रेगिस्तान में रिमझिम
नीलू चोपड़ाबच्चे कॉलेज जा चुके थे। पतिदेव नहा कर निकल चुके थे। नाश्ता मेज़ पर लगा मैं जल्दी से टिफ़िन पैक कर ले आई। पति ने बहुत ही अनिच्छा से नाश्ता किया और रोज़ की तरह बड़बड़ाते हुए बाहर निकल गए। मैंने बिखरी हुई रसोई समेटी। चाय का कप लिया और सोफ़े पर बैठ गई।
पूरे दिन में यही कुछ पल मेरे अपने होते हैं। यह कुछ फ़ुर्सत के क्षण मुझे बहुत अच्छे लगते हैं। इन पलों में मैं डूबती-उतरती रहती हूँ। दुख-सुख का हिसाब करती हूँ। जीवन की धूप-छाँव को महसूस करती हूँ। एक बार पति व और बच्चे घर लौट आते हैं तो समय पंख लगा कर उड़ने लगता है। मैं चक्करघिन्नी सी इन सबके चारों ओर घूमने लगती हूँ।
सोफ़े पर आराम से सिर पीछे टिका मैं अतीत के गहरे सागर में उतर जाती हूँ। याद आती है विवाह के समय बैंड पर बज रही वो धुन छोड़ बाबुल का घर मोहे पीके नगर आज जाना पड़ा। माँ, बहनों के गले लग सिसकियाँ रुदन में बदल गईं। धीर-गम्भीर पापा और भैया भी मुँह फेर कर अपने आँसुओं को छिपाने की। विफल कोशिश कर रहे थे। भाभी ने सांत्वना देते हुए कहा था तुम तो सर्वगुण सम्पन्न हो, देखना पति और ससुराल वाले तुम्हें सिर आँखों पर बिठा कर रखेंगे।
मैंने सपनों की बहुत ऊँची उड़ान तो नहींं भरी थी पर मुझे पूरा विश्वास था कि अपने रूप गुण के सहारे पति व ससुराल का दिल अवश्य जीत लूँगी। रूप गुण के साथ मैंने म्यूज़िक में एम.ए भी किया था। मैं आत्मविश्वास से भर उठी।
जैसे ही डोली ससुराल घर के सामने रुकी दिल एकबारगी ज़ोरों से धड़क उठा। जेठानी ने सहारा देके उतारा। मैं धीमे-धीमे चलने लगी। अचानक झटका सा लगा देखा पति तो बिना पीछे देखे तेज़ क़दमों से चले जा रहे हैं। मेरे आँचल खिंचा जा रहा था किसी बेज़ुबान गाय या बकरी की तरह घसीटती हुई मैं दरवाज़े तक पहुँच गई। कुछ रस्में पूरी कर मुझे सोफ़े पर बिठा दिया।
घर में शादी सा माहौल न था न ही नई दुल्हन को देखने का चाव था। रिश्तेदार जाने की जल्दी मचा रहे थे। मिठाइयों के बँटवारे पर शोर-गुल मचा था। मेरा सिर दर्द से फट रहा था पर चाय की एक प्याली तो दूर किसी ने पानी भी नहींं दिया। सास-ससुर जेठ सब शादी में जो कमियाँ रह गईं उसके लिए एक-दूसरे पर दोषारोपण कर रहे थे।
धीरे धीरे वातावरण में शांति छा गई। जैसे-तैसे डिनर कर सब सोने की तैयारी में थे। मुझे भी लगभग ठेल कर पति के कमरे में भेज दिया गया। कमरे में जाकर पाया पति तो खर्राटे भर कर सो रहे हैं। मन मसोस कर रह गई। सोचा बेचारे थकावट की वज़ह से सो गए होंगे। मुझे ऐसा प्रतीत होता था कि पति मुझसे कटे-कटे से रहते हैं। सोचा शायद भरे परिवार में बातचीत से शर्माते होंगे। कुछ ही दिनों में हम पति की कार्यस्थली उदयपुर आ गए। सामान का ट्रक पहले ही पहुँच गया जो कुछ ख़ास मित्रों ने सरकारी फ़्लैट में लगवा भी दिया था।
मुझे अपने नए घर की बागडोर सँभालने का बहुत उत्साह और चाव था। पैर ज़मीन पर नहीं पड़ रहे थे। अपनी कार्यकुशलता और रूप गुण से सहज ही इनका दिल जीत कर आदर्श पत्नी बन पति के दिल पर राज करूँगी। तीन-चार दिन तो पति के दोस्तों के घर दावतें चली। आख़िर वह दिन भी आगया जब मुझे अपने घर की ज़िम्मेदारी सँभालने का शुभ अवसर मिल ही गया।
