सच्चाई की जीत

01-05-2025

सच्चाई की जीत

डॉ. मुल्ला अदम अली (अंक: 276, मई प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

हरिपुर गाँव में सरस्वती विद्या मंदिर नामक एक सुंदर विद्यालय था। उसी विद्यालय में पढ़ता था चौथी कक्षा का एक छात्र—राहुल। वह ना केवल पढ़ाई में होशियार था, बल्कि उसकी सबसे बड़ी पहचान थी उसकी ईमानदारी और सच्चाई से भरी सोच। शिक्षक उसे बहुत मानते थे, और साथी छात्र उसका आदर करते थे। 

एक दिन सुबह की प्रार्थना सभा के बाद मुख्याध्यापक जी ने घोषणा की—

“बच्चों, कल विद्यालय में चित्रकला प्रतियोगिता होगी। जो चित्र सबसे सुंदर और अर्थपूर्ण होगा, वह हमारी स्कूल की दीवार पर लगाया जाएगा।”

सारे बच्चे ख़ुशी से उछल पड़े। राहुल के मन में पहले ही विचार आ चुका था, “मैं प्रकृति का चित्र बनाऊँगा। वही तो असली सुंदरता है।”

उसने घर पहुँचते ही अपने रंग, ब्रश और काग़ज़ निकाले और देर रात तक एक-एक रेखा में अपने दिल की कल्पनाएँ उड़ेलता रहा। पेड़ की शाखाओं पर बैठी गौरैया, दूर से आती सूरज की किरणें, और नदी की कल-कल ध्वनि— सब कुछ जैसे उसकी तस्वीर में जीवित हो उठे। 

दूसरी ओर मनीष, जो राहुल का सहपाठी और अच्छा दोस्त था, चित्र बनाना भूल गया था। अगले दिन स्कूल में वह कुछ खोया-खोया और घबराया-सा दिख रहा था। 

“क्या हुआ मनीष? तुमने चित्र नहीं बनाया?” राहुल ने पूछा। 

मनीष ने झेंपते हुए सिर झुका लिया, “नहीं यार . . . मैं भूल गया। अब सब हँसेंगे। टीचर भी डाँटेंगी।”

थोड़ी देर बाद मनीष की नज़र एक बेंच के नीचे रखे चित्र पर पड़ी—किसी बच्चे ने शायद वहाँ रखा था। वह एक पल रुका, फिर चुपके से उस चित्र को उठाया और अपना नाम लिख दिया। 

राहुल ने यह सब देख लिया। उसका मन बेचैन हो उठा। 

“मनीष, ये तुम क्या कर रहे हो? ये तुम्हारा चित्र नहीं है . . .” राहुल की आवाज़ धीमी थी, लेकिन सच्ची। 

“प्लीज़, किसी से मत कहना। मैं बहुत डर गया था,” मनीष ने आँखें चुरा लीं। 

राहुल दुविधा में था। एक ओर दोस्ती थी, दूसरी ओर ईमानदारी। उसने अपने पापा की कही बात याद की—“बेटा, कभी किसी का दिल दुखाने की ज़रूरत न हो, लेकिन ग़लत को सही मत मानना।”

थोड़ी देर ख़ुद से लड़ने के बाद, राहुल ने हिम्मत की और कला शिक्षिका मिस शर्मा के पास गया। 

“मैम, मुझे कुछ कहना है . . . मनीष ने जो चित्र जमा किया है, वो उसका नहीं है।”

शिक्षिका ने बात की जाँच की। सच्चाई सामने आ गई। 

मनीष के चेहरे पर ग्लानि और पछतावे की लकीरें थीं। आँखेंं नम थीं, गला रुँधा हुआ। 

“मैं . . . मैं डर गया था, मैम। मुझे लगा सब मेरा मज़ाक उड़ाएँगे। अब मुझे समझ आ गया है कि झूठ का सहारा लेना सबसे बड़ी हार होती है।”

मिस शर्मा का चेहरा सख़्त था, पर आँखों में समझदारी थी। 

“ग़लती करना बुरा नहीं है, मनीष। लेकिन उसे छिपाना और बढ़ाना सबसे बड़ी ग़लती होती है।”

राहुल ने एक क़दम आगे बढ़ाया। 

“मैम, मनीष मेरा अच्छा दोस्त है। उसने अपनी ग़लती मानी है, और उसका पछतावा सच्चा है। अगर आप चाहें तो पुरस्कार किसी और को दे दीजिए, पर मनीष को एक और मौक़ा ज़रूर दें।”

पूरा विद्यालय स्तब्ध था। राहुल की सोच ने हर किसी को भीतर तक छू लिया। 

पुरस्कार समारोह में मुख्याध्यापक जी ने राहुल को मंच पर बुलाया और कहा—

“आज राहुल ने हमें बताया कि सच्चाई केवल बोलने की चीज़ नहीं, जीने की चीज़ है। और एक सच्चा इंसान वह है, जो अपने दोस्त को डाँटना नहीं, सुधारना जानता है।”

तालियों की गूँज में मनीष ने राहुल को गले लगा लिया। उसकी आँखों से पश्चाताप और आभार दोनों बह रहे थे। 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें