वो भी तो कश्मीर ही था
विवेक कौलइन अटल हिम-चट्टानों से
जब नहीं बरसते शोले थे,
इन अचल तुंग दीवारों से
पड़ते बारूद के ना गोले थे।
शिवोहम की गुंजन जब
थी शीत हवा की लहरें में ,
पर्वत शिलाएँ जब पूजी जातीं,
देवत्व बसा था नदी नहरों में।
नौहट्टा की गलियों में जब
उत्पलदेव भी चलते थे,
बीरू के पावन स्थल पर जब
आचार्य अभिनव पलते थे।
इसी भूमि में पदचिह्न हैं मम्मट,
कल्लट और बिलहन के
राज तरंगिनी रची यही थी,
उदित पंडित कलहन ने,
शारदा मठ का पांडित्य भी
इन्हीं हवाओं में था बसा
नीलम घाटी की फ़िज़ा में
शैव सिद्धान्त था रचा।
ललित्यादित, अवंतिवरमन के जयगान से
कभी गूँजी थी यह पर्वत मालाएँ
दिदा, कोटा रानी सी भी तो
यहाँ थीं अनेक वीर बालाएँ
कर संधि सब रहे यहाँ –
देव, मानव, पिशाच, नाग,
बन संदेशवाहक मेघदूत
घूमा यहीं के केसर के बाग़,
पाणिनि के अष्टाध्यायी में
उसी कश्मीर का है वर्णन
कर संहार जलोद्भव का,
कश्यप ने जिसका किया नव सृजन।
वसगुप्त ने जहाँ खोजी थी
गूढ़ शिव सूत्रों की पाहन,
सोमानंद, उत्पल ने उसी कश्मीर में
साधा त्रिक शिव दर्शन।
कश्यप के इस पावन धरा पर
यह काले बादल क्यूँ छाए
आक्रांता इस स्वर्ग में विध्वंस
आख़िर क्यूँ संग ले आए?
बहती नदियाँ और अटल हिम शिखर
फिर भी क्यूँकर चुप रह गए?
विनाश, त्रासदी और बलात् –
सब चुप-चाप यूँ ही सह गए?
मिट चुके हैं क्या वहाँ शारदा नगरी के
सब संकेत, सब निशान?
परित्यक्त आलय जब उखड़ गए
वहाँ से कश्यप की संतान?
क्या शिव और शक्ति ने
वास यहाँ का छोड़ा है?
क्या सरस्वती ने निज घम से ही
अब अपना मुख मोड़ा है?
क्या चलता रहेगा इस कश्यप नगरी में
हिंसा-उत्सव यह रक्त पात?
या फिर देखेगा कश्मीर
नई लालिमा और नव प्रभात?