ठोकर
डॉ. दिनेश पाठक ‘शशि’
प्रत्येक माता-पिता अपनी ज़िन्दगी-भर की महत्त्वपूर्ण पूँजी, अपने अनुभवों की गठरी को अपनी संतान को सौंपकर उन्हें माला-माला कर देना चाहते हैं ताकि ज़िन्दगी की राह में उन्हें वे सब कठिनाइयाँ और बाधाएँ न झेलनी पड़ें जिनको झेलते-झेलते वे कभी हताश हुए तो कभी रोये और कभी-कभी तो जीवन जीना ही भूल गये।
पर ऐेसा बहुत कम या कहिए कि न के बराबर ही होता है जब उनकी संतान ने उनके मुफ़्त में सौंपे जाने वाले अनुभवों की अमूल्य निधि को सहज ही में स्वीकार कर लिया हो। इसका एक बहुत ही मुख्य कारण है जिसे प्रत्येक माता-पिता बख़ूबी जानते हैं पर फिर भी उन्हें लगता है कि जो ग़लती हमने अपने माता-पिता के अनुभवों को ठुकराकर की शायद ऐसा हमारी संतान न करे, और यही सोचकर वे अपने अनुभवों की गठरी को अपनी संतान को सौंप देना चाहते हैं। पर प्रकृति का नियम है कि प्रत्येक प्राणी अपने ही अनुभवों से सीखना चाहता है। अपने पैर में लगी ठोकर ही उसे होने वाले दर्द का अहसास कराती है।
और यही क्रम सदियों से चला आ रहा है। प्रत्येक माता-पिता अपनी संतान की राह आसान करने के लिए अपने अनुभवों की गठरी खोलता है पर संतान उसमें से—‘ज्यों की त्यों धर दीनी चुनरिया’ की तरह कुछ भी नहीं छूता। संतान अपने अनुभवों की गठरी को बाँधते-बाँधते तब अपने माता-पिता की उम्र तक पहुँचती है तो फिर वह उसी क्रम को दोहराती है यह सिद्ध करते हुए कि हमसे अधिक बुद्धिमान कोई नहीं। लो, हमारे अनुभवों को ले लो और ज़िन्दगी की सड़क पर सरपट दौड़ लगाओ। पर अब उनकी संतान उसी क्रम को दोहराती है यानी सभी अपने ही अनुभवों से सीखते हैं फिर मैं ही कैसे बच जाता उस क्रम से।
कुर्रतुल ऐन हैदर की कहानी—‘आवारागर्द‘ का नायक यूरोपियन ऑटो क्रूगर ज़िन्दगी का तजुर्बा हासिल करने के लिए दुनिया के सफ़र पर निकला था तो उसकी जेब में पैसे के नाम पर एक छदाम भी नहीं था फिर भी वह तुर्की, ईरान, जर्मनी, श्रीलंका, थाईलैण्ड तथा जापान, अमरीका, पाकिस्तान तथा भारत सभी देशों के वाहनों पर लिफ़्ट ले-लेकर पूरी दुनिया घूमते और खाते-पीते अपने देश लौट गया . . . पर मुझे तो पैसा चाहिए एक फ़्लैट ख़रीदने के लिए और उसके लिए मैं अपने वृद्ध माता-पिता की ओर टकटकी लगाकर देख रहा हूँ क्योंकि फ़्लैट ख़रीदना किसी से लिफ़्ट लेकर यात्रा करने जैसा तो बिल्कुल भी नहीं है।
माता-पिता की कृपा के बाद ही मैं इस मकान को बेच पाऊँगा, जिसे उन्होंने 300 वर्ग यार्ड में बना तो लिया है पर इस कॉलोनी में रहने वाले मेरी पत्नी को पसन्द नहीं हैं क्योंकि पूरी कॉलोनी में आस-पड़ोस और दूर-दराज़ के गाँव से भी आकर लोग बस गये हैं। इनमें से अधिकतर घरों में रहने वाले लोग सीमा पर बन्दूक ताने हमें और अपने परिवारों को चैन की नींद सोने में सहायक हैं। इन