक्री से भरी
वो बचपन की कलियाँ
आज भी महकाती हैं मुझे
वो गरमी की छुट्टियाँ 
पुकारती हैं मुझे।

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