शब्द

डॉ. चन्द्र त्रिखा (अंक: 192, नवम्बर प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

जिनका आसरा लेकर
बड़े ही बेतुके से अर्थ
तुम देते रहे हो ज़िन्दगी को
शब्द,
जिनकी छाँह में
तुमने, सदा ही
अर्थ की लाशें दफ़न की हैं
शब्द, हाँ वे शब्द,
अब बीमार हैं
नंगे अर्थ ही
इस ज़िन्दगी के यार हैं
 
मुझे मालूम है
कि तान कर बंदूक उलटी तुम
सलीक़े से किसी सम्बन्ध को
भूल भी सकते हो
तुम्हें अभ्यास भी है
मातमी धुन को बजाने का
मगर तुम भूलते हो
 
ज़िन्दगी, इतिहास न होकर,
सिर्फ़ एक गीत है
जो साँस के स्वर से निकलता है
तुम चाहे इसे गाओ न गाओ
गीत यह लेकिन
न जलता है, न बुझता है
न झरता है, न मिटता है
 
अमर है गीत,
मेरे सुबह के भूले हुए साथी
हुई है शाम
अब भटकाव का जंगल न मापो तुम
चलो आओ कि अर्थों को
नए हम शब्द पहनाएँ
चलो आओ कि शब्दों को
नए हम अर्थ पहनाएँ।

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