मकानों में उनकी पत्नी और बच्चे रहते हैं और साल-छह महीने बाद छुट्टी आने पर ही वे अपनी पत्नी-बच्चों से मिल पाते हैं या फिर जो सेना से सेवानिवृत्त हो चुके हैं उनमें से अधिकतर ने अपने ही घर में आटाचक्की लगा ली है या फिर गाय-भैंस पाल ली हैं, जिनका दूध इस कॉलोनी के ही नहीं आस-पास की कॉलोनियों के लोग भी आकर ले जाते हैं। इस शहर की अन्य कॉलोनियों में भी अधिकतर लोग गाँवों से आये हुए ही हैं पर . . . मेरी पत्नी का कहना है कि उन कॉलोनियों के लोग असभ्य और जाहिल नहीं हैं। वे अपने मतलब से मतलब रखते हैं, खाते-पीते हैं और मोहल्ला-पड़ोस में या सामने वाले घर में क्या हो रहा है, किसी को क्या तकलीफ़ और क्या ख़ुशी है, वे इससे मतलब नहीं रखते। यहाँ तक कि इस कॉलोनी के लोगों की तरह वे एक-दूसरे के नाम तक जानने की कोशिश भी नहीं करते। बड़ी-बड़ी गेट बन्द कॉलोनियाँ जिनमें रहने वाले सभी लोग अपने को बहुत आभिजात्य वर्ग का सिद्ध करते हुए रहते हैं, उन कॉलोनियों में रहने की बात ही कुछ और है पर . . . उन कॉलोनियों में एक छोटा-सा भी फ़्लैट लेने के लिए भी मुझे कई लाख का क़र्ज़ लेना पड़ेगा। इस मकान को बेच दिया जाय तो उस क़र्ज़े में राहत मिल जायेगी। बैंक से कुछ लाख रुपये का अर्थात् कम क़र्ज़ लेना पड़ेगा।
. . . मगर माता-पिता की इच्छा के बिना इस मकान को बेच पाना मुश्किल ही नहीं असम्भव ही है। माता-पिता को इस मकान से बहुत लगाव है। उनका कहना है कि वे मिट्टी से जुड़े लोग हैं और उन्हें मिट्टी से जुड़े रहना ही पसन्द है। भले ही नौकरी करते हुए उनका जीवन शहरों में बीत गया किन्तु रहने वाले तो गाँव के ही हैं इसलिए उन्हें तो ऐसी ही कॉलोनी पसन्द है, जहाँ गाँव जैसा भी माहौल हो और शहर जैसा भी। जहाँ गाय और भैंस का शुद्ध घी-दूध भी मिल जाता हो और लोग एक-दूसरे के दुःख-सुख में भी आ जुटते हों।
. . . पर मेरी पत्नी को यह सब दक़ियानूसी लगता है। उसे लगता है कि आज के ज़माने में अपना बैंक बेलैंस हो तो किसी की क्या ज़रूरत? दूर-दूर तक के लोग अपने आप को रिश्तेदार बताने लगते हैं। पैसा फेंको तमाशा देखो . . . पर कभी-कभी आदमी जो सोचता है वैसा होता नहीं और जो वह नहीं सोचता है, वैसा ही हो जाता है।
हुआ यह कि एक दिन मैंने साहस जुटाकर फ़्लैट ख़रीदने की इच्छा को अपने माता-पिता से ज़ाहिर कर दिया। मुझे उम्मीद थी कि मेरी बात सुनकर वे नाराज़ होंगे और बहुत सारे उपदेशों की घुट्टी पिलाकर, उचित-अनुचित का ज्ञान करायेंगे लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं हुआ। मेरी बात सुनकर उन्होंने मेरे चेहरे की ओर देखा और बोले, “ले लो, तुम्हारा मन है तो। लेकिन एक बात का ध्यान रखना, हमें यहाँ से फ़्लैट में ले जाने की बात मन में मत लाना। हम जैसे भी रहें, यहीं रहेंगे।”
“लेकिन . . .”
