सीमाओं का बंधन

01-06-2023

सीमाओं का बंधन

लिली मित्रा (अंक: 230, जून प्रथम, 2023 में प्रकाशित)


पड़ी हुई है उनींदी
आँखें तकिए पर
खिड़की से बाहर
झाँकती हुईं . . . 
आसमान तो यहाँ से
भी दिखता है लेकिन
खिड़कियों की सलाखों
और जालियों में जकड़ा हुआ . . .।
 
चहकती गौरैया
पलड़ों पर फुदक
जाती है, झाँक जाती है . . . 
हिलती पेड़ों की शाख़ों से
चलती बयार रह-रहकर
मेरे चेहरे पर फूँक सी
मारकर छू जाती है . . .।
 
सबकुछ तो मिलता है
बंद कमरों में बनी इन
खिड़कियों से, फिर भी
आँखें पुतलियों को फैलाकर
सलाखों और जालियों
के बंधन से परे क्यों देखना
चाहती हैं . . .? 
 
कैसी चाहत है यह, जो
जालियों के छोटे-से छेद से
आँखों का 'लेंस' पूरे
आकाश को खींच लेना
चाह रहा . . .? 
बहुत देर तक पड़ी
रहती है तकिए पर शून्य
को निहारती आँखें . . .।
 
सर्दियों की दोपहर
और गुनगुनी धूप तो
पड़ती है मेरे बिछौने पर 
घंटों पड़े रहकर बदन भी
कुनकुना हो जाता है . . . 
फिर भी चाह किसी
फैले समुंदर की रेत पर
औधें पड़ी रहूँ . . .। 
 
रात का चाँद भी समा
जाता है इन खिड़कियों
के नक़्क़ाशीदार 'फ्रेम' में
फिर क्यों मन नदी का
किनारा और किसी पेड़
की शाख़ाओं से झाँकते
चाँद की तमन्ना करता है . . .? 
 
मन बड़ा चंचल
सीमाओं का बंधन
इसे उच्छृंखल बना देता है . . .!

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें