विद्रोही
आनंद कुमार
देख चुका हूँ
इन स्वर्ण महलों की सच्चाई।
रक्त नहाई दीवारें और
दंभ भरी हैं परछाईं।
जानता हूँ कैसे हुई हैं रातें रोशन
कहाँ से होकर ये रोशनी आई।
कोटि-कोटि दीप बुझे होंगे
ख़ाक हुई होगी कोटि तरुणाई।
टूटे होंगे कोटि सपने
छूटे होंगे बंधु सुत अपने।
ओह! रोई होगी कितनी आँखें?
निकली होगी कितनी आँहें?
भूखे नंगे सिमटे जिस्मों की
ओह! कितनी सारी मौन कराहें?
दबी पड़ी हैं इन जंगलों में
ऊँचे चौड़े इन बँगलों में।
रक्तरंजित इन अट्टलिकाओं पर
मैं पग धरता हूँ।
हाँ-हाँ विद्रोही हूँ
मैं विद्रोह करता हूँ।