मैंने हिचकते हुए कहना चाहा तो वह बीच में ही बोल पड़े, “लेकिन-वेकिन कुछ नहीं। आप अपने परिवार को लेकर जहाँ उन्हें सुख मिले, रहो। हम अपना बुढ़ापा यहीं काट लेंगे। जिन दम्पत्तियों के सन्तान नहीं होती वे क्या वृद्ध नहीं होते या जीना छोड़ देते हैं। हम भी यही सोचकर जी लेंगे।”
उनके चुप होते ही मैंने फिर से अपनी बात कहने की कोशिश की, “दरअसल बात यह नहीं है पिताजी।”
“फिर कौन सी बात है?”
पूछते हुए उन्होंने मेरी ओर देखा। मैंने फिर से साहस जुटाने की कोशिश की और अपने मन की बात कहने की कोशिश की, “बात यह है कि यदि आप यहाँ रहेंगे तो फिर . . . फिर इस मकान को बेचे बिना फ़्लैट ख़रीदने के लिए इतना पैसा . . . हमारे पास . . .” डरते-डरते मैंने अपनी बात पूरी करने की कोशिश की परन्तु बात पूरी न कर सका।
मेरी बात सुने बिना ही वह सब समझ गये और रहस्यमयी मुस्कान के साथ बोले, “अच्छा, तो इस मकान को बेचकर मिले पैसों से फ़्लैट ख़रीदना चाहते हो।”
“जी . . . जी . . . पिताजी। कुछ सहारा मकान के पैसों से लग जायेगा और कुछ बैंक से लॉन ले लेंगे,” बहुत हिम्मत करके मैंने अपना विचार प्रकट किया।
“यह मकान कितने में बिक जायेंगा?” उन्होंने गम्भीरता से पूछा।
“लगभग 60-65 लाख का तो बिक ही जायेगा,” मैंने अनुमान से कहा।
“और फ़्लैट कितने तक का मिल जायेगा?”-उन्होंने अगला प्रश्न किया।
मैंने दो-चार कॉलोनियों में की गई पूछताछ के आधार पर उन्हें बताया, “क़रीब नब्बे लाख का।”
“यानि इस तीन सौ वर्ग यार्ड के हर तरफ़ से खुले, हवादार, मकान को जिसमें धरती-छत सब कुछ अपना है, इसे बेचकर गुचकल्ला से फ़्लैट को लेना चाहते हो जिसमें रहने वाले की न अपनी छत होती है और न ज़मीन। और उसके लिए इसे बेचने के बाद भी बीस-पच्चीस लाख का क़र्ज़ा सिर पर लादोगे?” पिताजी ने अपनी बात पूरी करते हुए मेरी ओर को देखा तो मैं सकपका गया।
“देखो बेटे, पुरानी कहावत है कि तेते पाँव पसारिये जेती लम्बी सौर। अगर यह मकान इतना बुरा लग रहा है तो फ़्लैट ख़रीदने के लिए स्वयं को समर्थ बनाओ और जैसे मैंने जीवनभर ईमानदारी से नौकरी करते हुए बिना अपने माता-पिता से एक पैसे की सहायता माँगे इसे बनाया है, वैसे ही तुम फ़्लैट ख़रीदने की कोशिश करो। इस मकान की एक-एक ईंट मेरे ख़ून-पसीने की कमाई की लगी है।”
पिताजी के मुँह से इतना लम्बा उपदेश सुनकर आगे कुछ कहने की मेरी हिम्मत नहीं हुई।