विवाह के बाद इनके ऑफ़िस जाने के पहले दिन मैंने बड़े ही मनोयोग से खाना बनाया। दाल, चावल, सब्ज़ी और खीर बनाकर टिफ़िन पैक कर इन्हें दे दिया। पूरे दिन सोचती रही आज मेरी पाककला की परीक्षा है टिफ़िन खोलेंगे तो ख़ुश हो जाएँगे शाम के लिए हल्का सा नाश्ता बना मैं बेक़रारी से पति की राह देखने लगी। पति आए साथ में लाए एक कड़वा सा उलाहना।
घर आते ही बैग एक ओर रख मुझे ज़ोर से आवाज़ देकर बुलाया गया मैंने सोचा चाय या पानी कुछ चाहिए होगा मगर मामला कुछ और ही था। डाँट कर बोले मैं ऑफ़िस जाता हूँ या पिकनिक मनाने जाता हूँ। आज टिफ़िन में क्या-क्या भर दिया था। इस हिसाब से मुझे टिफ़िन देती रही तो मेरी सेहत तो ख़राब करोगी ही साथ में महीने का बजट भी गड़बड़ा जाएगा। महीने का राशन पन्द्रह दिन में ख़त्म कर दोगी। उसके बाद का राशन तुम्हारे मायके से आएगा क्या। यह सब सुन मैं बुरी तरह आहत हो गई। चाय बनाने के बनाने के बहाने किचन में चली गई। यत्न से रोके आँसू बह निकले।
याद आया माँ ने समझाया था कि आंरभ में नए घर मे सामंजस्य में कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है पर साथ-साथ रहते-रहते एक दूसरे के साथ रहते हुए स्वभाव और आदतों को जानकर सब कुछ सामान्य हो जाता है। यही सोच मन को सांत्वना देकर नई गृहस्थी की डगर पर चल पड़ी। कुछ ही दिनों के बाद यह समझ आने लगा कि यह रास्ते आड़े-तिरछे होने के साथ बहुत ऊँचे-नीचे भी हैं। असल में बचपन से इनके मन में पुरुषत्व को ऊँचाई पर नारीत्व को नीचे और हेय समझने का भाव अंकुरित हो कर अब एक मज़बूत पेड़ में बदल चुका था। मेरा रूप-रंग, शिक्षा, कार्यकुशलता इनके सामने नगण्य थी। अब तो रोज़ ही यह मेरे कार्यों में मीन-मेख निकाल डाँटने का अवसर खोजते रहते। मैं लोक-लाज के डर से ज़ुबान पर ताले लगा लेती।
इनका क्रोध प्रदर्शन भी इतनी ऊँची आवाज़ में होता कि साथ वाले फ़्लैटों के खिड़कियाँ और दरवाज़े पटा-पट खुलने लगते। एक दिन तो अपमानित करने की सीमाएँ पार कर दीं। पड़ोस की अय्यर भाभी इडली लेकर आई, बोली, “आज रविवार है मेरे हाथ का बना नाश्ता करिए।” उन्होंने जैसे ही प्लेट मेरी ओर की इन्होंने प्लेट अपनी ओर ले ली। मुझे देखकर बोले, “अरे भाभी बन्दर क्या जाने अदरक का स्वाद।” मैं दोनों देखती रह गई। बोले, “यह क्या जाने इडली बनाना और खाना।” अय्यर भाभी चुपचाप चली गई। इनके द्वारा अपमानित तो बहुत हुई थी पर ऐसे किसी ग़ैर के सामने पहली बार थी; मन मे गहरी टीस उठी।
कुछ समय बाद जब मुझे पता चला कि मुझे मातृत्व सुख मिलने वाला है तो मैं फूली न समाई। सोचने लगी, जब पति को यह ख़ुशख़बरी दूँगी तो कितना ख़ुश होंगे। सारा ग़ुस्सा ताने उपालंभ भूल कर रह जाएँगे। शाम की चाय के समय मैंने संकोच से इन्हें संकेत दिया कि वो पापा बनने वाले हैं। यह सुन कर बजाए ख़ुश होने के यह अनमने से होकर बोले, “अरे इतनी जल्दी यह मुसीबत,” फिर कुछ सोचते हुए बोले, “ठीक है, ठीक है, दो महीनों बाद अपने मायके वालों से कह देना आकर तुम्हें ले जाएँगे; डिलीवरी भी वहीं हो जाएगी। अम्मा तो दौड़ भाग कर नहींं सकती, घुटनों के दर्द से लाचार है।” मैंने डरते-डरते पूछा मेरे जाने पर आपकी देखभाल कौन करेगा। यह सुनकर कर यह फिर अपने चिर-परिचित मूड में आ गए। चिल्ला कर बोले, “तुम्हें जैसा कहा गया है वैसे करो; फ़ालतू की बहस मत करो। अपने जाने की तैयारी करो।”
कुछ समय बाद ही भाई साहब मुझे लिवा कर ले गए। पति देव ने भाई साहब से सिर्फ़ औपचारिक बाचीत की। क़रीबी रिश्तेदार वाली कोई बात नहींं थी। घर पहुँच कर भैया बोल ही पड़े। कहने लगे, “मुझे तुम्हारे पति का स्वभाव कुछ अटपटा सा लगा। हँसी-मज़ाक तो बहुत दूर उन्हें तो मैंने मुस्कुराते तक नहीं देखा।” यह सुनकर मैं सकपका गई। बात को सँभालते हुए बोली, “भाई साहब ऑफ़िस में काम का बहुत दबाव है। ऐसे में मेरा मायके आ जाना, यही सब उन्हें उदास कर गया होगा।” सादा दिल भाई साहब ने मेरी बात पर विश्वास कर लिया।
मायके में मेरी ख़ूब सेवा हुई। ख़ुशहाल वातावरण में समय पंख लगा कर उड़ गया। मेरी डिलीवरी का समय भी आ गया। लेबर-पेन शुरू होते ही मुझे अस्पताल ले गए। पापा ने मेरे ससुराल और पति दोनों ओर सूचना भिजवा दी। आठ घण्टे की कठिन प्रसव पीड़ा सहते-सहते पति और ससुराल वालों को भी अपने पास देखना चाहती थी, पर निराशा ही हाथ लगी। लेडी डॉक्टर ने जब जुड़वाँ बच्चे होने की ख़बर दी तो मन ख़ुशी से नाच उठा। मेरा मातृत्व एक बेटा और एक बेटी पाकर निहाल हो गया। मैंने ईश्वर को धन्यवाद देते हुये हाथ जोड़ दिये। भैया और पापा मिठाइयाँ बाँट रहे थे। अम्मा और भाभी मेरी सेवा में जुट गए। ऐसे में निर्विकार चेहरा लिए पति आ खड़े हुए। बच्चों को देख कर चेहरे पर न प्रसन्नता न रौनक़ आई। बस बच्चों को देखते रहे। दो दिन अजनबियों की तरह रुक कर वापिस चले गए। ऐसा लग रहा था मानो यहाँ आकर हम सब पर बहुत उपकार किया हो। जाते-जाते भैया को फ़रमान सुना गए। सवा महीना होते ही सुमन को उदयपुर पहुँचा जाना। मुझे घर के काम-काज में बहुत परेशानी हो रही है।
सवा महीना पूरा होते ही भाईसाहब मुझे उदयपुर छोड़ने आए। मायके में तो अम्मा और भाभी के सहयोग से बच्चे सँभल रहे थे पर यहाँ उदय पुर आकर कमज़ोरी की हालत में बच्चों को सँभलना एक चुनौती से कम नहीं था। भाई साहब ने जाते-जाते इन से कहा कि सुमन के लिए दो बच्चों के साथ घर का कामकाज सँभालना कोई आसान काम नहीं है आप जल्दी ही कोई काम वाली रख लीजिए। भैया के सामने तो इन्होंने हामी भर दी पर उसके लिए कोई प्रयास नहीं किया।
अब मेरी अग्नि परीक्षा शुरू हो गई। कमज़ोर शरीर के साथ बच्चे सँभालना और घर का सारा काम करना कोई हँसी खेल न था। काम वाली बाई रखने की कोई संभावना नहीं दिख पड़ रही थी। आख़िर एक दिन मैंने ही हिम्मत करके कहा, “राकेश मैं पड़ोस में पता करती हूँ किसी काम वाली का। इधर आस-पास बहुत घरों में आती हैं।” यह सुन कर इनकी त्योरियों में बल पड़ गए। ज़ोर से बोले, “मेरी इतनी हैसियत नहीं है कि बाई रखूँ। अगर ख़ुद को कोई राजरानी समझती हो तो मायके से लेकर आना था।” मैं यह सुन कर सन्न रह गई। अच्छी-ख़ासी पोज़ीशन पर है पर घर ख़र्च पर इतनी कंजूसी क्यों; समझ नहीं पाई। अपनी अम्मा, बहन और भाभी के लिए तो दिल खोल कर तोहफ़े देते हैं। अभी कुछ समय पहले ससुराल से सब आए थे तब तो दिल खोल कर ख़र्च किया था। बात धीरे-धीरे समझ आने लगी। यह अभी तक मुझे पराये घर से आई समझते हैं। मेरे लिए इनके दिल में न प्यार है न परवाह। इसी को अपना भाग्य मान मैंने नए सिरे से स्वयं को समेटा और जीवन युद्ध लड़ने के लिए तैयार हो गई।
