आत्म - मंथन
आलोक शंकरसिन्धु की विकल रूह के तट पर
मन की डोर थामकर कसकर
फिरता हूँ खाली खाली सा
अम्बर की लोहित लाली सा;
पतझड़ में झरकर गिरता हूँ
आँधी में उड़ता फिरता हूँ,
चखता हूँ अस्तित्व जलाकर
नित नित पावक में सुलगाकर
पर निःस्वाद निरा लगता है,
कुछ बदला-बदला लगता है।
मेरी परिवर्तित सी काया
दुर्बल, निराकार यह छाया
अधरों पर अतृप्त उदासी
लोलुप कायरता सी प्यासी
देख रहा हूँ सब, क्षणभंगुर
कल फ़ूटेगा फिर जब अंकुर
निकलूँगा कोमल तन पाकर
फिर आकार नवीन बनाकर
अम्बर में फिर रंग भरूँगा
वारिधि का संगीत बनूँगा ।
लहरों पर फिर उतराऊँगा
मद्धम मद्धम लहराऊँगा;
अब, जब आखिर साँस बची है
यह चेतना नवीन जगी है।
मैं ही व्यर्थ शोक करता था,
इस क्षण से डरता फिरता था
पतझड़ का, आँधी, सागर का,
भू के जीव अंश नश्वर का;
अम्बर का, गिरि का, निर्झर का
पीड़ा से आहत, जर्जर का
होता अद्वितीय मिलन है
प्रकृति का बस यही नियम है।