सोचता हूँ ख़ुश रहूँ!
मनोहर कुमार सिंहसोचता हूँ ख़ुश
रहूँ मैं हर पल,
पर उदासी को
छुपाऊँ मैं कैसे?
मिलता है जो हर पल
एक नया ग़म
सह भी लूँ,
पर देते हैं जो अपने
वह ग़म सह जाऊँ मैं कैसे?
सुनसान सड़क पर
दौड़ती गाड़ी सी,
कट रही है यहाँ
ज़िंदगी का हर लम्हा,
मैदान के बीचों-बीच
खड़े पीपल सा,
जिसको हवा चाहे
जिस ओर झुका ले,
चाहे आसमां उसपे
कितने ओले बरसा ले,
चुपचाप सह लेता है
वह अपना दुख कहे कैसे?
हूँ मैं इंसान दर्द बयाँ
कर सकता हूँ लफ़्ज़ों में,
यह असहनीय पीड़ा
सह जाऊँ मैं कैसे?
सोचता हूँ ख़ुश रहूँ मैं हर पल,
पर उदासी को छुपाऊँ मैं कैसे?