संवेदनाशून्य होते इंसान को प्राणवान बनाने की चेष्टा करती कहानियाँ

01-05-2024

संवेदनाशून्य होते इंसान को प्राणवान बनाने की चेष्टा करती कहानियाँ

कुलभूषण  कपूर (अंक: 252, मई प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

समीक्षित पुस्तक: कुछ यूँ हुआ उस रात
लेखिका: प्रगति गुप्ता 
प्रकाशन: प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली
पृष्ठ:134 
मूल्य: ₹250/-

आधुनिकता की चकाचौंध ने संवेदनाओं और कोमल भावों को लगभग मूल्यहीन बना दिया है, तथा मनुष्य भौतिकता में इतना आसक्त होता जा रहा है कि मानवीय सम्बन्ध तो बस स्वार्थसिद्धि तक सिमट कर रह गये हैं। इस भयंकर गति से बदलती दुनिया और इसमें टूटते हुए मानवीय मूल्यों को लेकर “स्टेपल्ड पर्चियाँ” और “कुछ यूँ हुआ उस रात” कहानी संग्रहों की लेखिका प्रगति गुप्ता बेहद चिंतित हैं। 

अपने पुरज़ोर इरादे से कुछ मूल्यों को सहेजने, जोड़ने, उन्हें प्राणवान बनाये रखने का सफल प्रयास इनकी कहानियों में स्पष्ट दिखता है। एक विशेषता यह भी है कि पारिवारिक और सामाजिक संदर्भों में लेखिका समकालीन प्रश्नों से जूझती हैं, तथा मनुष्य को अपनी जड़ों से न कटने देने के लिए पूर्णतः प्रतिबद्ध है। इन कहानियों का सम्बन्ध वर्तमान समाज के भयानक और निर्लज्ज यथार्थ से है, अमूर्त और वायवीय मानसिक स्थितियों और कल्पनाओं से भी है, जिन्हें सूक्ष्मता से समझाने का प्रयास किया है। 

हर कहानी जीवन के किसी न किसी वर्ग और पक्ष के अंतरद्वंद्व, जीवन के सृजन और उसके सम्यक मूल्यांकन को प्रस्तुत करती प्रतीत होती है। आपकी कहानियाँ एक सचेत, सजग, चिन्तन की उपज है। यह कहानियाँ जिन्हें पढ़ने-समझने को मन मजबूर हो जाता है। 

घण्टों मैं तो सोचता रहा हूँ जैसे कि “वह तोड़ती रही पत्थर” में वंशी “माँ के किये हुए लाड़-प्यार ने उसे स्वार्थ-पूर्ति करना तो सिखाया था, मगर दूसरे के कष्ट को महसूस करना उसकी फ़ितरत में नहीं था।” कहानी में यह सूक्ष्म चरित्र-चित्रण आज की युवा पीढ़ी का सटीक मूल्यांकन है। 

एक वयोवृद्ध माँ, लकवाग्रस्त है, जिसे अपने शरीर की व्यवस्था सँभालना कठिन लगता है, परन्तु अपनी बहू पर पूर्ण अधिकार मानसिक रूप से करने, अपनी मनोइच्छा के अनुसार कार्य करवाने को मजबूर करने की सुध-बुध है, और इस पर उसका बेटा अपनी ही पत्नी के साथ उपेक्षा भरा व्यवहार करता है, तो उस स्त्री का जीवन कितना चिन्ताग्रस्त, शोचनीय और तनावग्रस्त है, जो अपनी मन मर्ज़ी से न तो दाम्पत्य जीवन का सुख पाती है, न ही एक संतोषजनक घर-गृहस्थी का आनन्द भोगती है। एक बाँझपन का दर्द और उस पर कुंठाग्रस्त वातावरण में जीना कितना दुखदायी और घुटन भरा हो जाता है, इस कहानी में तीव्रता से मन को कचोटता है। “वंशी? प्लीज़, कभी कामों में हाथ बँटाने का सोच लिया करो, ताकि कुछ समस्याओं के हल निकल सकें।”

