ब्रज का लोकसाहित्य एवं लोक संस्कृति
डॉ. दिनेश पाठक ‘शशि’
वस्तुतः लोक एक स्थान विशेष की संज्ञा से अभिहित होता है। भारतीय विद्वानों ने ‘लोक’ अंग्रेज़ी शब्द ‘फ़ोक’(Folk) का पर्यायवाची या उसका हिन्दी अनुवाद स्वीकार किया है (अवधी का लोक साहित्य, डॉ. सरोजनी रोहतगी) इस अर्थ के आधार पर अद्यावधि लोक का अर्थ मानव समाज के उस वर्ग से किया जाता रहा है जो अपने पारम्परिक रीति रिवाज़ों और आदिम विश्वासों में आसक्ति रखने के कारण अशिक्षित और अल्प सभ्य कहा जाता है। हिन्दी साहित्य कोश में वर्णित लोक तत्त्व की व्याख्या से भी लोक के कुछ इसी प्रकार के अर्थ का संकेत मिलता है।
(हिन्दी साहित्य कोष पृष्ठ-3)
लोक, एक जाति समाज बोधक शब्द प्रतिष्ठित हो गया है जिसके अन्तर्गत ग्रामीण-पिछड़ी जातियों में प्रचलित अथवा अपेक्षाकृत समुन्नत जातियों के असंस्कृत समुदायों में अवशिष्ट विश्वास, रीति-रिवाज़, कहानियों, गीत तथा कहावतें आती हैं। प्रकृति के चेतन अथवा जड़ जगत के सम्बन्ध में मनुष्य कृत प्रभाव के सम्बन्ध में भूत-प्रेतों की दुनिया तथा उसके विभिन्न मनुष्यों के विषय में जादू-टोना, सम्मोहन, वशीकरण, तावीज, भाग्य, शकुन, रोग तथा नृत्य के सम्बन्ध में आदिम तथा असभ्य विश्वास इसके क्षेत्र में आते हैं।
इसके अतिरिक्त इसमें विवाह, उत्तराधिकार, बाल्यकाल तथा प्रौढ़ जीवन के रीति रिवाज़ों तथा अनुष्ठानों एवं त्योहार, युद्ध, आखेट, मत्स्य व्यवसाय पशुपालन आदि विषयों के भी रीति-रिवाज़ और अनुष्ठान इस में सम्मिलित होते है तथा धर्म गाथाएँ, अवदान, लोक कहानियाँ, साके (ठसक) गीत, किंवदन्तियाँ, पहेलियाँ एव लोरियाँ भी इनके विषय हैं।
(ब्रज लोक साहित्य का अध्ययन, डॉ. सत्येन्द, पृष्ठ-4)
उपर्युक्त विवेचनों के आधार पर कहा जा सकता है कि लोक शब्द अंग्रेज़ी शब्द फ़ोक का न तो हिन्दी रूपान्तर ही है और न ही इसका पर्याय ही। पाश्चात्य विद्वानों ने फ़ोलक को भौतिक सत्य के आधार पर व्याख्यायित किया है जबकि आध्यात्मिक भारत में लोक शब्द अपने परिवेश के अन्तर्गत ही व्याख्यायित होना चाहिए।
पाश्चात्य विचारकों ने इसकी सभ्य और असभ्य के आधार पर व्याख्या की है। सार्वभौमिक शाश्वत सत्य के आधार पर यदि सभ्यता की व्याख्या की जाय तो फोक शब्द की पुनर्व्याख्या करनी होगी क्योंकि यहाँ प्रश्न भौतिक सभ्यता के साथ-साथ आध्यात्मिक सभ्यता का भी है जो मनुष्य के सम्पूर्ण परिवेश को प्रभावित करती है। अतः महत्त्व उस परिवेश की संस्कृति का है जिस परिवेश की हम व्याख्या करते हैं। अस्तु भारतीय वांग्मय में लोक जन का समानार्थी है तथा यह शब्द सामान्य जनता या जन साधारण का अर्थ घोषित करता है। सत्यतः जनगन में ही सभ्यता एवं संस्कृति संश्लिष्ट है।
इस प्रकार लोक एक जन-समाज होता है जिसके पास एक निश्चित भूभाग होता है वह भूभाग प्रदेश भी कहा जा सकता है और उस प्रदेश में रहने वाले जन होते हैं उस प्रदेश का यश होता है। उस लोक की एक सभ्यता, एक संस्कृति होती है जिससे उस लोक की पहचान की जा सकती है। हमारा विशाल भारत वर्ष भी एक बृहद् लोक है जहाँ अनेक सभ्यता एवं अनेक संस्कृतियाँ अपनी सुगन्ध प्रकीर्णित करती रहती हैं अतएव यह विराट भारत वर्ष एक बृहद लोक समूह है उन्हीं लोक समूहों में से है एक ब्रजलोक। ब्रजलोक निखिल विश्व में सभ्यता एवं संस्कृति के लिए सदैव से विश्रुत एवं समादृत रहा है।