वैसे पिताजी ने जो कुछ कहा उसमें एक शब्द भी झूठ नहीं कहा। जब वह सरकारी नौकरी में थे, अनेक ठेकेदार आगे-पीछे घूमते थे। किसी को भी एक इशारा कर देना ही पर्याप्त था, कई शहरों में कई कोठियाँ तैयार हो जातीं . . . पर नहीं, उनका हर ठेकेदार से एक ही कहना था, “सरकारी काम को ठीक से करो, बस यही मेरा कमीशन है।” और सच तो यह भी है कि नौकरी में आने के बाद उन्होंने कभी अपने माता-पिता या परिवारजनों से कोई सहायता नहीं माँगी। यहाँ तक कि अपने हिस्से की पुश्तैनी ज़मीन की पैदावार में से भी एक दाना नहीं लिया कभी। जबकि उनके ही कई साथियों को मैंने हर साल फ़सल के बाद अपनी ज़मीन का भूसा तक बाँटकर लाते हुए देखा है।
आज ये सारी बातें मुझे क्यों याद आ रही हैं? अब तो वह दिन भी आ गया जिसमें मेरे ऊपर किसी का कोई बन्धन नहीं है। यानी कुछ साल बाद ही माता-पिता मुझे स्वतंत्रता प्रदान करके इस मकान को छोड़कर सदा-सदा के लिए विदा हो गये। अब मैं पूरी तरह स्वतंत्र हूँ, अपनी और अपनी पत्नी की सभी इच्छाओं को पूरा करने के लिए। पर . . . छह महीने बीत गये, अभी तक मैंने क्यों प्रयास नहीं किया इस मकान को बेचने के लिए? क्या अब दूसरी कॉलोनी में जाने की ज़रूरत नहीं है? या उस समय केवल पिताजी की उपस्थिति ही खल रही थी। उन्हीं पिताजी की जो सेवानिवृत्ति के बाद भी पूरे दिन में कई आदमियों का काम सहज ही कर दिया करते थे। जो, सुबह सबसे पहले जागकर घर के मुख्य दरवाज़े का ताला खोलकर दरवाज़े पर पानी से धुलाई कर दिया करते थे, कहते थे, “लक्ष्मी उसी के घर आती हैं जो जल्दी जागकर दरवाज़े पर दोनों ओर पानी डालकर सफ़ाई रखता है।”
किन्तु हमने कभी उनकी इस बात पर अमल नहीं किया अपितु हम तो उनका यह वाक्य सुनकर मन ही मन खीज उठते थे। इसीलिए उन्होंने यह वाक्य हमें फिर कभी नहीं सुनाया और स्वयं ही जल्दी जागकर उस कार्य को करना आरंभ कर दिया।
रात को चार रोटी बनाकर रखने के लिए भी उनका आदेश था ताकि सुबह ही दरवाज़ा धोने के बाद वे दो रोटी कुत्ता और गाय को खिला सकें और बाक़ी की दो रोटी सबसे ऊपर की छत पर कौवा, चिड़िया और गिलहरियों के लिए रख सकें। पानी का एक बर्तन भरकर रखना और छत पर आकर बैठने वाले कबूतरों को दस मुट्ठी चावल, जाड़े के दिनों में बाजरा डालने का नियम भी उनका पक्का था।
उनके जाने के बाद कुछ ऐसा घटित हो गया जिसका अहसास हमें उनके रहते नहीं हुआ था। सुबह-शाम दूध लाने का ध्यान, न उसे गरम करने का। वह सुबह जागते ही सबसे पहले रात के दूध को गर्म कर देते और सुबह का दूध लाकर भी हमारे जागने से पहले किचिन में गैस पर गरम करने रख देते। सबमर्सीबल चलाकर छत पर रखी टंकी को पानी से फ़ुल कर देते।
हम लोग जागते तो किचिन में दूध गरम मिलता। टंकी में पानी फ़ुल मिलता और शाम को भी चार बजे के क़रीब एक बार फिर से वो दूध को गरम करते ताकि दूध फट न जाए।
उनके चले जाने के बाद कई दिन ऐसा हुआ कि सुबह का दूध लाना याद ही नहीं रहा या फिर समय पर गरम न करने के कारण दूध फट गया। नहाने के लिए बाथरूम में घुस गये पर साबुन लगा लेने के बाद पता चला कि टंकी में पानी ख़त्म हो चुका है।
