मंज़िल की तलाश

01-10-2021

मंज़िल की तलाश

डॉ. शिवांगी श्रीवास्तव (अंक: 190, अक्टूबर प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

हज़ार रास्ते भटकती है ज़िन्दगी
कोशिशें करती, छटपटाती
मंज़िल की तलाश में तड़पती 
तिलमिलाती, जूझती, थकती
फ़िर तरकीब लगाती, 
 
एक बार मिल जाये मंज़िल 
बस एक बार, 
चख कर तो देखूँ, स्वाद कैसा,
बेचैन, उत्सुक, अधीर,
जाने कब से जूझती.
 
'मंज़िल' पर मगर 
रेत के टीलों बीच 
पानी के छलावे जैसी 
प्रतिबिंब दिखाती, खोती 
प्यास जगाती, व्याकुल करती. 
 
मंज़िल जाने अनजाने 
जीने की कला सिखाती 
आस जगाती, नयी सुबह की, 
कोशिश करने की, निरंतर, 
असंभव को सम्भव बनाती
असंभव को सम्भव बनाती।

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