स्त्री का अनबूझा संसार

15-01-2025

स्त्री का अनबूझा संसार

डॉ. हेतु भारद्वाज  (अंक: 269, जनवरी द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

समीक्षित कृति: औघड़ का दान एवं अन्य कहानियाँ
कृतिकार: प्रदीप श्रीवास्तव
प्रकाशक: भारतीय साहित्य संग्रह, 109/108, नेहरू नगर, कानपुर
प्रकाशन वर्ष: 2024

यह चर्चा है वरिष्ठ कहानीकार प्रदीप श्रीवास्तव के कहानी संग्रह ‘औघड़ का दान एवं अन्य कहानियाँ’ पर। श्रीवास्तव जी के अनुभव के सागर के कुछ चुने हुए मोती। अलग-अलग कलेवर में संग्रह में सात कहानियाँ संकलित है, जो समाज के विभिन्न रूपों को हमारे सामने रखतीं हैं। पहली कहानी ‘भगवान की भूल’ एक ऐसी लड़की की कहानी है जो अपने बौनेपन से बड़े समाज के बौनेपन से जूझती है। अतिसुन्दर माँ और बाप की इकलौती संतान, अठारह वर्ष की होने पर भी तीन वर्ष से ज़्यादा की नहीं लगती। प्रताड़ना भरे जीवन से दुखी वह सोचती है “वक़्त के साथ पापा की बढ़ती चिड़-चिड़ेपन और आये दिन बेवजह ही उनकी गाली-गलौच मुझे बहुत तकलीफ़ देती। मेरा मन करता कि सारी तकलीफ़ों की जड़ मैं हूँ तो आख़िर मैं मर ही क्यों नहीं जाती। कई बार मन में आत्म-हत्या करने की भी बात आती। मगर माँ का ममता से लबालब भरा चेहरा क़दम उठने ही न देता।”

इस प्रकार की परिस्थितियों से गुज़रती लड़की के लिए जवानी एक अभिशाप से कम नहीं थी। विवाह व बच्चे जैसे विचार तो उसके मन में आये भी ही नहीं। उसके एक मित्र व उनकी माता द्वारा उसे जब न्यूड आर्ट की बात कही गयी तो समझ नहीं पाई कि यह अवसर उसके लिए सुख की अनुभूति है या दुःख की। एक आम मध्यमवर्गीय किशोरी की भाँति उसकी दृष्टि भी इस ओर अच्छी नहीं थी पर उसकी मित्र की माँ अंततः उसे यह समझाने में सफल हो गयी कि कला नैतिकता से मुक्त होती है। “नग्न अवस्था में घंटों रहने के बाद भी आर्ट सिर्फ़ आर्ट रहती है। काम भावना की ज्वाला भी नहीं क्योंकि इस ज्वाला के रहते तो आर्ट हो ही नहीं सकती। तब मैंने आंटी से मज़ाक़ में ही कहा था, ‘आंटी मैं इन लोगों से मिलना चाहूँगी . . .’ उनके हिसाब से मेरी पेंटिंग तहलका मचा देगी। करोड़ों रुपये में बिक जाये तो आश्चर्य नहीं। क्योंकि मेरा बौना शरीर तमाम लड़कियों के शरीर से भिन्न है। अंग टेढ़े-मेढ़े न होकर सीधे सुडौल है। भरे पूरे स्तन, नितम्ब, जाँघें सब मेरी न्यूड पेंटिंग को ऐसा आश्चर्यजनक कृति बना देगी कि यह न सिर्फ़ करोड़ों में बिकेगी बल्कि मैं दुनिया में प्रसिद्ध हो जाऊँगी।”

