सागौन का ठूँठ
डॉ. शिवांगी श्रीवास्तवघर के पीछे की ज़मीन पर
सागौन का एक ठूँठ खड़ा है
टेढ़ा मेढ़ा बिना पात बिना पुष्प
बसंत में भी गुमसुम अकेला।
कुछ लोग आए थे एक रोज़
पत्ते छींग गए सारे
टहनियाँ जो हवा संग
इठलाती फिरती थी
तोड़ ले गए सारे।
ठंढ के ठिठुरन में निर्वस्त्र
अनावृत निरुत्तर खड़ा है,
घर के पीछे की ज़मीन पर
सागौन का एक ठूँठ खड़ा है।
कहने को तो 'ठूँठ' ही
अब उसका परिचय है,
एक समय हरा भरा सा
पेड़ घना था।
दुनिया की इच्छाओं, ज़रूरतों
को पूरा करते, आज बिखर कर
टूट फूट कर ठूँठ बना है।