(रचनाकालः 1961)
प्रेषक: अमिताभ वर्मा
दस साल बाद भी मैनेजर बाबू ने मुझे तुरन्त पहचान लिया। मुझे देखते ही वे कुर्सी छोड़ कर उठ खड़े हुए और हँसते हुए आगे बढ़ कर उन्होंने मुझसे हाथ मिलाया। इन दस वर्षों में बुढ़ापे ने मैनेजर बाबू पर अपना असर दिखा दिया है - उनके चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ गयी हैं, तीन-चौथाई केश सफेद हो गये हैं, आगे के तीन-चार दाँत भी अपने साथियों को बिलखता छोड़ गये हैं। परन्तु उनका व्यवहार वैसा ही मधुर है, बल्कि उम्र के वार ने मिठास को थोड़ा और गाढ़ा कर दिया है।
मेरा हाथ पकड़े-पकड़े ही वे चिल्लाये - "अरे मंगरू! आ जल्दी! टैक्सी से सामान उतार!" फिर, मुझे साथ ले जाकर उन्होंने अपने सामनेवाली कुर्सी पर बिठा दिया।
तभी मंगरू अन्दर से भागा-भागा आया। मुझे देख कर वह एक क्षण को ठिठका, मानो अपनी याद्दाश्त ठीक कर रहा हो। फिर, थोड़ा मुस्करा कर उसने मुझे सलाम किया और टैक्सी की ओर बढ़ गया। यह मंगरू कितना बदल गया है! अब वह छोकरा मंगरू नहीं है, पूरा जवान बन गया है। मेरी दुगुनी उसकी काया हो गयी है।
मैनेजर बाबू भी उसके साथ-साथ गये। अपनी निगरानी में उन्होंने मेरा सामान उतरवाया, फिर वहीं से चिल्ला कर मुझसे पूछा - "दो ही हैं न?" मेरे स्वीकृतिसूचक सिर हिलाने पर वे टैक्सी-ड्राइवर सरदारजी की ओर मुख़ातिब हुए - "कितने पैसे हुए, जी?"
सरदारजी मीटर देख कर पहले से ही तैयार बैठे थे, तुरन्त बोले - "दो रुपये छः आने!"
"आओ, ले जाओ!" - बोल कर मैनेजर बाबू अपनी कुर्सी पर आ गये और जब तक मैं पर्स निकालूँ, तब तक उन्होंने सरदारजी को भाड़ा दे कर विदा कर दिया। अब तक मंगरू भी होलडाल कंधे पर रखे और सूटकेस हाथ में टाँगे सामने आ खड़ा हुआ था। मैनेजर बाबू ने उसका आशय समझ लिया, कहा - "सात नम्बर। और देख, कमरा ठीक से साफ-सुथरा कर देना!"
मंगरू ने सिर हिलाया और अन्दर चला गया।
अब मैनेजर बाबू ने अपने चिरसाथी पान के सफ़ेद चमकते हुए डिब्बे को निकाला और मेरी ओर बढ़ा दिया। मैंने सधन्यवाद एक पान निकाल कर मुँह में डाला। मैनेजर बाबू ने भी एक पान पर कृपा की और फिर दोख्ते की शीशी मेरी ओर बढ़ायी। मेरे माफी चाहने पर उन्होंने अकारण ही हँसते हुए अपनी दायीं हथेली पर दोख्ते की एक अच्छी-खासी मात्रा उड़ेली और पलक झपकने-भर की देर में उसे मुँह में डाल कर कहा - "आखिर, दर्शन तो दिये आपने! आज सुबह से ही दायीं आँख फड़क रही थी। मैं भी सोचूँ कि क्या होनेवाला है! ... "
मैंने मुस्करा-भर दिया।
"सचमुच, ईश्वर की लीला अपरम्पार है।" - वे बोलते गये - "इस जीवन में आपसे फिर मुलाक़ात होगी, कौन कह सकता था। पर देखिए, हो गयी मुलाकात! इतना पुण्य शेष था मेरा।"
उनका अन्तिम वाक्य सुन कर मैं लाज से गड़-सा गया। एक पल को समझ में नहीं आया कि क्या कहूँ, पर शीघ्र ही बुद्धि काम दे गयी; बोला - "आप भी क्या कह रहे हैं, मैनेजर बाबू! यह तो मेरा सौभाग्य है कि आपके दर्शन का सुयोग मिला।"
"भाई, आपकी बात तो आप जानें। मैं सिर्फ अपनी जानता हूँ। कह नहीं सकता, आज मुझे कितनी ख़ुशी हो रही है। इस होटल में मैंने बीस साल काट दिये, पचपन का होने को आया, लेकिन याद नहीं पड़ता, आप-जैसा एक भी दूसरा बोर्डर यहाँ आया हो!" - उनके स्वर में हर्ष और गम्भीरता का अद्भुत मिश्रण था।
"यह तो आपकी महानता है, जो ... "
"ख़ैर, जाने दीजिए इसे। आपको विश्वास थोड़े ही होगा मेरी बात का!" - उन्होंने मेरी बात पूरी होने से पहले ही काट दी और पूछा - "यह बतलाइए कि इस बार कितने दिन आपका सत्संग मिलेगा?"
"काम तो सिर्फ दो-तीन दिनों का है, पर ठहरूँगा एक सप्ताह!" - मैंने जवाब दिया।
"बस?" - स्पष्टतः मैनेजर बाबू को इतने से सन्तोष नहीं हुआ था।
"क्या करूँ! और ठहरने की गुंजायश नहीं है, अन्यथा आपका साथ छोड़ने को भला किसका जी चाहेगा। ... " फिर तनिक रुक कर मैंने पूछा - "अच्छा, पुराने नौकरों में से अभी कौन-कौन है? मंगरू को तो देखा! अच्छा-खासा जवान हो गया है। ... "
"हाँ, पुरानों में बस यह मंगरू ही रह गया है!" - उत्तर मिला।
"जुग्गा, खेलावन, सब चले गये?" - मैंने पूछा।
"हाँ, इन लोगों का क्या! जहाँ चार पैसे ज़्यादा मिले कि खिसक लिये! ... यह मंगरू ही, पता नहीं कैसे, अब तक टिका हुआ है!"
"और, वह कहाँ गयी - सोनी?"
"सोनी?" - मैनेजर बाबू की आँखें एकाएक चमक उठीं - "उसने तो चमत्कार कर दिखाया, भाई! आपको विश्वास नहीं होगा उसकी कहानी सुन कर!"
"अच्छा?" - सोनी ने ऐसा क्या चमत्कार कर दिखाया था, यह जानने को मैं व्यग्र हो उठा।
"हाँ, साहब! बिल्कुल चमत्कार कर दिखाया उसने। ऐसी लड़की भी मैंने, बस, एक ही देखी!" - मैनेजर बाबू ने एक ठंडी साँस भरी।
उधर मैनेजर बाबू भूमिका बाँध रहे थे, इधर मेरी व्यग्रता किनारे तोड़ रही थी। एक क्षण की भी देर मेरे लिए असह्य हो रही थी। अतः मैनेजर बाबू की भूमिका पर "फुलस्टाप" डालने के इरादे से मैंने पूछा - "लेकिन ऐसा भी क्या कर दिया उसने?"
मैनेजर बाबू के ललाट पर कुछ शिकनें उभरीं, फिर उन्होंने कहना शुरू किया - "मेरा ख़याल है, आपके जाने के कुछ समय बाद - हाँ, आपके जाने के बाद ही - मुझे उसके पढ़ने-लिखने की बात मालूम हुई थी। ... तो, साहब अचानक उसने पढ़ाई-लिखाई शुरू कर दी। रात को होटल का काम-काज ख़त्म करने के बाद वह देर तक बैठी पढ़ती रहती। दोपहर में भी काम-काज ख़त्म करने के बाद वह अपनी कोठरी में बन्द होकर पढ़ाई शुरू कर देती। बीच-बीच में आकर कभी-कभी मुझसे कुछ पूछताछ भी जाती। और भाई विश्वास मानिए, चौथे साल ही उसने मैट्रिक पास कर लिया। हम सब अवाक् ताकते रह गये। फिर, हमारे देखते-देखते ही उसने कालेज में नाम लिखाया और कहीं पार्ट टाइम क्लर्क की नौकरी कर ली। अभी दो साल पहले उसने बी.ए. भी पास किया और अब यहीं लड़कियों के एक हाई स्कूल में टीचर है। ... यह सब क्या चमत्कार नहीं है? कौन कह सकता था कि वह गँवारिन इस तरह गुदड़ी का लाल साबित होगी - सोनी "स्वर्णलता" बन जाएगी? इसीलिए तो मैं कहता हूँ, ईश्वर की लीला अपरम्पार है। पलक-मारते राई पर्वत बन जाए और पर्वत राई!" - मैनेजर बाबू ने अपनी बात समाप्त की।
परन्तु मेरे मुँह से एक शब्द तक न फूटा। उस बर्तन माँजनेवाली, झाड़ू देनेवाली, सोनी ने सचमुच चमत्कार कर दिखाया था। अपने मज़बूत हाथों से उसने क़िस्मत के घोड़े की लगाम मोड़ दी थी! मेरी आँखों के सामने उसका दस साल पहले का, झाड़ू देते समय का, चित्र आया। फिर, अचानक वह चित्र लुप्त हो गया और एक नया चित्र सामने आया - सयानी-सयानी लड़कियों से खचाखच भरे क्लास में एक भद्र महिला पढ़ा रही है। सोनी! स्वर्णलता! मैं आत्मविस्तृत-सा बैठा रहा - भावनाओं के झंझावात मानस को अस्त-व्यस्त करते रहे।
तभी अचानक मैनेजर बाबू के यह शब्द सुनाई पड़े - "उसमें परिवर्तन भी बहुत आया है। अक्खड़ता तो नाममात्र को नहीं रह गयी। तड़क-भड़क, साज-सजावट से भी उसका मन बिल्कुल फिर गया है। बस, एक सफ़ेद साड़ी और सफ़ेद ब्लाउज़ देख कर विधवा होने का शक हो जाता है। 29-30 साल की क्वाँरी लड़की और यह वैराग्य! ...," वे थोड़ा रुके, फिर बोले - "चलिएगा एक दिन, मिला दूँगा उससे। उसे भी आपसे मिल कर, निश्चय ही, बड़ी ख़ुशी होगी।"