कहानी स्त्री के कठिन जीवन का एक परिदृश्य उपस्थित करती है, जो मध्यम और निम्नवर्ग के समाज का चित्रण करती है। पाठक सोचने को मजबूर हो जाता है, गल्प नहीं यह यथार्थ का बोलता हुआ सामाजिक चित्रण है। जिस पर सजग पाठक सोचे बिना नहीं रह सकता। एक संवेदनहीन असहिष्णु, सहानुभूतिविहीन पति जो आत्मकेन्द्रित है या मातृभक्त होना दिखना चाहता है, उस पुरुष वर्ग का प्रतीक है, जो कर्तव्यबोध से शून्य है। उसकी पत्नी, माँ-अपनी सास के प्रति उदासीन नहीं है, परन्तु सेवा-सुश्रुषा से बोझिल जीवन जीती है। उस पर पति उपेक्षित करता है तो मानसिक और शारीरिक दोनों ही स्थितियों में वह तनावग्रस्त जीवन जीने को मजबूर है। 

माया अत्यधिक सचेत और संवेदनशील है। जिसने एक मजदूरन की मनःस्थिति को भाँप लिया, उसके संकटग्रस्त होने को जान लेना तथा अपनी पीड़ा और उस युवती की पीड़ा में साम्य महसूस करना, उसके स्त्रियोचित कोमल मन का चित्रण, पूरी सामाजिक और पारिवारिक स्त्रियों का चित्रण है। “पत्थरमन” का यह उदाहरण मन को जकड़ लेता है, सोचने को विवश करता है। उस मजदूरन का वो भावशून्य सन्नाटा एकाएक माया को सहमा गया। शायद कई रातों से युवती की नींद पूरी नहीं हुई थी। उसकी सुर्ख़ आँखों की नमी ग़ायब थी। अब माया अपनी पीड़ा भूल चुकी थी। मजदूरन की लाचारी भरा उत्तर सुनकर कौन सुन्न नहीं होगा? लेखिका की मनोभावों पर बहुत गहरी और सूक्ष्म पकड़ है। जब कहा कि . . . “पीड़ा की अभिव्यक्ति किसी भाषा की मोहताज नहीं होती।” एक मार्मिक निष्कर्ष है। मनोवैज्ञानिक चित्रण का जिसमें जैनेन्द्र को कहानियों, मुंशी प्रेमचन्द के सामाजिक चित्रण, ज्ञानेन्द्र और अशोक वाजपेयी सरीखे लेखकों को बारीक़ियों, मोहन राकेश और वात्स्यायन के चरित्र-चित्रण के व्यापक दर्शन फिर से उजागर हो जाते हैं। लगभग सभी कहानियाँ को एक लघु उपन्यास में विस्तार देने के पूरे-पूरे गुण हैं। 

माया और मजदूरन के तुलनात्मक अध्ययन ने कहानी को एक ठोस, मज़बूत और विचारणीय धरातल प्रदान किया है। कोई भी सामान्य पाठक इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। दोनों ही सास के व्यवहार की शिकार हैं, जो सामान्य रूप से भारतीय समाज का कड़वा सत्य है, और इसका समुचित समाधान समाज कभी नहीं ढूँढ़ पाया। 

स्त्री नियति को चुपचाप स्वीकार कर लेती है। जीवन के कटु सत्यों को सह लेना, धैर्य और सहनशीलता की पराकाष्ठा को भी पार कर पाना कैसे होता है, यह स्त्री मन का सबसे कठिन और कभी भी न सुलझाया जाने वाला चित्रण बहुत सशक्त सृजन है। मजदूरन की सास के दिवंगत होने पर माया का उसके साथ का सुखद संवाद मानो पूरी कायनात ने दोनों को एक पल के लिये एक मुक्त मन से जीने का आनन्द दिया हो। कहानी अत्यंत हृदयग्राही है। 

सभी कहानियों को पढ़ने पर लेखिका के मन में समाज के प्रति एक चिन्ता, एक तड़प, एक प्रश्नाकुलता निरन्तर दिखाई देती है। वैसे तो प्रत्येक कहानी पर एक समीक्षा लिखी जाये तो भी लेखिका का व्यापक चित्रण अधूरा ही रहेगा, क्योंकि विस्तृत फलक पर हर किरदार हरेक कहानी में एक विशाल समाज का चित्रण है। हरेक कहानी एक प्रतिनिधित्व करती है। समाज के उन परिदृश्यों का जो दिखते तो हैं, परन्तु उन पर कोई सोच के कुछ करने को तैयार नहीं है, क्योंकि अपनी-अपनी धुन में हर कोई जी रहा है, क्योंकि बेचैनी सृजन की पहली शर्त होती है। 

