विधवा माँ का दुःख
गिरेन्द्रसिंह भदौरिया ‘प्राण’
(सरसी छ्न्द में एक करुण गीत)
सुबक-सुबक वह देख रही है, प्रियतम की तस्वीर।
कोई नहीं सहारा दिखता, फूट गई तक़दीर॥
दोनों बेटे हुए सयाने, कर जिसका पय पान।
वही बोझ बन गई बावरी, सहती नित अपमान॥
बात-बात पर झगड़ा करते, बहुएँ भरतीं कान।
बैठे ठाले आ जाता है, पल भर में तूफ़ान॥
सुनने पड़ते सबके ताने, होती बहुत अधीर।
सुबक-सुबक वह देख रही है, प्रियतम की तस्वीर॥
उम्र क़ैद सी भोग भोगती, सिकुड़ चुकी है खाल।
कांँय-काँय ऐसी होती है, चकरा उठे कपाल॥
मिलता नहीं पेट भर खाना, मानो पड़ा अकाल।
मांस लुप्त हो गया देह से, शेष बचा कंकाल॥
दिन-दिन जीना दूभर लगता, गलने लगा शरीर।
सुबक-सुबक वह देख रही है, प्रियतम की तस्वीर॥
अगर कहीं मुँह खुला भूलवश, बोल दिए सच बोल।
आसमान सा टूटा समझो, धरती डोलमडोल॥
दोनों बहुएँ दोनों बेटे, बोलें बोल कुबोल।
रही मालिकिन पूरे घर की, कोना रही टटोल॥
बिना तुम्हारे कौन सुनेगा, मेरे मन की पीर।
सुबक-सुबक वह देख रही है, प्रियतम की तस्वीर॥
मन ही मन में सोचा करती, कहाँ करूँ फ़रियाद।
मौत नहीं आ रही अभागी, होता नहीं विवाद॥
नारी हूँ कहने को देवी, रही नहीं आज़ाद।
तुम होते तो कह तो लेती, आती पल-पल याद॥
न तो भाग सकती अब घर से, तोड़-ताड़ ज़ंजीर।
सुबक-सुबक वह देख रही है, प्रियतम की तस्वीर॥
मुझे अकेला छोड़-छाड़ कर, चले गए श्रीमान।
क्या क्या बीत रही है मुझ पर, कौन धरे अब ध्यान॥
इतनी साँसें दे डालीं हैं, निठुर हुए भगवान।
हर पल मरना चाह रही हूँ, नहीं निकलते ‘प्राण’॥
घुट-घुट कर हो गई सींक सी, बहता नहीं समीर।
सुबक-सुबक वह देख रही है, प्रियतम की तस्वीर॥