मैनेजर बाबू के इस प्रस्ताव पर मैं चौंक पड़ा, पर तुरन्त ही अपने को सम्भाला और कहा - "हाँ-हाँ, क्यों नहीं। ऐसी लड़की से भला कौन नहीं मिलना चाहेगा।"
कहने को यह बात मैं कह तो गया, पर मेरा दिल बुरी तरह काँप उठा। एक बड़ा-सा प्रश्नचिह्न मेरे सामने आ उपस्थित हुआ।
बस, एक-दो मिनट और मैं वहाँ रुका, फिर अपने कमरे में चला आया। पर प्रश्नचिह्न ने मेरा पीछा नहीं छोड़ा। सारा दिन बीत गया और इस समय रात के बारह बज रहे हैं, पर प्रश्नचिह्न अब भी मेरे सामने उपस्थित है। कोई जवाब मुझे नहीं सूझ रहा है। नींद भी दग़ा दे गयी है - शायद प्रश्नचिह्न की उपस्थिति में वह आएगी भी नहीं। इसीलिए मुझे आपकी मदद की ज़रूरत है। शायद आप कोई जवाब ढूँढ़ सकें। लेकिन पहले आपको पूरी बात बता दूँ। तभी तो आप प्रश्न की गम्भीरता को समझ सकेंगे और एक योग्य परामर्शदाता की भाँति मेरा मार्ग-प्रदर्शन कर सकेंगे।
दस साल पहले भी मैं कलकत्ते आया था - अपनी नौकरी की ट्रेनिंग के सिलसिले में। नया-नया ही नौकरी में घुसा था, सो तीन ही महीने की ट्रेनिंग के लिए यहाँ भेजा गया था। सफ़ाई और वातावरण को देखते हुए यह होटल मुझे काफी सस्ता लगा था और यहीं मैंने वे तीन महीने गुज़ारे थे।
तो, इस होटल में आने के पहले दिन ही डाइनिंग हॉल में मुझे एक लड़की के दर्शन हुए। नौकरानी थी, जूठन उठाती थी, तो क्या हुआ - थी तो 19-20 साल की लड़की ही। गेहुआँ रंग था, भरी देह थी, अच्छा नाक-नक़्शा था। सो, उस पर मेरी नीयत डोल गयी। मेरी अवस्था उस समय 24-25 की थी, फिर क्वाँरा भी था (वह मैं अब भी हूँ); अतः नीयत नहीं डोलना ही आश्चर्य की बात होती। मैं उसे एकटक निहारता रहा। वह जूठी थालियाँ उठा रही थी। यह काम करते-करते ही उसने अपनी आँखें ऊपर उठायीं, एक शान्त-निर्भाव दृष्टि मुझ पर डाली और फिर थालियाँ ले कर चली गयी। उसके जाने के कुछ देर बाद 14-15 साल का एक छोकरा मेरे लिए खाना ले आया। यह मंगरू था। बड़ा ही हँसमुख लड़का - चंद घंटों में ही वह मुझसे काफी हिल गया था। मैं खाना खाने लगा, पर आँखें बराबर दरवाज़े को पार कर आँगन की तरफ लगी रहीं, जिधर वह गयी थी - जिधर बावर्चीख़ाना था और जिधर नौकरों का जमाव रहता था। मुझे उम्मीद थी कि वह फिर किसी बहाने डाइिनिंग हॉल में आएगी, या आँगन से गुज़रते समय मुझे चोरी-चोरी देखेगी, पर ऐसा कुछ न हुआ। वह न दिखी। हाँ, जब मैं खाना ख़त्म कर चुकने के बाद आँगन में हाथ धोने गया, तो वह डाइनिंग रूम में जाती ज़रूर दिखी। पर उसने देखा नहीं मेरी तरफ। मैं भी चुपचाप हाथ धो, सीढ़ियाँ चढ़, ऊपर अपने कमरे में आ गया।
कमरे में आने के बाद भी मेरे दिमाग पर वह लड़की छायी रही। मैं सोचता रहा उसके बारे में। पर उसके बारे में सोचने को था भी क्या मेरे पास? सिर्फ यही सोचता रहा कि हो-न-हो, होटल-मालिक ने इसीलिए इस लड़की को यहाँ रखा है कि लोग आकर ठहरें, उन्हें "किसी" चीज़ का अभाव न हो - ज़रूर ही यह लड़की उन बोर्डरों के साथ रातें बिताती होगी, जो उसकी कामना करते होंगे। यह सोच कर मन को थोड़ी शान्ति भी मिली और व्यथा भी। शान्ति इसलिए कि वह सहज ही उपलब्ध हो जाएगी और व्यथा इसलिए कि और लोगो ने भी उसका उपभोग किया होगा और मेरे सामने या मेरे बाद भी करेंगे।
लगभग दो घंटे बाद, यानी तीन बजे के आसपास, मंगरू मेरे पास आया। उसे देख कर मुझे न-जाने क्यों बड़ी खुशी हुई। मैंने लेटे-लेटे ही कहा - "बैठ मंगरू!"
मंगरू चुपचाप फर्श पर बैठ गया।
अब मैंने बातचीत शुरू की - "खाना-पीना हो गया?"
"हाँ सा’ब, एक घंटा आराम है।" - एक निरीह-सी मुस्कान उसके अधरों पर तैरने लगी।
"यहाँ तुम कितने दिन से हो?" - मैंने पूछा।
"एक साल से ऊपर ही हुआ होगा!" - उत्तर मिला।
"तनख्वाह क्या मिलती है?"
"आठ रुपये!"
"तुम्हारे घर में कौन-कौन हैं?"