सम्पूर्ण विश्व में ब्रज लोक की अतुलनीय महिमा है। इस ब्रज मण्डल में बोली जाने वाली जनभाषा को ब्रज भाषा कहते हैं। इसलिए कहा है कि:
‘ए री ब्रज भाषा, तोसी दूसरी न भाषा
तैने बानी के विधाता कूँ,
बोलिबौ सिखायौ है।” (परिकम्मा ब्रज भूमि की, पृष्ठ-17)
ब्रज संस्कृति, प्रेम और पशु पालन की परम्परा वाली संस्कृति है। इस संस्कृति का संरक्षण वासुदेव कृष्ण ने स्वयं अपने सुदर्शन चक्र से किया है। ब्रज लोक का कोई भी पर्व, कोई भी अनुष्ठान, कोई भी कला लीजिए सब मिथकीय आवरण से आप्लावित हैं। मिथक एक परम्परा का द्योतक है। ब्रज के प्रत्येक अनुष्ठान, पर्व अथवा त्योहारों में एक मिथकीय परम्परा आबद्ध है और इससे ब्रज क्षेत्र का लोक जीवन विश्व की एक अलौकिकता का पर्याय सा बन गया है।
साहित्य समाज का ही प्रतिबिम्ब होता है। समाज में जो कुछ प्रतिफलित होता है, वही साहित्यिक सामग्री हो जाता है। इस कारण ब्रज लोक साहित्य भी विश्व में अनोखा साहित्य है। ब्रज लोक साहित्य में देवी-देवताओं के प्रसंगों को कर्ण गोचर किया जा सकता है।
ब्रज लोक साहित्य में ब्रज लोक जीवन की अभिव्यक्ति है। ब्रज में अनेक ऐसे प्रचिलित लोक गीत हैं जिनमें अपने इष्ट देवों की उपासना, भक्ति दृष्टिगोचर होती है:
“पहले तुम्हें मनाउंगी गजानन स्वामी
केसर उबटन कियौ तुम्हारौ,
तुम्हें नहाउंगी”
(ब्रज के लोक संस्कार गीत पृष्ठ-7 श्रीमती चन्दा देवी याज्ञवल्क्य)
साहित्य में समाज के जीवन दर्शन के संदर्शन हुआ करते हैं। साहित्य समाज का व्याख्याता है। समाज में जैसे संस्कार पनपते है साहित्य भी वैसा ही बनता जाता है। भारतवर्ष ग्राम प्रधान संस्कृति वाला देश है। लोक-गीत प्रत्येक गाँव में अवश्य ही सुनने को मिल जायेंगे। इसी प्रकार बृज लोक-गीत भी असंख्य संख्या में विद्यमान हैं और ये लोक-गीत संस्कार प्रदान करने वाले लोक गीत हैं अथवा विभिन्न संस्कारों पर गाये जाने वाले लोक-गीत हैं।
गर्भाधान से लेकर अन्त्येष्टि संस्कार तक के गीत ब्रज लोक साहित्य में कर्णरन्ध्रगत होते हैं। जन्म-गीतों को प्रमुखता से सुना जा सकता है। ब्रज के संस्कार गीत हमें, हमारे लोक जीवन से सीधे जोड़ते हैं। इनमें हमारे हर्ष-उल्लास, आशा, आकांक्षा, उन्माद, अवसाद आदि बड़ी सहजता से व्यक्त हैं।
गर्भ धारण कर लेने के बाद प्रथम मास से ही स्त्री का मन विभिन्न फलों को खाने के लिए आतुर होता है। ब्रज-लोक-साहित्य में अनेक ऐसे गीत हैं जो स्त्री की ऐसे समय की मनःस्थिति का वर्णन करते है:
बेर-
बाकौ मन लागौ बेरन पै,
बू तौ बेर ही बेर पुकारै जी
(ब्रज के लोक संस्कार गीत पृष्ठ-10 श्रीमती चन्दा देवी याज्ञवल्क्य)
फालसे-
पैलो महीना जब लागौ जच्चा कूँ
दूजौ महीना जब लागौ जच्चा कूँ
बाने यौं ही रे, त्यौं ही रे गमायौ
फूल गये फल लागौ जच्चा कूँ
गरमी के ठण्डे मीठे फालसे