तौलिया लपेटकर बाथरूम से बाहर निकलो फिर सबमर्सीबल चलाओ। किसी-किसी दिन बिजली धोखा दे जाती तो फिर बैठकर इंतज़ार करो बिजली आने का। अन्य अनेक काम जिनपर कभी हमने ध्यान ही नहीं दिया, अब समझ में आने लगे थे। यह भी समझ में आ रहा था कि बुज़ुर्ग के रहने से घर में कितना सहारा होता है। ऐसा सहारा जिसका बुज़ुर्ग के ज़िन्दा रहते घर वालों को कभी एहसास ही नहीं होता।
किन्तु इन सब बातों को अब सोचने से क्या लाभ? क्यों नहीं मैं इस मकान को बेचकर अपनी और अपनी पत्नी की इच्छाओं की पूर्ति कर लेता? पिताजी का एक वाक्य क्यों बार-बार मुझे याद आ रहा है। वह कहते थे, “बेटा, अपनी ज़मीन से जुड़े लोग ही मुसीबत में साथ देते हैं। बड़ी-बड़ी गेटबन्द कॉलोनियों और फ़्लैट्स वाले संकुचित विचारधारा के कारण अहंकारी हो जाते हैं। उन्हें अपने सिवा किसी दूसरे से कोई मतलब नहीं होता।”
सचमुच ही जीवन के सम्बन्ध में उनके अनेक अनुभव कितने महत्त्वपूर्ण थे। इसीलिए हर माता-पिता अपने बच्चों को अपने अनुभवों की शिक्षा देकर उन ठोकरों से बचाना चाहते हैं जिनको उन्होंने अपने जीवन में झेला है किन्तु अधिकतर बच्चे अपने माता-पिता की बातों को दक़ियानूसी और सठिया गए हैं, कहकर उन अनुभवों से स्वयं वंचित कर लेते हैं। और जब स्वयं ठोकर खा-खा कर अपनी संतान को उनसे सावधान करना चाहते हैं तो फिर उनकी संतानें भी वही करती हैं जो उन्होंने किया था।
“चलो सुमन, अब इस मकान को बेचकर किसी पॉश कॉलोनी में फ़्लैट ले लेते हैं, योजना बना ही रहा था कि बिना बुलाये मेहमान सी विश्व महामारी के रूप में कोविड-19 ने दस्तक दे दी। पूरे विश्व में एक अनजाना सा भय हावी हो गया। घर से बाहर क़दम रखने में भी हर समय लगता कि जाने कब मौत की छाया हावी हो जाये।
देखते ही देखते घर, महल्ला, शहर और पूरे देश का ही माहौल बदल गया। लॉकडाउन लग जाने से घर से बाहर गली-मोहल्लों में श्मशान जैसी भयानक नीरवता नज़र आती। ऐसे में हर प्राणी का घर में बन्द रहते-रहते दम घुटने लगा। दफ़्तरों के काम भी वर्क फ़्रॉम होम हो गये। घर से निकलने की ज़रूरत ही नहीं रही।
डाक लेकर आया डाकिया या कूरियरमैन लगता कि कहीं अपने हाथों डाक या पैकेट के साथ कोविड को भी न थमा जाये। सब्ज़ी और दूध के लिए भी बाहर निकलने पर मौत का साया अपने साथ लगा दिखता।
“भाईसाहब, आप ऐसे समय में दूध लेने के लिए बाहर मत जाया करिये। घर के सामने गाय-भैंस होने का क्या फ़ायदा, जब ऐसे समय में भी आपको बाहर जाना पड़े। कल से आपको दूध मैं ही दे दिया करूँगी। आप बरतन दे दीजिए।”