"सब कोई हैं - माँ, बाबा, दो भाई और तीन बहनें।"
"तुम्हारे बाक़ी भाई कितने बड़े हैं?"
"सबसे बड़ी मेरी बहन है - उसके दो-तीन बच्चे भी हैं। फिर मैं हूँ। मुझसे दो साल छोटी एक बहन है, फिर एक भाई है, फिर एक बहन और फिर एक भाई।" - मंगरू ने पूरा विवरण दिया।
"तुम्हारे बाबा क्या करते हैं?"
"छोटा-सा खेत है, उसी में लगे रहते हैं।"
"तब तुम्हें नौकरी करने की क्या ज़रूरत आ पड़ी? तुमने पढ़ा-लिखा क्यों नहीं?"
"पढ़ा था, तीसरी क्लास तक पढ़ा था। उसके बाद पढ़ने के लिए आसपास कोई स्कूल ही नहीं था। सबसे नज़दीक जो स्कूल था, वह चार कोस दूर था। उतनी दूर जा कर कैसे पढ़ता, सो नौकरी कर ली।"
"ओ! ... अच्छा, वह लड़की यहाँ कब से काम कर रही है?" - मैंने सहमते-सहमते पूछा।
"कौन, सोनी? ... तीन-चार साल से यहाँ लगी है।"
"उसकी शादी नहीं हुई?"
मंगरू मुस्कराया, बोला - "शादी? उसकी? ना! उस कटास से शादी कौन करेगा!"
"क्यों, उसके माँ-बाप शादी का इन्तज़ाम नहीं करते?" - मैंने पूछा।
"वे तो इसके बचपन में ही मर गये थे। इसके चाचा-चाची ने इसे पाला-पोसा और बड़ी होने पर शादी भी ठीक की, पर यह कमबख़्त घर से भाग गयी। सिनेमा देख-देख कर दिमाग ऊँचा हो गया था न! इसने, बस, इसीलिए अपने चाचा की नाक कटवा दी कि लड़का दोआहा था। तब से यहीं नौकरी कर रही है। इसके चाचा-चाची ने भी कह दिया है कि तू मेरे लिए मर गयी।" - भर्त्सनापूर्णस्वर में मंगरू यह सब कह गया।
"अच्छा, तो यह सिनेमा बहुत देखती है?" - मैंने पूछा।
"हाँ, सा’ब! देखना तो बहुत चाहती है, पर यहाँ फ़ुर्सत कहाँ मिलती है काम से। फिर भी, महीने में एक-दो तो देख ही आती है। शान बहुत है कटास में। कुछ बोलते ही काटने को दौड़ती है। दिन-भर, बस, सजती-धजती रहेगी, साफ़-साफ़ कपड़े पहनेगी और खाते समय माँस न हो, तो कौर गले से नीचे उतरेगा ही नहीं।" - मंगरू के स्वर में ईर्ष्या उतर आयी थी।
"तब तो सचमुच बड़ी शानदार लड़की है!" - मैंने मंगरू की हाँ-में-हाँ मिला कर अपने मतलब की बात पूछी - "इधर-उधर उड़ती-फिरती भी तो नहीं है?"
मंगरू कुछ देर तक सोचता रहा, फिर बोला - "मैं समझा नहीं, सा’ब!"
मंगरू की इस नासमझी पर मुझे बड़ी खीझ हुई; कुछ देर तक सोचता रहा कि इस छोकरे को कैसे अपनी बात समझाऊँ, फिर कहा - "मतलब यह कि यहाँ बोर्डरों के साथ हँसी-ठिठोली तो नहीं करती? उनके साथ रात-रात-भर बैठी गप्पें तो नहीं मारती रहती?"
मुझे पूरी आशा थी कि वह उत्साहपूर्वक "हाँ" में जवाब देगा, पर उसने मुझे त्रिशंकु की स्थिति से उबारा नहीं, कहा - "हँसी-ठिठोली, और उसके पास? वह तो हमेशा अपनी शान में चूर रहती है। किसी से बात तक नहीं करती। रात की बात अलबत्ता मैं नहीं कह सकता। मैं तो काम-धाम खत्म होते ही ग्यारह-साढ़े ग्यारह बजे तक सो जाता हूँ।"
इस उत्तर से मुझे मिली तो निराशा ही, पर आशा ने अब भी साथ न छोड़ा। मन में आया - "दूसरों को दिखा कर थोड़े ही किसी से बातचीत करेगी? चालाक है! नाक डुबा कर पानी पीती है! ... नहीं तो साज-गुज की ज़रूरत ही क्या थी!"
मैंने अगला सवाल किया - "वह कुछ पढ़ी-लिखी भी है?"
मंगरू ने अजीब-सा मुँह बनाया, फिर कहा - "पढ़ी-लिखी! लोढ़ा है, लोढ़ा!"
तभी किसी ने उसे पुकारा और वह धीरे-धीरे उठ कर चला गया।
उस दिन रात दस बजे तक मैं सोनी का इन्तज़ार करता रहा; पर वह नहीं आयी। मेरी यह आशा व्यर्थ गयी कि वह एकान्त में मुझसे सौदा करने आएगी।
दूसरे दिन सबेरे मैं "बेड टी" ले रहा था, तभी सोनी मेरे कमरे में घुसी। उसने मेरी ओर देखा तक नहीं, चुपचाप कमरा साफ़ करने लगी। जब उसने आधा कमरा साफ कर लिया, तब मैंने उसे टोका - "तुम्हारा नाम क्या है?"
उसने अपना काम जारी रखते हुए जवाब दिया - "सोनी!"
"कितने दिनों से हो यहाँ?" - मैंने पूछा।
उसने काम रोक कर मेरी ओर देखा, फिर कहा - "चार साल हुए।"
"रात को भी यहीं रहती हो या अपने घर जाती हो?" - मैंने सहमते-सहमते प्रश्न किया।
"यहीं रहती हूँ!" बोल कर वह फिर अपने काम में लग गयी।
मैं चुप हो गया - और कोई सवाल सूझा ही नहीं उस वक्त। लेकिन जब वह दरवाज़े तक पहुँच गयी, तो मैंने उसे पुकारा - "सुनो!"
वह ठिठक गयी। मैंने थोड़ी घबराहट में, काँपती उँगलियों से, अपनी जेब से पाँच का एक नोट निकाला और उसे देते हुए कहा - "लो, इसे रख लो! तुम अच्छी लड़की हो। मेरे कमरे की सफ़ाई का ध्यान रखना।" इस समय हालाँकि मैंने कोई बुरी बात नहीं कही थी, फिर भी मेरी वाणी अजीब तरह से काँप रही थी। साथ ही, दिल भी काँप रहा था कि कहीं उल्टी-सीधी न सुना दे। पर उसने चुपचाप नोट ले लिया। नोट लेते समय उसकी उँगलियाँ मेरी उँगलियों से अनायास ही छू गयीं (सच मानिए, मैंने जानबूझ कर उसकी उँगलियाँ नहीं छुई थीं) और मैं सिहर-सा उठा।
जब वह नोट ले कर चलने लगी, तो मैंने कहा - "बीच-बीच में आना। ऐं?"
उसने स्वीकृतिसूचक सिर हिलाया और इस तरह शान्तिपूर्वक कमरे से निकल गयी, मानो कोई विशेष बात ही न हुई हो।
प्रथम प्रयास में ही प्राप्त इस सफलता पर मैं फूला न समाया। हँसी आयी अपनी भीरुता पर, "कितनी आसान बात थी और मैं इतना परेशान हो रहा था। ... अब काम बन गया। अब तो तीनों महीने मौज-मजे़ में कटेंगे!"
वह पूरा दिन सचमुच बड़ी प्रसन्नता में बीता - सारे शरीर में उत्साह की लहर दौड़ती रही। शाम को जल्दी-जल्दी होटल लौटा और बाहर बरामदे में खड़ा हो आँगन की ओर देखने लगा। करीब दस मिनट बाद सोनी दिखाई पड़ी, तो मैंने पुकारा - "ज़रा सुनना! एक कप चाय चाहिए!" सोनी ने ऊपर देखा और फिर बिना कुछ बोले बाथरूम की ओर बढ़ने लगी। मैं उसके जूड़े में लगी फूलों की ख़ूबसूरत वेणी देखता रहा और जब वह बाथरूम में प्रविष्ट हो गयी, तो वापस कमरे में आ गया। कमरे में आने के बाद कई बातें मेरे मानस में उभरीं - अभी आएगी तो हाथ पकड़ कर अपने पास बिठा लूँगा, उसकी वेणी को जी भर कर सूँघूँगा और फिर अगर अवसर मिला, तो चूम भी लूँगा। ... रात के बारे में भी उसे कह दूँगा कि दरवाज़ा ख़ुला रहेगा - जब छुट्टी मिले, तब मौका देख कर आ जाना। ... यह भी कह दूँगा कि हर रात के पाँच रुपये दूँगा। गरीब लड़की है, नौकरी करती है, पन्द्रह या बीस तनख्वाह मिलती होगी। भला डेढ़ सौ रुपये की आमदनी वह क्यों छोड़ना चाहेगी?
लेकिन ये सारे सपने बिखर गये, जब चाय ले कर जुग्गा नाम का 20-22 साल का नौकर हाजिर हुआ। सच मानिए, चाय ज़हर का घूँट बन गयी। किसी तरह उसे गले के नीचे उतारा। इस बीच बराबर यह सवाल सामने रहा कि वह क्यों नहीं आयी। अन्त में, यह कह कर मन को समझाया कि कप वापस लेने वही आएगी। लेकिन यह आशा भी व्यर्थ गयी - कप लेने मंगरू आया।
उसी से पूछा - "सोनी क्या कर रही है रे?"
"सब्ज़ी काट रही है। क्यों सा’ब?"
"कुछ नहीं, यों ही पूछा।" - उसके बाद मैंने बात पलट दी - "मंगरू, तू सारी ज़िन्दगी यही नौकरी करता रहेगा? मैं चाहता हूँ कि तू पढ़ना शुरू कर। अभी तेरी उम्र ही क्या है! काम-काज से छुट्टी मिलने पर थोड़ा-बहुत भी पढ़, तो धीरे-धीरे बहुत-कुछ सीख जाएगा। अगर चाहे, तो आई.ए., बी.ए. भी पास कर लेगा। फिर, अच्छी नौकरी करेगा - भला आदमी बन जाएगा।"
मंगरू इस तरह मुस्कराता हुआ मेरी ओर देखता रहा, मानो मैं परी-लोक की बात कर रहा होऊँ।
मैंने उसका मनोभाव ताड़ कर कहा - "मुश्किल कुछ नहीं है, मंगरू। बहुत-से लोगों ने ऐसा किया है। तू भी कर सकता है। ... बोल, मानेगा मेरी बात?"
उसने सहमति में सिर हिलाया, फिर कप लेकर कमरे से निकल गया।
उसके जाने के बाद सोनी फिर मेरे दिमाग पर छा गयी। मेरे मन ने कहा - "चिन्ता मत करो, वह रात को आएगी - ज़रूर आएगी।" तदनुसार ही, उस रात दरवाज़ा भिड़काया छोड़ कर मैं काफी देर तक उसका इन्तज़ार करता रहा। पर सोनी नहीं आयी, नींद ज़रूर आ गयी किसी समय।
दूसरे दिन सवेरे जब वह मेरा कमरा साफ करने आयी, तो मैंने उलाहना भरे स्वर में कहा - "कल तुम्हें बुलाया था, पर तुम आयीं नहीं!"
"कब?" - उसने बड़े भोलेपन से पूछा।
"शाम को चाय लेकर आने को नहीं कहा था?" - मैंने मुस्कराने की चेष्टा करते हुए कहा।
"बहुत-सारा काम पड़ा था! लेकिन चाय तो आ गयी थी न?" - उसने सफ़ाई पेश की।
अब भला मैं उसे कैसे समझाता कि चाय से अधिक महत्व उसका था।
थोड़ी देर बाद मैंने उसके केशों को सहलाते हुए कहा - "सच, तुम बहुत अच्छी लड़की हो!"
वह बोली कुछ नहीं, केवल थोड़ा-सा खिसक गयी। उसके इस आचरण से मेरा उत्साह कुछ ठंडा पड़ गया, फिर भी मैंने हिम्मत नहीं हारी, पूछा - "तुम्हें मेरे पास अकेले आते डर तो नहीं लगता?"
"डर? डर क्यों लगेगा।" - उसने कहा औेर चुपचाप कमरे से निकल गयी।
लेकिन उस दिन भी वह दुबारा नहीं आयी - शाम को चाय के बहाने बुलाने पर भी नहीं आयी और मेरी वह रात भी तड़पते बीती। लेकिन उस रात मैंने यह निश्चय कर लिया कि दूसरे दिन उससे साफ़-साफ़ बात करूँगा, अन्यथा उसकी रहस्यमयता तो मेरी जान ही लेकर रहेगी।
परन्तु दूसरे दिन सवेरे मेरी उससे मुलाक़ात ही न हो सकी। काफी रात तक जागने के कारण उस दिन सवेरे मैं बड़ी देर तक सोता रहा और जब कमरा साफ़ करने के लिए सोनी को बुलाया, तो उसके बदले बूढ़ा खेलावन हाजिर हुआ। मेरे मन की मन में ही रह गयी, उल्टे मन आशंका से आच्छन्न हो उठा - "निश्चय ही, वह बुरा मान गयी है मेरे केश छूने का।" लेकिन उपाय भी क्या था, सिवाय इसके कि जब अगली बार सोनी से मुलाकात हो, तो उसे समझा-बुझा दूँ।
अपने इसी निश्चय के अनुसार, अगले दिन सबेरे जब सोनी कमरे में आयी, तो मैंने बात छेड़ी - "तुम नाराज़ हो गयीं मुझसे?"
वह विहँस पड़ी - "नाराज़ क्यों होऊँगी, बाबू?"
कह नहीं सकता, इस जवाब ने मुझे कितना आनन्दविभोर किया। फिर भी, मैंने थोड़ी गम्भीरता धारण करते हुए कहा - "फिर कल तुम आयीं क्यों नहीं?"
"रसोई का काम पड़ा था न। उस समय रसोई की बड़ी जल्दी रहती है। लेकिन खेलावन तो आया था?"
"हाँ, आया था। लेकिन तुममें और खेलावन में क्या कोई फर्क ही नहीं है? कल सारा दिन ख़राब गया।" - बोलते-बोलते मैंने उसकी सुकोमल हथेली थाम ली। वह बोली कुछ नहीं - केवल एक बार मेरी तरफ देखा। उसकी वह दृष्टि! ओह! इतनी कातरता थी उसमें कि अपने-आप ही मेरी पकड़ ढीली पड़ गयी - उसकी हथेली छूट गयी। वह जाने लगी। मैंने उसे रोका - "ठहरो, सोनी!" वह रुक गयी और तब मैंने पाँच रुपये का एक नोट उसे देना चाहा। पर उसने लेने से इन्कार कर दिया, कहा - "नहीं बाबू, मुझे नहीं चाहिए। इससे मंगरू के लिए किताबें ला दीजिए - वह आदमी बन जाएगा!" और, वह कमरे से निकल गयी, छोड़ गयी मेरे मानस पर एक बड़ी-सी तुला, जिसके एक पलड़े पर मंगरू था और दूसरे पर सोनी! मैंने साफ-साफ देखा, सोनी का पलड़ा धरती पर बैठा था और मंगरू का अधर में लटक रहा था।
उस दिन शाम को मंगरू चाय लेकर मेरे कमरे में आया, तो मैंने उससे पूछा - "तूने अपने पढ़ने-लिखने की बात सोनी से कही थी?"
मंगरू लजा गया, सिर झुकाये हुए बोला - "हाँ।"
"लेकिन तेरी तो उससे लड़ाई है!"