प्रसिद्ध होना उस व्यक्ति के लिए क्या महत्त्व रखता है जो कभी किसी से प्रशंसा भी प्राप्त न कर पाया हो, जिसके कारण उसके माँ-बाप को शर्मिन्दा होना पड़ा हो, पाठक स्वयं समझ सकता है। दुःख और यंत्रणाओं से भरे जीवन में माँ-बाप की मृत्यु और अपने ड्राइवर डिंपू की करतूत उसे पूरी तरह तोड़ देती है। जिस नौकर पर विश्वास किया उसे वह अपना सम्पूर्ण सौंप देती है और विवाह का विचार भी कर लेती है। किन्तु वह तो पहले से विवाहित और चार बच्चों का पिता था। पर कहानी की सबसे बड़ी ख़ूबसूरती यह है कि तमाम मुश्किलों के बाद भी लड़की जीवन से विमुख नहीं होती, किसी पर निर्भर नहीं होती। वह ख़ुद यह साबित करके दिखाती है कि वह ‘मिस्टेक ऑफ़ गॉड’ नहीं बल्कि ‘वण्डर्स ऑफ़ गॉड’ है। 

अगली कहानी का शीर्षक है ‘दीवारें तो साथ हैं’ वृद्ध विमर्श पर केन्द्रित है अद्भुत कहानी। यह कहानी किसी प्रकार से वृद्धों की स्थिति को कमज़ोर साबित नहीं करती बल्कि उनकी समझदारी व शालीनता को प्रकट करती है। यहाँ पाठक को वृद्धों पर दया नहीं आती बल्कि पाठक उनमें अपना भविष्य देखता है “आप सही कह रही हैं। समय के साथ परिवर्तित स्थितियों को समझना जितना ज़रूरी है उससे कहीं ज़्यादा महत्त्वपूर्ण है उनके अनुसार अपने आचार-व्यवहार, मन, कार्यशैली, जीवनशैली में भी परिवर्तन लाना। जड़वादी सोच से बचना। मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि आपने जीवन संध्या के वक़्त मुझे ग़लत क़दम उठाने से बचा लिया। आपको इसके लिए धन्यवाद देता हूँ।”

कहानी की ख़ूबसूरती उसमें भी है कि यहाँ वृद्धा से ज़्यादा दुःखी वे वृद्ध पात्र हैं जो पुरुषों को अधिक कठोर मानते हैं, धारणा का खण्डन करती है “वो क्या कहेंगे। बाप हैं और उससे भी ज़्यादा यह कि वह एक मर्द हैं। बस अंदर ही अंदर घुलते हैं। मुझे लगता है कि वह मुझसे ज़्यादा व्यथित रहते हैं, लेकिन मुँह नहीं खोलते। जब कभी कुछ कहती हूँ तो डाटकर चुप करा देते हैं। मगर इस बीच उनकी भरी हुई आँखें मुझसे नहीं छिप पातीं। उनके अंदर चलती उथल-पुथल उनके सिसकते हृदय की आवाज़ मैं साफ़ सुनती हूँ। उनकी बेबसी मुझे अंदर तक छीलकर रख देती है। फिर उनकी और अपनी दोनों की बेबसी पर आँसू बहाकर किसी कोने में ख़ुद को सांत्वना देने के अलावा मेरे पास कुछ नहीं बचता।”

‘मम्मी पढ़ रही है’ शीर्षक कहानी एक अनूठा प्रयोग है। पर परम्परावादी पाठक के लिए नहीं, लेखक के संग्रह की पहली ही कहानी ने कला को नैतिकता के घेरे से मुक्त कर दिया है। प्रस्तुत कहानी भी उसी की अगली कड़ी है। शीर्षक से ही लगता है कि यह नारी के संघर्ष की कहानी है, एक नये प्रकार के स्त्री सशक्तीकरण की ओर संकेत करती है। 

कहानी दो सहेलियों को घेरे में रखकर रची गयी है: शिवा और हिमानी। अपने बेटे के ट्यूशन को लेकर हिमानी शिवा से चर्चा करती है और शिवा उसके घर वही युवक भेज देती है जो उसके बच्चे को पढ़ाता है। इस युवा से बच्चे के साथ-साथ माँ भी पढ़ती है। इसी क्रम में हिमानी और टयूटर के बीच अवैध सम्बन्ध बन गया। यहाँ कहानीकार वैध और अवैध की एक नयी परिभाषा हमारे सामने रखते हैं क्योंकि रज़ामंदी से किया काम अवैध की श्रेणी में कैसे आयेगा? क्या स्त्री की देह सिर्फ़ नैतिकता के ही पैमाने से ही मापी जाएगी? ‘हर क्षण एक बदलाव भरा अनुभव, खुलापन उसकी ज़िन्दगी है, उसने इन चंद दिनों में ही बता दिया, करके दिखा दिया कि हमारे पति ही थकाऊ, एकरस ज़िन्दगी के लिए ज़िम्मेदार नहीं हैं बल्कि हम भी इसके लिए बराबर के ज़िम्मेदार हैं, बल्कि हम लोग ज़्यादा हैं। 