दिन, महीनें, साल गुज़रने लगे। बच्चे भी बड़े हो रहे थे। मैंने अपना पूरा ध्यान बच्चों की देख-रेख में लगा दिया। बच्चों को देख मैं निर्मोही पति को और उसकी ज़्यादतियों पर ध्यान न देती। हमेशा सोचती पति ने तो पराया कर दिया कहीं बच्चों का स्नेह प्यार न खो दूँ। मेरा समर्पण किसी काम न आया पति किसी न किसी बात पर खटपट लगाए रहते थे। मैं सुध-बुध भूल कर काम में लगी रहती। तन बदन की सुध-बुध न रहती। एक दिन मुझे देख कर बोले, “तुमसे अच्छी तो काम वाली बाई रहती है। सस्ते कपड़े होते हैं, पर सलीक़े से रहती है। तुम तो उनसे भी बदतर लगती हो।” यह सुन मैं ख़ून का घूँट पीकर रह गई। राकेश के ऑफ़िस जाने के बाद मैंने दर्पण में ख़ुद को निहारा। पति की यह बात तो मुझे सही लगी। घर परिवार के लिए त्याग करते मैंने अपने रूप-रंग को भुला दिया था।
उस दिन मैंने राकेश के ऑफ़िस आने से पहले ख़ुद पर कुछ समय दिया। मैंने नहा कर गुलाबी साड़ी पहनी। हल्का मेकअप करके आँगन में लगे मोंगरे के फूलों से वेणी गूँथ कर जूड़े में सजा ली। बच्चे भी मेरा यह रूप देख कर मुस्कुराने लगे। अपने होश सँभालने के बाद शायद पहली बार उन बेचारों ने मुझे सजा सँवरा देखा था। मैं बेक़रारी से राकेश की प्रतीक्षा करने लगी। आज तो चैंका दूँगी। सारी शिकायतें दूर हो जाएँगी।
शाम को राकेश आए पर मुझे देखकर त्योरियों में बल डाल कर बोले, “यह क्या नाचने वालियों की तरह गजरे लगा कर बैठी हो, उतारो यह सब मुझे नहीं पसन्द यह सब चीप फ़ैशन।”
यह सुन कर ग़ुस्से से बुरा हाल हो गया। शादी का बाद पहली बार मैंने अपने क्रोध को बेक़ाबू होते देखा। मैंने ग़ुस्से में वेणी नोच कर पति की ओर फेंक दी। जूड़ा खोल दिया और चिल्लाई, “हाँ मैं नाचने वाली बाई हूँ देखोगे मेरा नाच।” मेरा यह रौद्र रूप देखकर बच्चे भी सहम गए। मै बच्चों को घसीटती हुई अपने कमरे में ले गई और दरवाज़ा बंद कर लिया। सालों-साल से दबाया हुआ आक्रोश आज आँसुओं की बरसात करने लगा। पहली बार घर मे खाना नहीं बना। सब भूखे ही सो गए। मैं बच्चों को सीने से लगा सारी रात रोती रही। ।
दोनों बच्चे समय से पहले ही समझदार हो गए थे। दोनों मन लगा कर पढ़ाई करते। उन्हें मालूम था पूरे घर ख़र्च के लिए हम राकेश जी पर आधारित थे। पढ़ाई में ज़रा सी भी लापरवाही होने पर मम्मी को दोषी मान कर प्रताड़ित किया जाएगा।
इसी तरह धूप और छाँव के मौसम में जीवन नैया को खेते चलती जा रही थी पर बच्चों ने मज़बूत पतवार का काम किया।
अचानक कॉल बैल की तेज़ आवाज़ से मैं यादों के गहरे समुंदर से उबर कर बाहर आ गई। यादों की लहरों से मेरा मन भीग गया था। जल्दी से दरवाज़े की ओर दौड़ी, दरवाज़ा खोला तो पाया बेटा चेहरे पर चिन्ता के भाव लिए खड़ा था, बोला, “क्या हो गया था मम्मी? कब से कॉल बैल बजा रहा था आप खोल क्यों नहीं रहे थे। मैं तो बहुत घबरा गया था।”
मैंने झेंप कर जवाब दिया, “बस थकावट से नींद लग गई थी।” कैसे कहती कि मैं अतीत के गहरे सागर में उतर कर सब कुछ भूल गई थी। बेटी भी कॉलेज से आ गई थी। मैंने तीनों का खाना परोसा और मिल-जुल के खाने लगे। यह समय मुझे बहुत ही सुखद लगता है।
बच्चे खा पीकर अपने कमरों में चले गए। कुछ देर विश्राम के बाद पढ़ाई में जुट जाएँगे। दोनों का फ़ाइनल में एक महीना बाक़ी था। दोनों कठिन मेहनत से परीक्षा की तैयारी कर रहे थे। इसके बाद तो उन्हें आगामी उच्च शिक्षा के लिए दूसरे शहर में होस्टल या पी जी में। रहना होगा। मैं उनके जाने के बाद अपने अकेलेपन के बारे में सोच कर घबरा जाती।