"लड़ाई क्या है, सा’ब! वह अकड़ती है, तो मैं भी अकड़ता हूँ। आज आपके बारे में उसने पूछा कि उतनी सारी किताबें क्यों हैं आपके पास - आप हमेशा क्या पढ़ते रहते हैं, तो मैंने बतला दिया कि सा’ब बहुत पढ़े-लिखे हैं, सो बराबर पढ़ते रहते हैं। फिर, यह भी बतला दिया कि आप किस तरह पढ़ने के लिए रोज़ मुझ पर ज़ोर देते हैं!"
"तब उसने क्या कहा?"
"लगी देने उपदेश कि सचमुच मुझे पढ़ना-लिखना चाहिए और बड़ा भारी विद्वान बनना चाहिए।"
"तो क्या तेरा पढ़ने का इरादा नहीं है?"
"है क्यों नहीं, लेकिन वह कौन होती है मुझे उपदेश देनेवाली!" - मंगरू का चेहरा लाल हो उठा।
"ओ, यह बात है!" मैं हँसा, फिर बोला - "अच्छा देख, कल मैं तेरे लिए कहानियों की कुछ किताबें ला दूँगा। ठीक है?"
उसने "हाँ" में सिर हिलाया और फिर चला गया।
अगले दिन सबेरे सोनी से मुलाक़ात हुई, तो मैंने उसे बतलाया कि उसके कहने के मुताबिक मैं मंगरू के लिए किताबें ला दे रहा हूँ। सुन कर वह बड़ी प्रसन्न हुई, बोली - "आपकी बड़ी कृपा है, बाबू!"
"लेकिन तुम भी क्यों नहीं पढ़तीं?"
"मैं?"
"हाँ, तुम। इसमें क्या मुश्किल है। मैं तुम्हारे लिए भी किताब-स्लेट ला दूँगा। तुम और मंगरू साथ-साथ पढ़ना। मदद की ज़रूरत हो, तो मुझसे पूछ लेना। क्यों?" - मैंने उसके कंधे पर हाथ रख कर पूछा।
वह केवल मुस्करा कर हट गयी, बोली कुछ नहीं।
कुछ देर बाद फिर मैंने ही कहा - "तब तुम और अच्छी लड़की बन जाओगी। ... बोलो, मेरी बात मानोगी न?"
उसने जल्दी से सिर झुका कर "हाँ" किया और कमरे से निकल गयी।
मैंने सन्तोष की साँस ली - चिड़िया के काबू में आने के लिए अच्छा-सा जाल बिछ गया था। "अब वह अक्सर मेरे पास आएगी!" इस कल्पना ने मुझे अपार सुख दिया।
अपने वादे के अनुसार ही उस दिन शाम को मैंने किताबें, स्लेट वगैरह मंगरू को सौंपे और उसे अच्छी तरह समझाया कि वह सोनी के साथ मिल कर पढ़े-लिखे - उससे लड़ाई न करे। मंगरू ने भी बहुत अच्छे लड़के की तरह मेरी बात स्वीकार कर ली। अब मुझे सोनी के हाथ में आने का पूरा विश्वास हो गया।
लेकिन इसके अगले दिन ही बात बिगड़ गयी। सबेरे-सबेरे सोनी जब आयी, तो मैंने उससे पूछा कि उसे स्लेट-किताब मिल गयी या नहीं।
उसने कहा - "हाँ, मिल गयी। कल रात मंगरू ने अपनी किताब से मुझे एक कहानी भी सुनायी थी। बड़ी अच्छी कहानी थी।"
"समझ में आया पढ़ने का मज़ा? थोड़े दिनों में तुम ख़ुद ही उन्हें पढ़ सकोगी! ... तब कितना आनन्द मिलेगा तुम्हें, सोच लो! तब तुम सोनी नहीं रहोगी - तुम्हारा नाम स्वर्णलता होगा।" - मेरी यह बात सुन कर सोनी के अधरों पर एक लज्जा-मिश्रित मुस्कान खेल गयी।
उसकी इस मुस्कान ने मुझे व्यग्र कर दिया। एक जवान लड़की की सलज्ज मुस्कान भला किस भूखे नवजवान को विह्वल नहीं कर देगी। मैंने पूछा - "लेकिन मुझसे कब तक भागती फिरोगी, यह तो बता दो।"
"कहाँ भागती फिरती हूँ? रोज़ ही तो आती हूँ!" - वह बोली।
"हाँ, आती तो हो, लेकिन तड़प बढ़ा कर चली जाती हो। सारी रात मैं जाग कर बिता देता हूँ। बोलो, अब और कितना तड़पाओगी?" - मेरा कामोन्माद का घट क्षण-क्षण भरता जा रहा था।
उसने अपने मदिर नेत्रों से मेरी तरफ देखा, फिर थोड़ा मुस्करा कर कहा - "मेरी समझ में नहीं आ रही आपकी बात! आप न-जाने क्या-क्या बोल रहे हैं!"
