तुम होते तो

12-09-2007

तुम होते तो

आलोक शंकर

इतना कुरूप अंतर का 
यह शृंगार न होता
नयनों में यह बद्ध नीर,  
उर का पीड़ित संसार न होता ।
 
मानस-पटल घने कोहरे में 
जब भी दुःखाकुल होता;
शोक-मलिन उर के पट पर 
नयनों की उजियाली मलता ।
 
विपदा के वीरानों में जब भी 
आहट तेरी दिखती;
निज-प्राणों के टुकड़े करके, 
सुख-संगीत बहा देता ।
 
प्रिये! तुम्हारा मन किंचित, 
अँधियारों से विचलित होता;
प्रकृति से विद्रोह उठा 
मैं नव-आदित्य उगा देता
 
 . . . तुम होते तो।

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