मेरे दोनों बच्चे मेरे सूरज थे और मैं उनकी धरती। मैं सूरज के चारों ओर चक्कर लगाती रहती। सूरज के चले जाने पर मेरी गति ही रुक जाएगी। वही पति द्वारा दी गई प्रताड़नाएँ तंज़ जिन्हें मैं बच्चों के प्यार में डूब कर प्रायः भूल चुकी थी। जब कभी यह डाँटना शुरू करते मैं बच्चों के। कामों में लग उसे अनसुना करदेती। बच्चे बड़े हो गए तो समझने लगे कि पापा के स्वभाव में नेगिटिव बातें ज़्यादा होती हैं। अपने को सर्व कार्य कुशल समझते हैं और दूसरों को हेय दृष्टि से देख कर कटाक्ष करना व्यंग्य करना उन्हें बहुत भाता है। दोनों बच्चे मुझे समझाते, “मम्मी आप पापा की बातें एक कान से सुनो, दूसरे से निकाल दिया करो। यह सब उनकी आदत में शुमार हो चुका है वह नहीं बदलेंगे”। मैं भी बच्चों की सलाह मान मस्त रहने लगी थी। पति की अनुपस्थिति में मनपसन्द गीत गाती। संगीत में एम.ए. थी इसलिए पति द्वारा मिली उपेक्षा संगीत की नदियाँ में डुबो देना चाहती थी पर इसकी भी इजाज़त नहीं थी।
बच्चों के फ़ाइनल ख़त्म हो कर रिज़ल्ट्स भी आ चुके थे। जहाँ मुझे बच्चों की सफलता पर ख़ुश होना चाहिये था, उसके स्थान पर एक अलग सी घबराहट और अवसाद ने घेर लिया था। दरअसल अब आगे की पढ़ाई के लिए बच्चों को उदयपुर से बाहर जाना था। बेटे को मुंबई और बेटी को पुणे जाना था। बच्चे ख़ुद ही अपने लिए दौड़-भाग कर रहे थे। पापा का कर्त्तव्य उनके अकाउंट में रुपये ट्रांसफ़र करने मात्र की ज़िम्मेवारी थी। एडमिशन, होस्टल के लिऐ कितनी भाग-दौड़ थी, सब बच्चे स्वयं ही कर रहे थे। अपने दोस्तों के अभिभावकों से सलाह कर रहे थे। यह सब देख मैं अवसाद और उदासी में डूबती जा रही थी; मैं फिर अकेली तन्हा रह जाऊँगी। यह सोच कर अवसाद ने घेर लिया। किसी काम मे मन न लगता।
आज मातृ दिवस था। सवेरे ही बच्चे फूल लेकर चरण स्पर्श करने आए तो बहुत अच्छा लगा। मैंने भी बड़े चाव से उनका मनपसन्द खाना बनाया। दोपहर में सबने मिल कर बड़े ही अच्छे माहौल में खाना खाया। मैं बर्तन समेट किचन में जाने ही वाली थी कि बच्चे एक चंचल मुस्कान अपने चेहरों पर लाकर अपने कमरे से एक नया हारमोनियम लाते दिखे। मैं आश्चर्य मिश्रित ख़ुशी से उन्हें देखती रह गई। वह हारमोनियम मेरे सामने रख कर बोले, “मम्मी यह मदर्स डे का उपहार है।” मैंने हैरानी से पूछा कि इतने रुपये तुम्हारे पास कहाँ से आए। वो हँस कर बोले माँ चिंता न करो यह रुपए हमने अपनी पॉकेट मनी से बचाये हैं और कुछ छोटे बच्चो की ट्यूशन लेकर इकट्ठे किए। मेरा मन हारमोनियम को देख नाच उठा। मैंने बच्चों को गले लगा लिया। बच्चे बोले मम्मी जब पापा ऑफ़िस चले जाया करें तो पीछे से आप रियाज़ किया करो। मैंने हार्मोनियम बच्चों के कमरे में छिपा कर ढक दिया। मेरे शरीर में बिजली की स्फूर्ति सी आ गई। राकेश जी के जाते ही मैं तुरन्त काम ख़त्म कर नहा धोकर रियाज़ करने बैठ जाती। समय का पता ही नहीं चलता। मैं अपने सारे दुख दर्द भूल गई।
हर साल की तरह इस साल भी हमारी सोसायटी की ओर से होली का उत्सव मनाया जा रहा था। सोसाइटी के क्लब में नृत्य, रंगोली, छोटे बच्चों के लिए फ़ैंसी ड्रेस के कार्यक्रम आयोजित होते, जिन में लोग बड़े उत्साह से भाग लेते। मेरी बेटी नीरा ने इस बार गायन प्रतियोगिता में मेरे न ना करने के बावजूद नाम लिखवा दिया।
मैंने कहा बहुत समय से किसी आयोजन में गाया नहीं है मुझसे नहींं गाया जाएगा। बेटी ने धैर्य बँधाया कि आजकल आप रियाज़ तो कर ही रही हो बहुत अच्छा गाओगी।