(ब्रज के लोक संस्कार गीत पृष्ठ-11 श्रीमती चन्दा देवी याज्ञवल्क्य)
जामुन-
राजा रतनारे भँवर रतनारे
जामुन लाय देउ
पैलौ महीना जब लागौ जच्चा कूँ
दूजौ महीना जब लागौ जच्चा कूँ
बानै यौ ही रे, त्यौं ही रे गमायौ रे
मैं बारी-बारी . . . ।
इसी प्रकार बच्चे के जन्म के बाद सतिए धरे जाते समय ननद-भाभी संवाद की वार्ता के रूप में ये बृज-लोक-गीत गाया जाता है:
ननद-
सुन-सुन री मेरी कल की भाभी
सोने के सतिए धराइये
भाभी-
सोने के सतिए न होइ मेरी बीबी
गोबर के सतिए धराइये
ननद-
गोबर के सतिए से मैंरो करियल बिगरै
मेरी चुनरी बिगरै,
सोने के सतिए धराइये
(ब्रज के लोक संस्कार गीत पृष्ठ-17 श्रीमती चन्दा देवी याज्ञवल्क्य)
बच्चा बड़ा होता है और उसे खेलने के लिए झुनझुना खिलौना की आवश्यकता होती है। झुनझुना लोकगीत में बालक के सभी रिश्तेदारों का नाम जोड़ते हुए गीतों को लम्बा किया जाता है देखें:
मेरौ लाला खेलै झुनझुना
लाला काइ कौ तेरौ झुनझुना
काइ के कंकर डार रे
टोडरमल खेले झुनझुना
लला सोने कौ तेरौ झुनझुना
मोतिन के कंकर डालिए
टोडरमल खेले झुनझुना
तेरे बाबा ने गढ़वाए झुनझुना
दादी के प्यारे खेल रे
टोडरमल खेले झुनझुना
(ब्रज के लोक संस्कार गीत पृष्ठ-31 श्रीमती चन्दा देवी याज्ञवल्क्य)
दो उल्लेखनीय विशेषतायें हैं जो ब्रज के लोक-साहित्य को और अधिक गौरव प्रदान करती हैं इनमें पहली स्वयं ब्रजभाषा, जिसे सौभाग्य से विशिष्ट साहित्य की भाषा होने का गौरव भी प्राप्त है और दूसरी इस में समाहित कृष्ण-चरित्र की अद्भुत रसमाधुरी। ब्रज का लोक साहित्य एक तरह से लोक और विशिष्ट साहित्य के बीच सेतु की तरह काम करता है। ‘चटक रँग चूनरिया, जामें पिया की झलक दरसाय’ और ‘नसैनी बिन बाहेली, कैसें पिया की अटारी चढ़ौ जाय’ जैसे लोकगीतों में आध्यात्म और दर्शन के साथ-साथ भाषा और शिल्प की निपुणता भी ठीक शिष्ट साहित्य के मानकों के अनुरूप दिखाई देती है। ब्रजवासियों का सारा जीवन कृष्णमय होने के कारण उनकी हर सोच में कृष्ण की उपस्थिति सहज और स्वाभाविक बन जाती है, वे अपने मन की कोई भी बात राधा और कृष्ण के माध्यम से आसानी से कह देते हैं। एक लोकगीत की बानगी देखिये:
‘राधा की छवि देख, मचल गयौ साँवरिया।
हँस मुसकाय पे्रम रस चाखूं,
तोय नैनन बिच ऐसें राखूं,
ज्यौं काजर की रेख,
पड़ेंगी तोसे भामरिया।’
ऐसा भी नहीं कि यहाँ केवल प्रेम और शृंगार की ही बातें हुई हों, आम आदमी के सुख-दुख और उसके सामाजिक सरोकारों की बात भी ब्रज के लोक साहित्य का विषय बनी हैं। वर्षा के दिनों में कच्ची छतें अक्सर चूने लगती हैं। इस प्रकार जो पानी छत से टपकता है ब्रजवासी उसे टपका कहते हैं। बरसात के इस टपके से हर ग़रीब को डर लगता है। इसी डर को लेकर ब्रज की एक लोकोक्ति है—‘सेर ते जादा टपका कौ डर’।
इस लोकोक्ति का भाव यही है कि आम आदमी को जीवन में एक शेर के सामने होने से इतनी असुविधा नहीं होती जितनी बरसात के दिनों में छत से टपकते पानी से। लोक कथायें ऐसे प्रसंगों को भी कभी मार्मिक तो कभी हास्य के रंग में रँग कर इस तरह प्रस्तुत करती हैं कि बस देखते ही बनता है। इस लोकोक्ति से जुड़ी लोक-कथा को ही लीजिये:
