लड़खड़ाती है क़लम . . .
भारती परिमललड़खड़ाती है क़लम
काँपती हैं उँगलियाँ
थरथराते हैं लफ़्ज़
कैसे कहूँ कि
चाँद से धरती पर
उतर आएँ परियाँ
यहाँ तो
टुकड़ों में बँटती हैं बेटियाँ!!!
धर्म-जाति-ऊँच-नीच से
परे होता है प्यार
इसी प्यार के समंदर में
डूबती-उतराती हैं बेटियाँ
एक ख़्वाब को जीने की चाहत में
ख़्वाब बन जाती हैं बेटियाँ
यहाँ तो
टुकड़ों में बँटती हैं बेटियाँ!!!
छोड़ कर अपनों का साथ
थामती हैं बेहद अपने का हाथ
वही हाथ छोड़ देता साथ
नोंचकर जिस्म को
नालों में बहा दी जाती हैं बेटियाँ
उफ्फ़ तक नहीं कर पाती हैं बेटियाँ
यहाँ तो
टुकड़ों में बँटती हैं बेटियाँ!!!
कैसे कहूँ कि
चाँद से धरती पर
उतर आएँ परियाँ!!!