“-क्या? 
-हाँ ज़रा सोचो न हम लोग क्या करते हैं, अपने पतियों के साथ एकांत क्षणों में? अभी शादी के दस साल भी नहीं हुए, लेकिन ज़रा सोचो कितनी बार खुलकर बिस्तर पर साथ हुए। अपने मन की करते हैं या जो पति कहते हैं वो करते हैं। बस एक ही रटी-रटाई ज़िन्दगी रोज़ जीते हैं। परिणाम यह होता है कि चंद बरसों में ही हम बोर हो जाते हैं। चीखते चिल्लाते हैं बच्चों पर। एक चिड़चिड़ी ज़िन्दगी जीते हैं।” पाठकों की सोच के विपरीत हिमानी द्वारा पकड़े जाने पर इस तरह की बातें कहना आश्चर्य से भरा लगता है और कहानी अपने चरम बिन्दु पर तब आ जाती है जब हिमानी न केवल कहती है बल्कि वह अपनी सहेली शिवा को भी अपनी योजना में शामिल कर जीवन का सुख भोगने की बात कहती है। पाठकों की आशा के विपरीत शिवा भी उसे स्वीकार कर लेती है। फिर वे तीनों मज़े की उस दुनिया की सैर करेंगे, जिसकी सिर्फ़ कल्पना ही की थी। हिमानी कहती है, “जब तक तुम आओगी नहीं तब तक तुम खोई-खोई सी रहोगी। रातभर सो न सकोगी। पति की बाँहों में होगी तो भी कल जल्दी आये इसके लिए तड़पती रहोगी। तुम्हारा चेहरा यही सब कह रहा है।”

‘औघड़ का दान’ कहानी मानवीय मन में छुपे उस औघड़ को सामने लाती है जो हर कार्य और क्षेत्र में आपका सम्बल होता है। प्रथम दृष्टया यह प्रतीत होता है कि यह तंत्र-मंत्र को सही ठहराने वाली कहानी है। “प्रक्रिया के संपन्न होने की बात कहने के लहजे और बाबा की शारीरिक भाव भंगिमाओं का आशय सोफी लगभग समझ गई थी। उसने बिना एक क्षण गँवाये, साफ़-साफ़ कहा, आप प्रक्रिया संपन्न करें। बाबा जी, मुझे बस पुत्र चाहिए, जीवन का सुकून चाहिए। इसीलिए तो आई हूँ।” सोफी नामक पात्र किशोर अवस्था में प्रेम में पड़ एक ऐसे व्यक्ति का चुनाव कर लेती है जो उसके शरीर भर से प्रेम करता है। विवाह के बाद तीन लड़कियों के लिए भी अपनी पत्नी को ही ज़िम्मेदार ठहराता है। हाथ टूटने पर भी पति क्रूरता करता है। अंतत: सोफी एक बाबा से मिल पुत्र का आशीर्वाद प्राप्त करती है। वह पुत्र को जन्म देती है, पर पति के यह कहने पर कि एक पुत्र तो एक आँख है मुझे दूसरा भी चाहिए। सोफी समझ जाती है कि दुनिया का कोई भी बाबा उसे उस दलदल से नहीं निकाल सकता जो उसने किशोरावस्था में स्वयं चुन लिया है।”

कहानी ‘पॉलिटेक्निक वाले फुटओवर ब्रिज पर’ श्वेतांश नामक एक युवक की कहानी है। वह अपना घर छोड़कर नौकरी के लिए लखनऊ आता है और ठगा जाता है। फुटओवर ब्रिज ही उसके दो महीनों का साथी बनता है। वह इस ब्रिज से एक अलग सा जुड़ाव महसूस करता है, क्योंकि इसी ब्रिज ने न केवल उसको आश्रय व रोज़गार दिया, रूहाना से प्यार यहीं मिला। ब्रिज उसके लिए अमानवीय नहीं सजीव मित्र की भाँति है जो उसके अच्छे-बुरे समय का गवाह है। 