`एक दिन एक कुम्हार का गधा खो गया। सारा दिन उसे खोजते-खोजते वह शाम को थका हारा घर वापस आया तो बरसात पड़ने लगी। पत्नी गधे के लिये चिन्तित हो रही थी तो कुम्हार को बरसात में कच्चे घर की चिन्ता सता रही थी। पत्नी ने आशंका व्यक्त की कि अगर गधा भटक कर आस-पास के जंगल में निकल गया तो कहीं उसे शेर न खा जाय, लेकिन उत्तर में कुम्हार के मुँह से निकल गया कि आज तो शेर से भी इतना भय नहीं जितना टपका से है। संयोग से कुम्हार के यह शब्द उस शेर के कानों में जा पड़े जो वर्षा से बचने के लिये ठीक वहीं छुपा हुआ था जहाँ रोज़ कुम्हार अपने गधे को बाँध कर रखता था। शेर विस्मय में पड़ गया। वह अत्यंत भयग्रस्त भी होने लगा। आज से पहले उसने ‘टपका’ न कभी देखा न सुना। अब तक तो सब उसी के नाम से डरते आये थे। पर आज कुम्हार को उसके मुक़ाबले ‘टपका’ से अधिक डर लग रहा था।
शेर को लगने लगा ‘टपका’ ज़रूर कोई उससे भी शक्तिशाली और ख़तरनाक जानवर है। अब शेर को ‘टपका’ का डर बुरी तरह सताने लगा। उधर शेर के पैरों की आहट कुम्हार ने सुनी तो उसने समझा गधा वापस आ गया। जल्दबाज़ी में उसने आव देखा न ताव, छड़ी उठाई और अँधेरे में शेर का कान पकड़ कर उसकी पीठ पर चढ़ गया। शेर पहले ही डरा हुआ था। उसे लगा ‘टपका’ आ गया। डर के मारे वह सीधा बाहर की तरफ़ भाग छूटा। बाहर के धुँधलके में ख़ुद को शेर की पीठ पर सवार देखा तो कुम्हार के भी पसीने छूटने लगे। अब शेर को ‘टपका’ का डर और कुम्हार को शेर का। दोनों की स्थिति गम्भीर। कुम्हार को सामने पेड़ दिखाई दिया तो उसने उचक कर डाल पकड़ी और पेड़ पर लटक गया। थोड़ा और सोचने लायक़ हुआ तो शेर से बचने के लिये उसी पेड़ की खोंतर (कोटर, वृक्ष के तने का खोखला भाग) में छुप कर बैठ गया। ‘टपका’ की कल्पना से आतंकित शेर भी वहाँ नहीं रुका। वह तो बदहवासी में दौड़ता चला जा रहा था।
मार्ग में मिले एक बन्दर ने जब उसकी ऐसी दुर्दशा का कारण पूछा तो शेर ने सारी आपबीती उसे बता दी। सुन कर बन्दर हँसने लगा। उसने समझाया कि शेर तो जंगल का राजा होता है। पूरे जंगल में उससे बलवान कोई दूसरा हो ही नहीं सकता। फिर यह ‘टपका’ कौन सा नया जन्तु पैदा हो गया। ज़रूर शेर को कोई भ्रम हुआ है। बन्दर किसी तरह समझा-बुझा कर शेर को वापस उस पेड़ तक ले आया जिसके खोखले तने में कुम्हार छुपा बैठा था।
चतुर बन्दर डाल-डाल पर खोज कर हार गया। जब कुम्हार उसे कहीं नहीं मिला तो वह भी उसी खोखले तने के द्वार पर थक कर बैठ गया जिसमें कुम्हार छुपा बैठा था। अब खोल में होकर बन्दर की पूँछ कुम्हार के सिर तक पहुँच रही थी। घबराये कुम्हार ने बन्दर की पूँछ को कस कर पकड़ लिया और ज़ोर लगा कर अन्दर खींचने लगा। ऊपर जब बन्दर दर्द के मारे खीं-खीं चिल्लाने लगा तो शेर को फिर से ‘टपका’ की याद हो आयी। ‘टपका’ के वापस आने से पहले ही वहाँ से भाग लेने में शेर को अपनी भलाई नज़र आने लगी और वह दोबारा जान बचा कर पूरी ताक़त से भागने लगा। इधर खींचते-खीचते बन्दर की पूँछ उखड़ कर कुम्हार के हाथ में आ गयी। अब बन्दर को भी विश्वास हो गया कि उस पेड़ पर कोई ‘टपका’ भी रहता है जो शेर से अधिक शक्तिशाली है। अन्त में बन्दर भी पेड़ से उतर कर भाग निकला। ‘टपका’ का डर उस पर भी हावी होने लगा था।