यह कहकर घर के सामने वाली भाभी जी ने आग्रह पूर्वक बरतन ले लिया और दूसरे दिन से सुबह-शाम पर्याप्त दूध देना शुरू कर दिया। भाभी जी के पति फ़ौज में हैं। इस कॉलोनी में उन्होंने बच्चों की पढ़ाई आदि के कारण मकान बना तो लिया था, पर रहने वाले तो वह पास के गाँव के ही हैं इसीलिए उनका देवर अपने खेतों में उगी साग-भाजी भी ले आता और इस तरह सब्ज़ी लेने के लिए भी घर से बाहर जाने के लिए भाभी जी ने मुझे मना कर दिया। गाँव से अपने लिए लाई गई सब्ज़ी में से ही वो हमारे लिए भी दे देतीं वह भी बिना पैसा लिए और कहतीं, “अरे! ये तो हमारे अपने खेत की हैं भैया। कोई ख़रीद कर थोड़ाई लाये हैं। पैसा किस बात के।”
सामने वाली भाभीजी का निरभिमान, भोला जवाब सुनकर मैं बाध्य हो जाता। शायद इस सुकून का ही असर था कि मुझे समय-समय पर पिताजी द्वारा कही गई बातें याद आने लगीं, “बेटा, अगर पड़ोसी अच्छे हों तो आदमी के जीवन की बहुत सी समस्याएँ सहज ही दूर हो जाती हैं और पड़ोसी तभी अच्छे होते हैं जब हम स्वयं अच्छे हों, हमारा व्यवहार अच्छा हो। ज़रूरत पड़ने पर सबसे पहले पड़ोसी ही काम आते हैं, नहीं तो बड़ी-बड़ी गेटबन्द और तथाकथित पॉश कॉलोनियों में सभी केवल बनवासी जीवन जीने को अभिशप्त होते हैं।”
पॉश कॉलोनी के नाम पर मुझे नरेन्द्र की याद आ गई। बहुत बड़ी गेटबन्द पॉश कॉलोनी में है उसका फ़्लैट। नरेन्द्र की पत्नी और मेरी पत्नी में बहुत घनिष्ठ मित्रता है। नरेन्द्र की पत्नी के आग्रह पर ही मेरी पत्नी ने उस गेट बंद पॉश कॉलोनी में फ़्लैट लेने की ज़िद की थी। अगर पैसों का इंतज़ाम हो गया होता, तो अब तक उसी कॉलोनी में एक फ़्लैट लेकर अपने परिवार के साथ रह रहा होता।
चलो, आज नरेन्द्र के हालचाल पूछ लेता हूँ। इस महामारी ने घर से बाहर निकलना तो बिल्कुल बन्द ही करा दिया है।
काफ़ी देर तक फोन की घंटी बजती रही।
“शायद बाथरूम वग़ैरह में होगा नरेन्द्र . . . लेकिन उसकी पत्नी या बच्चा भी तो फोन उठा सकते थे,” मैंने सोचा।
मैंने उस दिन उसे कई बार कॉल किया पर एक बार भी किसी ने फोन नहीं उठाया तो मेरे मन में कुछ बेचैनी सी हुई। मैंने नरेन्द्र के फ़्लैट पर जाने के बारे में सोचा कि देखूँ तो सही क्या बात है। वह क्यों नहीं उठा रहा फोन?
मैं नरेन्द्र के फ़्लैट पर जाने के लिए तैयार हो ही रहा था कि मेरे फोन की घंटी बज उठी। मैंने कपड़े बदलते हुए अपनी पत्नी से कहा, “देखना सुमन किसका फोन है?”
सुमन ने फोन का रिसीवर उठाया तो उधर से नरेन्द्र की पत्नी की आवाज़ सुनकर चौंक उठी, “अरे भाभी क्या हुआ। आपकी आवाज़ ऐसी निर्जीव सी क्यों लग रही है। सब ठीक तो है न?”
“नहीं कुछ ठीक नहीं है सुमन! बस संक्षेप में इतना जान ले कि हम सब बच गये हैं। ख़ैर छोड़, तू बता सुमन! वहाँ तो सब ठीक है?”
“हाँ भाभी, यहाँ तो हम सब ठीक प्रकार से हैं . . . पर . . . आप पूरी बात बताओ न भाभी, क्या हुआ था? आपकी आवाज़ सुनकर तो मुझे बहुत घबराहट हो रही है।”
“सुमन अब तुमसे क्या छुपाना। मेरी ज़िद के आगे झुककर ही नरेन्द्र ने इस गेटबन्द पॉश कॉलोनी में फ़्लैट लिया था पर सुमन! हर चीज़ में कुछ अच्छाइयाँ होती हैं तो कुछ बुराइयाँ भी। इस संकट की घड़ी में पॉश कॉलोनियों में रहने वाले तथाकथित आभिजात्य लोगों का सारा सच मेरे सामने उजागर हो गया है।”
“कैसा सच भाभी?”
सुमन ने अधीरता से पूछा तो नरेन्द्र की पत्नी सिसक उठी, “यही कि मनुष्य को सदैव अपनी ज़मीन से जुड़ा रहना चाहिए। मृगमरीचिका में भटकने वालों को अपने प्राणों की आहुति देनी ही पड़ती है। जब हमारा पूरा परिवार कोरोना से ग्रस्त असहाय सा पड़ा हुआ था, फोन पर सारी बातें बताने और गिड़गिड़ाने के बावजूद भी कॉलोनी के एक भी आदमी ने हमारे ऊपर तरस नहीं खाया। यदि हम सब मर भी जाते तो शायद उनमें से कोई हमारे फ़्लैट में आता और वह भी तब जब हमारी लाशों से बदबू छूटने लगती।”
“ऐसा मत कहो भाभी। मरें तुम्हारे दुश्मन।”
“नहीं सुमन, मैं सच कह रही हूँ। इन पॉश कॉलोनियों में इंसान तो ढूँढ़े भी न मिलेगा तुम्हें। सब के सब आभिजात्यवर्ग का खोल ओढ़े अपने-अपने अहंकार में डूबे अमानुष हैं, कायर कहीं के!” इतना सुना तो जैसे सुमन का मन-मस्तिष्क सुन्न हो गया।
मैंने कपड़े बदल लिए थे इसलिए सुमन से कहा, “आप भी तैयार हो जाओ। चलो नरेन्द्र से मिलने के बाद यदि सम्भव हुआ तो उनके आसपास ही कोई फ़्लैट तय भी कर आयेंगे। देर से ही सही, तुम्हारी इच्छा की पूर्ति का समय आ गया है। अब तो वहाँ पर फ़्लैट ले पाने में पैसे की भी कोई रुकावट नहीं आयेगी। इस मकान को बेचकर . . .” मैं अपनी बात पूरी भी न कर पाया था कि वह बोली, “नहीं, नहीं जाना मुझे अब उस कॉलोनी में। हम यहीं ठीक हैं देव, इस बिना गेटबन्द कॉलोनी में ही।”
पत्नी का आक्रोशपूर्ण उत्तर सुनकर मैं चौंक उठा। फोन पर बात करते-करते ही सुमन की आवाज़ में उत्पन्न हो गये कम्पन और चेहरे पर प्रकट हो रहे आक्रोश को मैं महसूस कर रहा था। मैं समझ नहीं पा रहा था कि ऐसा क्या कहा नरेन्द्र की पत्नी ने कि . . . तभी सुमन ने अश्रुपूरित नेत्रों से फोन पर हुई सारी बात मुझे बताई।
पत्नी के मुँह से नरेन्द्र के परिवार के साथ हुई घटना का बीभत्स सच जानकर मेरे भी रोंगटे खड़े हो गये। अब मुझे पिताजी के उन अनुभवों का सच समझ में आ रहा था जिन्हें वह देना चाहते थे। मैंने उसी समय पिताजी के चरणों का स्मरण किया और माफ़ी माँगने की मुद्रा में मेरे दोनों हाथ स्वतः ही जुड़ गये।