उसके इस भोलेपन ने मेरा रहा-सहा धैर्य भी छीन लिया। मैं पागल-सा हो उठा। दूसरे ही क्षण मैंने तेज़ी से उठ कर उसे आलिंगनबद्ध कर लिया और उसके होंठों-गालों पर चुम्बनों की बौछार शुरू कर दी। पर आधा मिनट भी न बीता होगा कि एक झटका मार कर उसने अपने को छुड़ा लिया और थोड़ी दूर पर जा खड़ी हुई। इस समय वह घायल सिंहनी हो रही थी। ज़ोर-ज़ोर से हाँफ़ते हुए उसने कहा - "कमीने कहीं के! बेशर्म! मैं समझती थी कि भले आदमी हो! ख़बरदार, जो फिर कभी मुझसे बात की!" और, अपने कपड़े ठीक कर वह कमरे से निकल गयी। मैं सैंकड़ों जूते खाये हुए की तरह सिर नीचा किये चुपचाप खड़ा रहा - मेरा सारा जोश भाप बन कर उड़ गया था। ऐसी बेइज़्ज़ती मुझे ज़िन्दगी में कभी नहीं मिली थी।
उस दिन मैं जल्दी-जल्दी होटल से निकल गया और रात के क़रीब दस बजे लौटा। दिन-भर मन में यह डर समाया रहा कि कहीं उसने किसी से मेरी बदतमीज़ी के बारे में कह दिया, तो मैं कहीं का न रहूँगा। रात को वापस लौटने पर मैंनेजर बाबू के सामने से गुज़रते समय दिल काँपता रहा कि अभी वे मुझे रोक कर फटकारेंगे, पर मैनेजर बाबू ने पूर्ववत् हँसते हुए कहा - "आज बड़ी देर हो गयी? मैं तो चिन्ता में पड़ गया था!"
"हाँ, ज़रा सिनेमा चला गया था!" - बोल कर मैं जल्दी-जल्दी आगे बढ़ गया। लेकिन अब मैं आश्वस्त था। उसने किसी से कुछ नहीं कहा था, इसका मुझे इत्मीनान हो गया। मेरे सिर से एक बड़ा भारी पहाड़ टल गया।
लेकिन उसके बाद सोनी के सामने फिर कभी मेरी नज़र नहीं उठी। वह पूर्ववत् मेरे कमरे में नित्य सवेरे-सवेरे आती रही, पर अब मैं मैं नहीं रह गया था। एक चोर की दशा थी मेरी। वह आती, अपना काम करती और चली जाती। स्पष्टतः वह मुझसे नफ़रत करने लगी थी। और, जब उसे मुझसे नफ़रत हो गयी थी, तो मेरे लिए ही उसमें क्या आकर्षण रह सकता था? मैंने उसे पूरी तरह से अपने दिमाग़ से निकाल दिया। आगे चल कर तो उसे देख कर मैं कतराने भी लगा - मेरे कमरे में भी जब वह आती, तब मैं वहाँ से हट जाता।
इस बीच मंगरू ज़रूर मुझसे हिला रहा, उसकी पढ़ाई भी चलती रही; पर सोनी के बारे में न मैं कुछ चर्चा छेड़ता और न वह। सोनी का अस्तित्व मेरे लिए मिट सा गया था।
इसी तरह तीन महीने बीत गये और अन्त में मेरी रवानगी का दिन भी आ पहुँचा। उस दिन मंगरू की मदद से मैंने सामान ठीक-ठाक किया और फिर उसे टैक्सी लाने के लिए भेज कर कुर्सी पर बैठ सिगरेट पीने लगा। तभी कमरे में सोनी सहमी-सहमी-सी प्रविष्ट हुई और पास आकर रुँधे गले से धीमी आवाज़ में बोली - "मैंने चिट्ठी लिखना-पढ़ना सीख लिया है!"
मैंने कोई जवाब नहीं दिया, उसकी ओर देखा भी नहीं। वह दो पल खड़ी रही, फिर जैसे आई थी, वैसे ही चुपचाप चली गयी।
कुछ देर में टैक्सी आ गयी और मैं मय सामान उस पर सवार हो गया। जब टैक्सी ख़ुलने लगी, तो एक मुड़ा हुआ कागज़ आकर मेरी गोद में पड़ा। मैंने उस कागज़ को उठा लिया और कौतूहलवश जल्दी-जल्दी सीधा किया। वह एक पाँच रुपये का नोट था और उसके सफेद भाग पर लिखा था - "अभागिनी स्वर्णलता!" मैंने नज़र ऊपर उठायी, तो दौड़ते हुए मकान, लैम्प पोस्ट, गाड़ियाँ और आदमी दिखाई पड़े। मैंने नोट को मोड़ कर जेब में डाल लिया और एक विद्रूप-भरी मुस्कान मेरे अधरों से खेल गयी।
इसके बाद मेरे और सोनी के बीच कोई बात नहीं हुई। मैंने उसे कोई पत्र नहीं लिखा, हालाँकि उसने इसके लिए मुझे संकेत दिया था। उसकी भावनाओं को मैंने बड़ी निमर्मता से कुचल दिया।
अब उसी सोनी से मैनेजर बाबू मुझे मिलाना चाहते हैं और मैं चिन्ता में पड़ा हूँ। आप ही बतलाइए, मैं उस देवी को अपना मुँह दिखाने लायक हूँ? नहीं न! वह मानवी से अधिक देवी है अब!
लेकिन स्वर्णलता मुझ क्षुद्र के लिए जो तपस्या कर रही है, उसका क्या होगा? अपराधी को क्या न्यायाधीश की इच्छा के विरुद्ध जाने का अधिकार है? क्या इससे उसका अपराध और नहीं बढ़ेगा? मैं क्या करूँ? मेरी समझ में नहीं आ रहा है। अब एकमात्र आपके ही परामर्श का भरोसा है!