ब्रज की लोक-कथाओं के स्वरूप का अगर ठीक से विश्लेषण करें तो इनके साधारण कलेवर में कितने ही असाधारण ताने-बाने देखने को मिलेंगे। उपर्युक्त लोक-कथा भी पहली नज़र में केवल एक हास्य कथा लगती है। थोड़ा और आगे जायेंगे तो इसमें छुपा सन्देश भी आसानी से समझ में आयेगा।
किसी के कहे सुने पर आँख बन्द करके विश्वास कर लेने वाले का हाल ठीक वैसा ही होता है जैसा उस शेर का हुआ। ऐसे लोग अपने समझदार शुभचिन्तकों को भी बन्दर की तरह मुश्किल में डाल देते हैं। कहानी में ‘टपका’ का प्रयोग इतने सार्थक ढंग से हुआ है कि यह बात स्पष्ट हो जाती है कि न केवल आदमी, बल्कि जीव-जन्तुओं को भी टपका से सुरक्षा की आवश्यकता होती है। अन्त में कथा की तह तक जाते-जाते पता चलता है कि इसमें एक ग़रीब के दर्द का समावेश भी उसी सहजता से किया गया है जिस सहजता से मुक्त हास्य का।
वस्तुतः मुख्यधारा की कहानियों से हट कर लोक कथायें अनेक उद्देश्यों की पूर्ति एक साथ करती हैं। इनका यह बहुद्देश्यीय शिल्प ही सम्भवतः ब्रज की लोक-कथाओं का प्राणतत्व है।
परिनिष्ठित साहित्य से अलग लोक-साहित्य सच्चे अर्थों में जन भावनाओं को अभिव्यक्ति देता है क्यों कि यह दिखावे के किसी बन्धन को स्वीकार नहीं करता अपितु सीधा अंतर्मन से निकलता है और अंतर्मन तक ही जाता है। इसमें किसी लाग-लपेट के लिये कोई स्थान नहीं होता।
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार, “लोक शब्द का अर्थ मात्र जनपद या ग्राम नहीं है बल्कि नगरों, क़स्बों व गाँवों में फैली विराट् जनता है जिनके ज्ञान का आधार ज्ञान की पोथियाँ नहीं हैं।” ब्रज की अनेक लोकोक्तियाँ इस सत्य को पूरी तरह सिद्ध करती हैं। ‘सर्दी में मुट्ठी हीरा, गर्मी में मुट्ठी जीरा’ और ‘सौंठ मिर्च पीपर, इनैं खाय कै जी पर’ जैसी सीधी-सादी उक्तियाँ स्वस्थ जीवन के मंत्र सहजता से बता देती हैं, ऐसा सटीक मार्गदर्शन बिना ज्ञान के सम्भव नहीं और यह ज्ञान ऐसा है जो केवल मौखिक परम्परा से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचा है।
लोक साहित्य के चिरंजीवी होने में इस परम्परा का महत्त्वपूर्ण योगदान है। ब्रज के अनेकों लोकगीत भी इसी परम्परा के बल पर न केवल आज तक जीवित हैं अपितु ब्रज के बाहर भी अपनी पहचान बना चुके हैं। ब्रज के होली-गीतों की पहुँच आज विदेशों तक है, और फिर चाहे वे ब्रज के विवाह-गीत हों, होली-गीत हों या अन्य तीज-त्यौहारों पर गाये जाने वाले गीत, इन लोकगीतों में वह सब है जिसकी अपेक्षा किसी सार्थक साहित्य से की जा सकती है। देखिये, नवरात्रों के अवसर पर गाये जाने वाले ‘लाँगुरिया’ गीत में बृज-ललना अपनी सुकोमलता की चर्चा कैसी सरलता से कर रही है:
‘मोपै भवन चढ़ौ नाँय जाय
लँगुरिया एड़ी में धमक लगै पायल की।”
देवी माँ के भवन की सीढ़ियाँ चढ़ने में एड़ियों से टकरा कर पायल बाधा उत्पन्न कर रही है, ऐसा सरल शृंगार किस दूसरे साहित्य के पास उपलब्ध होगा?