अगले दिन शाम को बेटी के साथ सोसाइटी क्लब जा पहुँची। अगली पंक्ति में जा बैठी। दिल ज़ोरों से धड़क रहा था। जब मेरा नाम पुकारा गया तो मैंने मन ही मन ईश्वर को याद किया। स्टेज पर जाकर मेरी अपने दोनों बच्चों पर नज़र पड़ी। दोनों बहुत ही उम्मीद लगा कर उत्सुकता से मेरी ओर देख रहे थे। वो मुझे सफल होते देखना चाहते थे। मेरे मन से यह आवाज़ आई ’सुमन उतार दे इस निराशा और अवसाद के चोले को। अपने बच्चों की आशाओं का मान रख’। पता नहीं कैसे आत्मविश्वास से भर उठी और होठों से मीठे स्वर निकलने लगे। अनुराधा फ़िल्म का मशहूर गाना ’हाय रे वो दिन क्यों न आए जा जा के ऋतु लौट आए सूनी मोरी वीणा’ संगीत बिना गाते-गाते मैं इतनी लीन हो गई कि तेज़ तालियों की गड़गड़ाहट से मैं चेतन हुई। मेरे गाने को बहुत सराहा गया। लोग खड़े होकर तालियाँ बजा रहे थे। प्रथम पुरस्कार भी मेरे नाम आया। बच्चों की ख़ुशी का ठिकाना न था।
स्टेज से उतरते ही लोगों ने घेर लिया और उसके उत्कृष्ट गायन के लिए बधाई देने लगे। तभी भीड़ में रास्ता बनाते हुए एक सज्जन आगे बढ़े। मुझे सम्मान पूर्वक अभिवादन कर के बोले, “सुमन जी आपके गायन को सुन कर आपसे एक अनुरोध करना चाहता हूँ।”
मैंने कहा, “कहिए।”
वो सज्जन बोले, “आपके शहर में अगले महीने लायन्स क्लब की ओर से बहुत बड़ी गायन प्रतियोगिता का आयोजन होने जा रहा है। देश के नामचीन गायक आ रहे हैं जो जो जज होंगे। यह सब नई प्रतिभाओं को परखने का एक तरीक़ा है। आप इसमें भाग लीजिये। हमें बहुत ख़ुशी होगी।”
यह सुन कर मैंने घबराते हुए कहा, “देखिए मैं तो बहुत ही मामूली गायिका हूँ। मैं इतने बड़े आयोजन में शिरकत न कर पाऊँगी। माफ़ी चाहती हूँ।”
सज्जन बोले, “हीरा अपना मोल नहीं जानता। आप कोशिश करिए अपनी प्रतिभा को संकोच या किसी डर की वज़ह से मत छिपाएँ।”
क्लब के अन्य सदस्य भी इस प्रस्ताव से सहमत थे। बच्चों की मौन स्वीकृति से मैंने भी हामी भर दी। बच्चे मेरी इस सफलता पर फूले न समा रहे थे। मैं मन ही मन डर रही थी मुझे पता था राकेश इस प्रस्ताव से कभी सहमत न होंगे। मैं घर में आने वाले एक बड़े बवंडर से निपटने के लिए ख़ुद को तैयार करने की कोशिश कर रही थी।
पूरे शहर में इस गायन प्रतियोगिता के प्रचार के लिये पोस्टर लग रहे थे। जजमेन्ट करने वाले बड़े संगीतकारों की नाम सहित तस्वीरें लगाई जा रहीं थीं। प्रतियोगियों के नाम भी लिखे हुए थे। पोस्टरों पर मेरा नाम देख जहाँ एक ओर बच्चे नाच उठे वहीं राकेश जी ने घर में भयंकर हंगामा कर दिया। पति ऑफ़िस से आते हुए पोस्टर पर मेरा नाम देख आग बबूला होकर घर आए। घर मे घुसते ही ऊँचे स्वर में चिल्लाने लगे। “सुमन तुमने मुझसे पूछे बिना इतना बड़ा दुःसाहस कैसे कर लिया। नहीं तुम हरगिज़ इस प्रतियोगिता में भाग नहींं लोगी”। उनके ऊँचे स्वर को सुनकर आसपास की खिड़कियों से लोग झाँकने लगे। “कल ही जाकर अपना नाम वापिस ले लो। मेरे घर में यह गाना बजाना नहीं चलेगा”। हम सब शांत रहे। सब बिना खाना खाये ही सो गए।
प्रतियोगिता के दिन हम तीनों ने राकेश जी के ऑफ़िस से घर आने से पहले ही निकल जाने की योजना बना डाली। मैंने अपनी मनपसन्द गुलाबी शिफ़ॉन की साड़ी पहनी, हल्का सा मेकअप कर तैयार हो गई। बच्चे उत्साह में रँगे पहले ही तैयार हो कर खड़े थे। आयोजकों ने गाड़ी भिजवाई थी, राकेश जी के घर पहुँचने से पहले ही हम तीनों ने शहर के टाउन हॉल में अपनी जगह ले ली। जाने-माने गायक, गायिकाओं और संगीतकारों का अनोखा सम्मलेन था। जिनके नाम और तस्वीरें ही अख़बारों और पत्रिकाओं में देखी थीं उन्हें आँखों के सामने देख विश्वास नहीं हो पा रहा था। बच्चे भी यह देख हैरान थे। हॉल के चारों ओर कड़ी सुरक्षा थी। कोई परिंदा भी पर नहीं मार सकता था। कार्यक्रम आरंभ हुआ तो समा बँध गया। मैं मन ही मन घबरा रही थी। मेरी बारी आने पर बच्चों ने गले लगा कर शुभकामनाएँ दीं। अनोखे आत्म विश्वास में भर कर स्टेज पर गई।
