तुम होते तो
आलोक शंकरइतना कुरूप अंतर का
यह शृंगार न होता
नयनों में यह बद्ध नीर,
उर का पीड़ित संसार न होता ।
मानस-पटल घने कोहरे में
जब भी दुःखाकुल होता;
शोक-मलिन उर के पट पर
नयनों की उजियाली मलता ।
विपदा के वीरानों में जब भी
आहट तेरी दिखती;
निज-प्राणों के टुकड़े करके,
सुख-संगीत बहा देता ।
प्रिये! तुम्हारा मन किंचित,
अँधियारों से विचलित होता;
प्रकृति से विद्रोह उठा
मैं नव-आदित्य उगा देता
. . . तुम होते तो।