ब्रज के विवाह समारोह से संबंधित एक लोकगीत वैदिक मंत्रों और लोकगीतों के इस समन्वय की झाँकी प्रस्तुत करता है। शुरूआत में ही एक ओर जब पुरोहित गणेश स्थापना के मंत्र पढ़ रहे होते हैं तभी वातावरण में बृज-वनिताओं की स्वर लहरियाँ भी गूँज रही होती हैं:
‘दुःख बिडारन तुम हो गणेसा,
एकदन्त दूजे सूँड़ बिराजै
गल सोहै फूलन की माला।”
जैसे-जैसे विवाह का समय नज़दीक आता है, दूर-दूर से नाते-रिश्तेदारों का आना-जाना प्रारंभ हो जाता है। आने वाले दूर से आभास करा देते है कि वे किसी विवाह समारोह में भाग लेने आये हैं। सारी महिलायें वातावरण की मधुरता का लाभ उठा कर अपनी शिकायतें सुनाते हुए गाती चलती हैं:
‘चिड़ी तोय चामरिया भावै
रे चिड़ी तोय चामरिया भावै,
घर में सुन्दर नार
बलम तोय परनारी भावै।”
ब्रज का यह विवाह-गीत नारी स्वातंत्र्य का अद्भुत उदाहरण है जहाँ एक नारी पुरुषों के सामने आ कर उलाहना देने का साहस कर पा रही है। ध्यान देने की बात है कि यह लोकगीत आज का नहीं उस ज़माने का है जब महिलायें घूँघट से बाहर भी चेहरा नहीं निकाला करती थीं।
लगुन (लग्न) के समय कन्या के घर जो लाड़ी गायी जाती है उसका सन्देश भी बड़ा सार्थक है और भाव बड़े मार्मिक। पराई होने से पहले बिटिया अपने बाबा से सोने के कुण्डल इसलिये माँगती है ताकि ससुराल में उसका मान बढ़े:
‘सौने कौ कुण्डल गढ़ाय मेरे बाबा
सजन पखारिंगे पाँय।’
इस सन्दर्भ में थोड़े में बहुत कुछ कहता बाबा का उत्तर दर्शनीय है:
‘गरब गहीली लाड़ो गरब न बोलौ
सोने कौ कुण्डल न होइये,
माटी कौ कुण्डल जमनाजल पानी,
कछु पखारे कछु सीस चढ़ावै,
कछु पनारे बह जाय री।’
बातों-बातों में अपनी बिटिया की तुलना यमुनाजल से करते हुए बाबा कहते हैं बेटी, ग़ुरूर से नहीं व्यवहार से व्यक्ति का मान होता है। कुण्डल सोने के हों या माटी के, अन्तर उपयोग का है। जल यमुना का होता है, पर कोई उससे हाथ धोता है, कोई शीष चढ़ाता है और कोई उसे नाली में बहा देता है।
लोक साहित्य की एक और प्राचीन विधा है ब्रज में गायी जाने वाली सपरी। गर्भस्थ शिशु के जन्म से पूर्व मातृत्व का सुख प्राप्त करने की उत्कंठा, घर के आँगन में वात्सल्य के फूल खिलने की उत्सुकता और प्रसव की असहनीय पीड़ा के भाव, एक माँ के मन में एक साथ करवटें लेते हैं। इन मार्मिक मनोभावों की सहज किन्तु सम्पूर्ण अभिव्यक्ति इस ‘सपरी’ में देखने को मिलती है:
‘है रही कमर दरदिया कैसे सपरी,
उठै कमर में दरद बलम
मैं कर रही उलटा पलटी,
सिगरी रात मरोरा मारे
तऊ काटे नाँय कटी,
मैं तो है गई रे दरदिया कैसे सपरी।
बारह बजे उतरि गई नीचैं पकरि खाट की पाटी,
घण्टा चारि बीति गये बैठे जब कहूँ पीरी काटी,
टाँगी द्वारे पै दरदिया कैसे सपरी।
भोर भयी जब चार बजे मुर्गा नै बाँग लगाई,
आयी पीर भयौ मेरे लल्ला खुसी करेजे छाई,
बिगरी छींट की चदरिया कैसे सपरी।’
सम्भवतः ऐसे गीतों को सुन कर ही पंडित रामनरेश त्रिपाठी ने कहा होगा कि ग्रामगीत प्रकृति के उद्गार हैं। इनमें अलंकार नहीं, केवल रस है! छन्द नहीं केवल लय है, लालित्य नहीं केवल माधुर्य है। ग्रामीण मनुष्यों के, स्त्री-पुरूषों के मध्य में हृदय नामक आसन पर बैठ कर प्रकृति गान करती है। प्रकृति के वे ही गान ग्रामगीत हैं।