अगली कड़ी के रूप में ‘उसे अच्छा समझती रही’ कहानी है जिसके केन्द्र में एक मज़दूर है। यह मज़दूर एक सज़ा पाया मुजरिम है जो रेप, हत्या और चोरी कर चुका है। रेप की बात सिर्फ़ वही जानता है क्योंकि मालिक ने रेप की रिपोर्ट लिखवाई ही नहीं। मज़दूर नमक से रोटी खाकर अपनी इन्द्रियों पर नियंत्रण रखता है, जो उससे यह कार्य करवा चुकी हैं। मानव के मन के कई चित्र यह कहानी उकेरती है और वह भी कि क्षणिक आवेश किस प्रकार मनुष्य का पूरा जीवन बरबाद कर देता है। कहानी अच्छे तरीक़े से प्रस्तुत करती है। 

संग्रह की अन्तिम कहानी है ‘कौन है सब्बू का शत्रु’। यह कहानी सब्बू नामक एक ऐसे भिखारी की है, जो खलनायक के रूप में हमारे सामने उपस्थित होता है। वह नशा करता है, लोगों को ठगता है, लड़कियों से जिस्मफरोशी करवाता है और स्मगलिंग भी करता है। सब्बू यहाँ तक कैसे पहुँचा? उसका असली गुनहगार कौन है? पूरी कहानी इसी प्रश्न पर बुनी गयी है। अपने सौतेले पिता द्वारा स्टेशन पर छोड़कर चले जाने पर यातनाएँ झेलता हुआ सब्बू अनाथालय पहुँचता है और उसके जीवन के नये अध्याय का आरम्भ होता है। “उसकी नाक भी यौन शोषण के दौरान चोटिल हुई। गम्भीर चोट के कारण हमेशा के लिए टेढ़ी हो गई। ऐसे ही भूख-प्यास, मारपीट, यौन शोषण के बीच वह चौदह-पन्द्रह साल का हो गया। अन्त में पैर कट जाने पर भिखारी बनने पर विवश हुआ। इस प्रकार के जीवन ने उसे ऐसा क्रूर बना दिया कि वह नशे और जिस्मफरोशी जैसे कृत्यों से भी बढ़कर ऐसे काम करने लगा जो किसी भी सामान्य मनुष्य के लिए अकल्पनीय हो जाएँ। कुछ देर हँसने के बाद बोला, “लड़कियाँ देती हैं, लड़कियाँ।” मैं आश्चर्य में पड़ गया कि क्या लड़कियाँ ख़ून देती हैं? वह फिर से पहले की तरह हँसकर बोला, “इतनी लड़कियाँ हैं, रोज़ एक को ब्लेड से चीरा लगाता हूँ, उसी से काम भर का ख़ून लेकर अपनी दवाई भिगो लेता हूँ। बाक़ी इस पट्टी को चटा देता हूँ।” सब्बू पहले ही हालातों का मारा रहा, आगे चलकर ख़ुद भी शोषण करने की कड़ी का ही हिस्सा बन गया। 

हम इस संग्रह में अलग-अलग रंग की कई कहानियों को पाते हैं जिसमें हर कहानी अपने आप में अलग व अनूठी हैं। श्रीवास्तव जी अपनी कहानियों में उस समाज का चित्रण करते हैं जो कोरी कल्पनाओं में नहीं बल्कि यथार्थ की ठोस धरती पर है। समस्याएँ ही नहीं उनके समाधान भी यहीं हैं जो एक आम इंसान अपनाता है। 

संग्रह की हर कहानी भाव व शिल्प को प्रगाढ़ता देती है। किसी भी पात्र के संवाद अटपटे नहीं लगते बल्कि उतने ही सजीव व सहज हैं जितना हमारा दैनिक वार्तालाप हो सकता है। सभी कहानियाँ अपनी पठनीयता में स्तरीय हैं। 

(डॉ. हेतु भारद्वाज) 
ए-243, त्रिवेणी नगर
गोपालपुरा बाईपास, जयपुर-302018
मो. 09521446162
aksar.tramasik@gmail.com

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