बस, अब और नहीं

01-08-2023

बस, अब और नहीं

नीलू चोपड़ा (अंक: 234, अगस्त प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

 

शीतल कॉलेज से घर लौटी तो सामने बरामदे में ही विमला मौसी, अम्मा के साथ दबे स्वर में बातें करती हुई दिखाई दीं। शीतल का माथा ठनका, लगता है। मौसी उसके लिए कोई रिश्ता लेकर आईं होंगी। शीतल के लिये यह अवसर बहुत तनावप्रद होने लगा था। अपने माता-पिता के वैवाहिक जीवन का कटु अनुभव उसके दिल दिमाग़ में स्थायी घर बना चुका था वर और वधू के चयन के समय होने वाली अनेकों औपचारिकताओं से उसे वितृष्णा सी हो गई थी। उसके रूप-रंग को देख, उसके लिए कुछ रिश्ते आए तो थे परन्तु कहीं लड़का कम पढ़ाई किए दुकानदारी करता था तो कोई अमीर बाप की बिगड़ी सन्तान था। इसलिए कभी इधर तो कभी उधर से, किसी न किसी कारण बात आगे बढ़ ही नहीं पाई थी। 

उसके पिता हुक्मचंद, बहुत मुँहफट, बेहद कंजूस, ग़ैर ज़िम्मेदार और हठी क़िस्म के व्यक्ति थे। शीतल बचपन से ही देखती आई थी कि उनके घर में सदैव दादी और पिता का ही राज चलता था। शीतल की अम्मा सरला एक निर्धन परिवार से थीं परन्तु बहुत रूपवती थीं। अम्मा, अपनी बेटी शीतल को अपनी यह आपबीती बहुत बार सुना चुकी थी। युवा सरला की अनोखी, अलौकिक सुंदरता पर रीझ कर ही तो हुक्मचंद और उसकी अम्मा उसे अपनी घर की बहू बना कर ले आए थे परन्तु कुछ समय बाद, धीरे धीरे उनका सारा चाव उतर गया क्योंकि जब उन्होंने देखा कि हुक्मचंद के हमउम्र मित्रों की शादियों में उन्हें समाज के रीति-रिवाज़ों के अनुसार बहुत सा दान दहेज़ भी मिला था। उनमें से कुछ वधुएँ तो पढ़ी-लिखी भी थीं। यह देख हुक्मचंद और उसकी अम्मा अपने को बहुत ठगा-सा महसूस करने लगे थे। बस अब उनका सारा आक्रोश, बेक़ुसूर सरला पर निकलने लगा। वो दोनों बात बात पर सरला को प्रताड़ित करने का अवसर खोजने लगे। उसकी सास ने घर के सारे काम-काज की ज़िम्मेदारी सरला पर लाद दी। वह स्वयं मन्दिरों में जाकर घण्टियाँ बजाती घूमने लगी। अब वह जल्दी ही घर में पोते की किलकारियाँ सुनने के लिए उतावली हो रही थी। यहाँ पर भी हुक्मचंद और उसकी अम्मा को शिकस्त ही हाथ लगी। साल भर बाद सरला ने एक बेटी को जन्म दिया। बौखलाई अम्मा ने इस दौरान, सरला और बच्ची को न तो समुचित ख़ुराक ही खाने को दी न ही उनकी उचित देखभाल ही की गई। हुक्मचंद के दिल से अब सरला के रूप-रंग का जादू पूरी तरह से उतर चुका था। दुकान बंद कर वह घर न जाकर इधर-उधर दोस्तों के साथ मौजमस्ती करते हुए घूमने लगे। 

हुक्मचंद अपने पिता की दुकान के इकलौते वारिस थे। बचपन में ही उन्होंने, जाने-अनजाने अपने पिता जी से दुकानदारी चलाने के सारे गुर सीख लिए थे। सरला के पास, अब कोई विकल्प शेष नहीं था इसलिए उसने तक़दीर के सामने हथियार डाल दिए। वह एक कठपुतली की तरह अपनी सास और पति की उँगलियों पर नाचने लगी। अब सरला की ज़िन्दगी की गाड़ी एक सीधी सपाट पटरी पर दौड़ने लगी। चंद वर्षों के बाद सरला की सास का एक लम्बी बीमारी के बाद देहांत हो गया। हुक्मचंद अब पहले से भी अधिक मनमानी करने लगे। वह अब प्रत्येक मामले में स्वतंत्र थे। हुक्मचंद अब, सरला को घर के ख़र्च और शीतल की पढ़ाई के लिए चंद रुपए थमा कर अपनी ज़िम्मेदारी से मुक्त हो जाते। वो दुकान बन्द कर अपने मित्रों के साथ मौज मस्ती करने चले जाते और देर रात तक घर वापस आते। 