(प्रस्तावना, कविता कौमुदी, भाग-5)
ब्रजलोक-गीतों में प्रकृति एवं पर्यावरण के सम्बन्ध में विस्तृत संज्ञान प्राप्त होता है। ब्रज-लोक-गीतों में होली का वर्णन तो प्रचुरता से मिलता ही है श्रावण मास का वर्णन भी न्यून नहीं:
अरी मेरी बहना, सामन की आइ बहार
झूला तौ घर-घर परि गये
सुघड़ सुहानो झूला रानी राधिका कौ,
ए जी कोई शोभा बरनी न जाय
लम्बे-लम्बे झोटा ले रही रानी राधिका जी,
ए जी कोई सखियाँ रही है झुलाय
ब्रज लोक साहित्य में बाल जीवन के अद्भुत मनोहारी दृश्य भी परिलक्षित होते है टेसू-झांझी का खेल अपने आप में विलक्षण है। टेसू ऐसा प्रतीत होता है कि यह किसी सिरकटे की कहानी है किन्तु यह राजा बब्रुवाहन का प्रतीकात्मक मिथ है।
ब्रज में आदि काल से ही शक्ति की प्रतीक दुर्गा देवी की सार्वभौमिक सत्ता की माँ के रूप में पूजा-अर्चना-उपासना की परम्परा रही है। चैत्र मास की वासन्ती एवं आश्विन मास की शारदीय नवरात्रों में देवी-शक्ति की पूजा हेतु महिलाओं द्वारा गाये जाने वाले मधुर लोक-गीतों की मिठास से वातावरण सुरभित हो जाता है।
ब्रज लोकसाहित्य श्रीराधा जी की स्तुति में अपने हृदय के भावों को नाना प्रकार से विलक्षण रूप में अभिव्यक्त करता है। डॉ. धीरेन्द्र वर्मा का कथन है कि “जिस समय महाप्रभु वल्लभाचार्य को बृज जाकर गोकुल तथा गोवर्धन को अपना द्वितीय केन्द्र बनाने की प्रेरणा हुई, उसी तिथि से ब्रज की प्रादेशिक बोली के भाग्य पलटे। सन्1556 ई. की बैशाख सुदी तीज, रविवार को श्री श्रीनाथ जी के विशाल मंदिर की नींव रखी गई थी। यही तिथि ब्रजभाषा के शिलान्यास की तिथि मानी जा सकती है।”
(गोकुल का सांस्कृतिक इतिहास, आनन्द वल्लभ षर्मा ‘सरोज’ पृष्ठ-168)
गोस्वामी हरिराय ने ब्रजभाषा में 52 ग्रन्थ लिखे, पुरुषोत्तम ने ख़्याल रचे, बृजभूषण ने नीति विनोद की रचना की, प्रसिद्ध अष्टछाप के अंतिम चार कवियों में से तीन गोविन्द स्वामी, छीतस्वामी तथा नन्ददास ने एवं बल्लभाचार्य के चार शिष्यों में से सूरदास और परमानन्ददास ने कृष्ण की बाल लीला के अनेक पद रचे, वहीं रसखान ने कृष्ण भक्ति में ओतप्रोत होकर अनेक कवित्त व सवैया रचे जो लोक में जन-जन की ज़ुबान पर रहते हैं:
मानुष हौ तौ वही रसखान
बसौ ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन
जो पशु हौं तौ कहा बस मेंरौ
चरौ नित नंद की धेनु मझारन
पाहन हौ तौ वही गिरि को
जो कियौ कर छत्र पुरंदर धारन
जो खग हौ तौ बसेरौ करौ
मिलि कालिन्दी कूल कदम्ब की डारन
ब्रजभाषा बड़ी सहज, सरल और मीठी बोली है इसलिए ब्रजभाषा के लोक-साहित्य में केवल ब्रज के ही साहित्यकारों ने अभिवृद्धि नहीं की अपितु बाहर के भी अनेक साहित्यकारों ने ब्रजभाषा लोक-साहित्य को समृद्ध किया है जिनमें भूषण केशव, देव, मीराबाई, भारतेन्दु हरिश्चंद, रत्नाकर आदि के साथ-साथ तुलसीदास जी ने विनय पत्रिका, कवितावली एवं दोहावली आदि की रचना ब्रजभाषा में की।