मैंने राजस्थान का प्रसिद्ध लोक गीत ’केसरिया बालमा आवो सा पधारो म्हारे देस……केसरिया’ मेरा गाना शुरू होते ही पूरे हॉल में सन्नाटा हो गया। लोग तन्मय होकर संगीत लहरी में डूब गए। मैं भी डूब के गाती रही। सभी कलाकारों ने अच्छा गाया। कार्यक्रम समाप्त होने पर सभी कलाकारों को हॉल के पिछले गेट से गाड़ियों में बिठा कर ले जाया गया। श्रोताओं के लिए सामने का गेट था सामने वाले गेट पर बच्चे मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे ज्यों ही उन्हें कार में बैठाने के लिए मैंने गाड़ी रोकी मेरी नज़र राकेश पर पड़ी। दूर वाचमैन के साथ खड़े थे। हमें देखते ही आग्नेय दृष्टि बरसाते हुये तेज़ी से आगे बढ़े, मैं मन ही मन अज्ञात आशंका से काँप गई। कहीं आज यहीं हमारा तमाशा न बन जाए। अचानक एक बड़ी भीड़ के रेले में वो फँस गए और निकल नहीं पाए। हमने गाड़ी आगे बढ़ा दी।
घर पहुँच कर अब हमें घर का मोर्चा सँभालना था। बच्चों को जल्दी से खाना खिला उनके कमरों में भेज दिया, स्वयं एक बड़े तूफ़ान का सामना करने के लिए प्रतीक्षारत हो गई। थोड़ी सी देर में ही राकेश किसी बवंडर भरे तूफ़ान की तरह आ पहुँचे। आते ही ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगे, “कर दिया न मेरी इज़्ज़त का कबाड़ा। तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई घर से बाहर निकलने की” और न जाने कितने बेहूदा आक्षेप से मेरे चरित्र को तार तार कर दिया। मैं ख़ामोशी से सिर नीचा कर बैठी रही। अचानक तानाशाही फ़रमान सुनाया कि अब मेरा और तुम्हारा एक छत के नीचे गुज़ारा नहीं है। तुम अपने मायके जा सकती हो। यह सुनकर मैं स्तब्ध रह गई। मैं जानती थी कि इनकी यह बात अकाट्य है। कोई भी इनकी बात को बदल नहीं सकता, जो कह दिया वही होगा। उस रात मेरे स्वाभिमान को गहरी चोट लगी थी। 24 साल घर-परिवार की बिना किसी शर्त के सेवा करती रही, आज जो एक पल अपने दिल की ख़ुशी के लिए जी लिया तो तूफ़ान खड़ा कर दिया। इस उम्र में मायके जाऊँगी सोच कर हैरान थी।
अगले दिन सवेरे रोज़ की तरह स्वभाविक तौर पर अपने काम में लग गई। यद्यपि दिल में तो विचारों की सुनामी आई हुई थी। बच्चों के जाने के दो दिन बाक़ी थे। मेरी पूरी कोशिश थी कि बच्चे हँसी-ख़ुशी विदा हों और आगे की पढ़ाई शुरू करें। आज पहली बार यह मौन व्रत धारण किए, बिना टिफ़िन लिए ऑफ़िस के लिए निकल गए। मैं बच्चों के जाने की तैयारी में जुट गई। अचानक मोबाइल की घण्टी से ध्यान भंग हुआ। फोन मुंबई से था। कल के गीत संगीत में शामिल हुए एक बड़े संगीतकार का था। श्री चौधरी ने कहा, “सुमन जी कल के कार्यक्रम में मैंने आपका गायन सुना। वास्तव में आपका गाना बेहद अच्छा था। मुझे दो फ़िल्मों में संगीत देना है मैं फ़िमेल गाने आपसे गवाना चाहता हूँ। कृपया मेरे इस प्रस्ताव पर सोच-समझ कर, विचार कर कल शाम तक इसी नम्बर पर अपना जवाब दें। यह बात आपसे ज़रूर कहना चाहता हूँ कि ऐसा मौक़ा लोगों को सालों के संघर्षों के बाद भी नहीं मिलता। यह आपके हुनर और तक़दीर का कमाल है जो घर बैठे यह अवसर मिल रहा है।”
