तीन लाख पचास हज़ार
विवेक कौल१९९० के दशक में लगभग तीन लाख पचास हज़ार कश्मीर के मूलनिवासी कश्मीरी पंडित कश्मीर से पलायन कर गए। इस्लामी आतंकवाद आज़ादी का मुखौटा पहने कश्मीर में निज़ाम ए मुस्तफ़ा स्थापित करने की शपथ ले चुका था। इस भयानक मानव त्रासदी का शिकार कश्मीर के हिंदू हुए और सदा के लिए अपना घर-बार छोड़ गए
(अपना सामान बाँधते हुए, कश्मीर से पलायन के लिए तैयार एक वृद्ध कश्मीरी की दुविधा)
कांगर** तो नहीं भूला?
या फिर वो दमचूल्हा?
मसाले का पैकेट?
फिर वो जैकेट
जिस में बना था मैं दूल्हा?
सर्टीफिकेटों का संदूक़?
खिलौने वाली बंदूक़?
संदूक़ों में सिमटी
विरासत सदियों की,
जैसे गागर में सिमटीं हो
रवानी नदियों की।
वो आहें वो तमन्नाएँ,
उन्हें भी ट्रकों में लाद दो
अरमान या ख़्वाब हैं?
तो भी तरपाल से बाँध दो।
वो सासें, वो बहुएँ,
उनके झगड़े और तानें
नई बीवियों के गहने,
उनके नख़रे और बहाने
बाबू, व्यापारी,
वो अफ़सर, वो नानवाई
अध्यापक, डाक्टर, इंजीनियर,
और हलवाई
ग़मगीन सा चाचा
वो मुस्कुराती हुई मौसी
निकम्मा दुकानदार
वो चालक पड़ोसी
सब समान बाँधे खड़े हैं
बस चलने की देर है,
मंज़िल की तलाश है
या बस जगहों का फेर है?
क्या मिलेगा उधर?
चंदे का राशन?
बनावटी सहानुभूति?
नेताओं के भाषण?
सुना है धूप से झुलसते
हैं पाँव वहाँ
पिघलती धरती पर
बरसते अंगार जहाँ।
क्या मिलेंगी चिनार की
छाँव वहाँ?
यह सादगी और
पड़ोसियों का प्यार वहाँ?
हुकुमरानों ने कहा :
शांति आएगी, आतंक घटेगा
रात जाएगी, रोशनी आएगी
और अँधेरा छँटेगा
तो क्यूँ ना हम
यह पलायन रोक दें?
जो जा रहें हैं
उन्हें भी टोक दें?
पर क्या मैं रह पाऊँगा
मुस्तफ़ा के निज़ाम में?
क्या मैं रह पाऊँगा
पाकिस्तान का ग़ुलाम में?
जाना होगा
अखंडता के लिए, भारत की
जाना होगा
कि नींव मज़बूत रहे इस इमारत की
लड़ना होगा
मज़हब के उन्माद से
लड़ना होगा
इक तरफ़ा संवाद से
हम बीज हैं जीवंत होते हैं मिट्टी से मिलने के बाद से
हम बीज हैं जीवंत होते हैं मिट्टी से मिलने के बाद से
**कांगर : सर्दियों में गर्म रखने वाला छोटा सा अग्निकुण्ड जो कश्मीर में प्रयोग किया जाता है।
1 टिप्पणियाँ
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भावुक संवेदनशील विषय पर रचित कविता