उनका लेखन बहुत बड़े उत्तरदायित्व को पूर्ण करता है, जो सामाजिक सन्दर्भ में अत्यंत महत्त्वपूर्ण है, जिस पर इनकी लेखनी ध्यान आकर्षित करती है। जबकि लोग गद्य के पठन से ऊब रहे हैं, लेकिन एक छोटा-सा पाठकों का दायरा अभी जीवित है, उसमें ये कहानियाँ एक नई ज़मीन तोड़ने की कोशिश करती हुई दिखाई पड़ती हैं, जबकि गद्य लेखन में शब्दों ने अनु‌भूतियों को एक तरह से ढक लिया था, लेकिन इन कहानियों में शब्दों और भावों, विचारों और अनुभूतियों के सही अर्थों को संभावनाओं की खोज होती दिखती है। मानव मन की सार्थक पहचान से पाठक रूबरू होता है। सामाजिक और पारिवारिक सरोकारों से बेख़बर मनुष्य, निरर्थकता से बेचैन रहता है, प्रगतिजी उन्हीं की ओर ध्यान आकर्षित करती हैं। कोई तो वजह होगी कहानी में “नियति” और “आँटी” के चरित्र दो पीढ़ियों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जहाँ बड़ी मुश्किल से एक ही विचारचारा, संस्कारगत मूल्यों, मानवीय सम्बन्धों में साम्यता मिलती है। 

स्त्री को स्वाभिमान और आत्मसम्मान से जीने के लिए क्या-क्या दाँव लगाना पड़ता है, और बढ़ती उम्र में कैसे अवांछनीय समझौते करके स्वयं में सिकुड़ कर रहना सीखना पड़ता है, लेकिन संतोषजनक सुखद, एकांतवासी होना इसकी मजबूरी बन है। “एक शारीरिक सुखों की पूर्ति से जुड़े विकल्पों की उपलब्धता पुरुष को विवेकशून्य कर देती है, दूसरी ओर बच्चा होने के बाद स्त्री का विवेक बच्चे के आस-पास केंद्रित होने लगता है।” 

पूरी कहानी में यह आत्मसम्मान को प्रधानता का निष्कर्ष देता बयान है। स्त्री के लिये समाज सदैव चुनौतियाँ हर समय प्रस्तुत करता है, और परिवर्तित होती बड़े नगरों की जीवन शैली में अकेलापन, एकांतता, आत्मकेन्द्रित होना एक शर्त है, जीवन को दोहने और जीने के लिये। 

कहानी के अंत में, “हर घटित के पीछे एक कारण होता है, शायद उसी कारण ने मुझे आपके सामने बैठा दिया है। वैसे भी कोई अनजान किसी दूसरे अनमान से इतनी बातें भी नहीं करता, सब उस परम के सोचे से होता है।” 

नियति का यह बयान एक पूर्व निर्धारित नियति-चक्र की ओर जो इशारा करता, यह वास्तव में हर मानव का नियतिबोध है। यह मनुष्य जीवन का युवाबोध उसके पारदर्शी चिन्तन, अकृत्रिम रागात्मक संवेदन, मनुष्यता के मूल में उसकी गहन आस्था, गहरी संवेदनशीलता से संपृक्ति की परिचायक है, और प्रगतिजी की कहानियों में यह सहज रूप से, उत्कृष्ट ढंग से मानव के मानसिक और मनोवैज्ञानिक पक्ष को उजागर करता है। 

सभी कहानियाँ मन को बाँध लेती हैं। हर कहानी का अंत उसी कथानक के विस्तार को पाने का जिज्ञासु बना रहता है। क्यूँ कहानी यहीं ख़त्म हुई, कुछ और‌ पात्रों के विषय में जानने की उत्सुकता पैदा करता है। “कहानी अधूरी है” –अभी तो कुछ और लिखा जायेगा। 

प्रगतिजी की हर कहानी पर बहुत कुछ लिखा जा सकता है, भविष्य में लिखूँगा भी। मैं पाठक हूँ, समीक्षक नहीं, आलोचना लिखना मुझे नहीं आता, भावों की प्रतिक्रियाएँ जो पढ़ने पर हुई वहीं कलमबद्ध किया है। आपके उज्जवल भविष्य की कामना करता हूँ। 

कुलभूषण कपूर 
(डिप्टी डायरेक्टर, नेशनल बुक ट्रस्ट) 

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