ब्रज के लोक साहित्य में मानव सम्बन्धों और रिश्ते-नातों पर भी बहुत कुछ लिखा गया। भाभी-देवर के स्नेह सम्बन्धों पर रानी चम्पा और हरदौल की कहानी बड़ी प्रसिद्ध है। हरदौल ने अपनी भाभी चम्पावती को हमेशा माँ की तरह देखा। उनके परस्पर मधुर व्यवहार की चर्चा दूर-दूर तक थी। लोग उनके आपसी प्रेम की मिसाल दिया करते थे, परन्तु घर-बाहर कुछ ऐसे ईर्ष्यालु भी थे जिन्हें यह सम्बन्ध फूटी आँख नहीं भाते थे।
एक बार मौक़ा देख कर किसी दरबारी ने राजा के मन में सन्देह के बीज डाल दिये। बुराई की बेल अच्छाई की तुलना में तेज़ी से बढ़ती है। राजा का मन भी तेज़ी से संशय के जाल में फँसने लगा और अंततः देवर-भाभी के संबन्धों की अग्नि परीक्षा लेने के विचार से उसने रानी चम्पावती को आदेश दिया कि वह अपने देवर हरदौल को अपने हाथों से ज़हर खिला दे।
रानी ने बहुत समझाया कि राजा, मुझ से गंगाजल उठवा लो, चाहो तो मेरी खाल खिंचवा लो, पर अपने निर्दोष भाई को ज़हर मत दिलवाओ। मेरे प्राण ले लो, मैं मर गई तो तुम्हें दूसरी रानी मिल जायेगी, पर हरदौल जैसा भाई फिर नहीं मिलने वाला।
राजा ने एक नहीं सुनी तो अन्ततः अपने सतीत्व की परीक्षा देने को विवश रानी ने भरे मन से अपने देवर को भोजन पर बुलाया। भोजन कराते समय अपनी भाभी की आँखों में उमड़ती गंगा-जमुना को देख कर हरदौल सब कुछ समझ गया। आख़िर वह भी तो उसी परिवार का सदस्य था। राजघरानों में होने वाले षड़यंत्रों और अत्याचारों से वह अच्छी तरह परिचित था।
‘बिस में सेकीं पूरियाँ
और बिस ही में राँधी खीर
राजा भातई रे’
भाभी ने रो-रो कर भोजन परोसा और देवर ने हँस-हँस कर खा लिया। न अपनी भाभी पर कोई लाँछन आने दिया, न उसके प्रेम की पवित्रता पर कोई आँच। प्रेम की पराकाष्ठा हो गयी। हरदौल दुनिया से चला गया पर देवर-भाभी के स्नेह सम्बन्धों की कहानी युगों-युगों के लिये अमर हो गयी।
ऐसा है ब्रज का लोक साहित्य, जिसने संवेदना के हर क्षण को अपने अन्दर सँजोया है। जीवन के हर उतार-चढ़ाव को जिया है और हर परिस्थिति पर अपनी पैनी नज़र बनाये रखी है, फिर चाहे वह ज्ञान-विज्ञान का मामला हो, घर गृहस्थ की बात हो, युद्ध का मैदान हो या आज़ादी की लड़ाई।
सन् सत्तावन के वातावरण का एक ओजपूर्ण चित्र आल्हा शैली की इस लोक रचना में देखिये:
‘सन् सत्तावन में भारत की गुस्सा गई सनाका खाय,
झाँसी वारी रानी ने लई तेज दुधारी हाथ उठाय,
दन-दन गोला-गोली छूटें धाँयं-धाँयं तोपें दन्नायं
कट-कट मूड़ गिरैं धरती पै
देख फिरंगी दहशत खायं।’
इसी तरह होली का यह गीत हँसी-ठिठोली के माध्यम से सांसारिक जीवन की असलियत पर करारा व्यंग्य करते हुए बहुत कुछ कहता है:
‘चलै मरोरा की चाल दिखावै रंग ज्वानी कौ,
झरि गई ज्वानी परि गई सलवट लोग करें बदनाम,
गयौ मिसरी कौ स्वाद रह्यौ गुड़धानी कौ।’
राग-अनुराग और मौज-मस्ती के साथ-साथ सजग संवेदनायें प्रत्येक ब्रजवासी के मन में कूट-कूट कर भरी होती हैं, अतः ब्रज के लोक साहित्य में भी इन तत्त्वों का समावेश प्रचुर मात्रा में हुआ है। इसके अतिरिक्त ब्रज की ललनाओं की भावुकता, बुद्धिविलास और चपलता के रंग जहाँ इस साहित्य को और रमणीयता प्रदान करते हैं वहीं उनकी श्रद्धा और भक्ति का स्पर्श इन्हें और अधिक ग्राह्य और प्रभावपूर्ण बना देता है।