यह सुन के मैं हाथ का काम वहीं छोड़ हैरान-परेशान सी ज़मीन पर बैठ गई। बच्चे यह देखकर घबरा गए। मुझे पानी पिला पूछने लगे मम्मी क्या हुआ ? सब ठीक तो है किसका फोन था। मैं कुछ बोल नहीं पा रही थी। कुछ देर बाद सब सामान्य होने पर सारी बातें बच्चों को बताईं। नई सोच, नए विचारों वाले ख़ुशी से नाच उठे बोले, “मम्मी कमाल हो गया। आपको तो सेलिब्रेट करना चाहिए। आप कल मुंबई वाले अंकल को हाँ करके अपने आगे की ज़िंदगी को सुधारो।” मैं बात को काट कर बोली, “अपने पापा को जानता है न; वह कभी नहीं मानेंगे।”
बेटा बोला, “आज तक तो उनकी मनमर्ज़ी से ही करती आई हो। कितना मान-सम्मान आपको मिला इससे आप बख़ूबी वाकिफ़ है। आप यह मौक़ा छोड़ भी देती हैं तो उन्होंने वही करना है जो अभी तक करते आए हैं। मैं परसों मुंबई जा ही रहा हूँ मेरे साथ चलो।”
अब मैं भी समझ गई थी कि रुकने के बाद भी मेरा कुछ भला नहीं होने वाला। मैंने देर न लगाई। अपने संदूक के तल से मायके से मिले सोने के दो कंगन निकाले और ज्वेलर्स की दुकान पर बेच आई। मुंबई जाने के लिए रुकने के लिए पैसा भी तो चाहिए था। अपनी एक मात्र हितैषी अय्यर भाभी जी को बुला सब बातें समझा दीं। घर की एक चाबी देकर समझा दिया राकेश जी के ऑफ़िस जाने के बाद बाई को सफ़ाई, कपड़े आदि धोने को कह देना। बाई का एक महीने का एडवांस भी दे दिया। मेरे जाने के बाद अगर कोई पूछे तो कहना बेटे के साथ मुंबई ऑडिशन के लिए गई है। मुंबई में हम म्यूज़िक रिहर्सल स्टूडियो के पास एक गेस्ट हाऊस में ठहर गए। अगले दिन ही ऑडिशन हुआ फिर रिहर्सल आंरभ हो गए। बेटे ने भी अपने कॉलेज और होस्टल का पता किया। अब मैं स्टूडियो चली जाती थी बेटा कॉलेज और होस्टल की औपचारिकता पूरी करने लगा। बेटी भी पुणे होस्टल चली गई थी।
मैं शाम को एक बार नियम से अय्यर भाभी जी को फोन कर लेती। उन्होंने बताया कि बहुत से कॉलोनी वाले तुम्हारे बारे में सुन कर बहुत ख़ुश हुए। वो इकट्ठे होकर राकेश जी को बधाई देने गए। मैं भी भीड़ में अंदर चली गई। वो सब तुम्हारी और तुम्हारी गायकी की बहुत प्रशंसा कर रहे थे। कुछ पड़ोसी तो राकेश जी को आप जैसी गुणी पत्नी मिलने के लिये भाग्यशाली बता रहे थे। उस समय राकेश जी चेहरे की रंगत बदल गई थी। वो खिसियाने से होकर सबको धन्यवाद कह रहे थे।
यह सुनकर मुझे अच्छा लगा। चलो किसी ने तो मेरी कला को सराहा। लगभग एक सप्ताह बीता होगा अचानक रिहर्सल के दौरान अय्यर भाभी का फोन आया। मैंने घबरा कर रिहर्सल बन्द कर अय्यर भाभी जी से बात की। वो बोली, “सुमन ग़ज़ब हो गया। आज राकेश जी सवेरे सवेरे ही रुआँसे से हुए हमारे घर आ गए। बोले सुमन का फोन नम्बर या कोई पता ठिकाना हो तो बता दें।”
हमने पूछा, “क्या बात हो गई तो सिर नीचा कर के बोले मैं स्वार्थी और घमंडी हूँ। मैंने अपने अहम के आगे सुमन जैसी गुणी पत्नी का तिरस्कार करता आया। आठ दिन में ही मुझे सुमन की अहमियत का अंदाज़ा हो गया। मैं उससे और बच्चों से मिलकर माफ़ी माँगना चाहता हूँ। यह कहकर फूट फूट कर रो पड़े। अय्यर साहब ने उन्हें चुप करा कर सांत्वना दी। उन्हें कहा कि हम सब मिल कर मुंबई जाएँगे। वहाँ आप सुमन जी और बच्चों के साथ रहना।”
अय्यर भाभी जी की बातें सुन के मेरी ख़ुशी का ठिकाना न रहा। चलो देर आए पर दुरुस्त आए। मैंने बच्चों को फोन कर यह ख़ुशख़बरी सुनाई। तो दोनों मारे ख़ुशी के नाच उठे बोले, “वाह मम्मी यह तो रेगिस्तान में रिम झिम शुरू हो गई!”
सब ज़ोर से हँस पड़े।