बचपन से ही शीतल, पितृ प्रेम से वंचित ही रही। उसके पिता ने कभी उसके सिर पर प्यार से हाथ नहीं रखा और न ही उससे पढ़ाई लिखाई के विषय में दिलचस्पी ही ली। हुक्मचंद के ऐसे व्यवहार से दोनों माँ और बेटी, टूट कर रह जातीं। सरला के मन को हमेशा एक कसक सालती रहती थी। वह सोचती कि उसका रूप ही उसका दुशमन बन गया था। उसकी सुंदरता पर रीझ कर ही तो हुक्मचंद ने उससे विवाह किया था। इससे बेहतर होता कि वह किसी ग़रीब घर की बहू बन, अपने व्यवहार और सेवा से ससुराल में प्यार और सम्मान पाती। उसे एक कहावत अपने ऊपर सटीक लगती कि ‘रूप की रोवें, और भाग की खावें’। इस प्रकार सरला और शीतल उपेक्षित-सी अपना जीवन बिताने को मजबूर थीं। 

शीतल यही सब देखते-सुनते समय से पहले ही समझदार हो गई। उसने सोच लिया था कि वो पढ़ाई लिखाई को ही भविष्य में सर्वोच्च स्थान देगी। इस लक्ष्य को पाने के उसने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। उसकी न तो कोई घनिष्ठ सहेली ही थी और न कोई हम उम्र रिश्तेदार। बस वो बचपन से अम्मा ही अपना मित्र मानती। पिता के हाथों अपनी अम्मा की दुर्दशा होती देख कर वो यौवन के विभिन्न रंगों के प्रति उदासीन सी हो गई थी। पढ़ाई पूरी होते ही उसे अपनी योग्यता के बल पर शहर के सबसे बड़े कॉलेज में लेक्चरार की नौकरी भी मिल गई। अब वह आर्थिक रूप से भी स्वतन्त्र थी। शीतल के, विवाह की उम्र भी बीतती जा रही थी। पिता की उपेक्षा और अम्मा की मजबूरी के चलते शीतल के विवाह की कोई चर्चा होती ही नहीं थी। सरला की नज़रों से शीतल की उदासी और अनमनापन छिपा नहीं था। उनके घर पर कभी-कभार आने वाले विवाह के निमंत्रण पत्र, सरला और शीतल के तन बदन में आग लगा देते। इन विवाहों में अकेले हुक्मचंद ही शगुन दे और दावत खा कर आ जाते। 

एक दिन सरला ने अपने सारे मान-अभिमान की तिलांजलि दे कर कर बड़ी हिम्मत जुटा पति को शीतल के विवाह के लिए कोई सुपात्र देखने के लिये याचना करने लगी। यह सुन कर हुक्म चन्द का पारा चढ़ गया। वह सरला को ताना मारते हुए बोले, “क्यों अब तुम माँ और बेटी दोनों की नींद खुल गई? तुम दोनों ने अपने जीवन में कभी मुझे अहमियत दी ही नहीं तुम दोनों हमेशा अपनी मनमानी करती आई हो। अब विवाह में भी अपनी मनमानी करो। तुम्हारी इस विद्वान और नकचढ़ी बेटी के लिए मैं तो कोई वर नहीं खोज पाऊँगा। तुम जानों और तुम्हारा काम जाने। मैं इतना पैसा तो शीतल की पढ़ाई पर लुटा चुका हूँ जो बन पड़ेगा वो विवाह में ख़र्च कर दूँगा परन्तु तुम्हारी पढ़ी-लिखी बेटी के लिए अब वर देखना मेरे बस का रोग नहीं है।” यह जवाब सुन कर सरला अवाक्‌ रह गई। वह कुछ कहना चाहती थी परन्तु हुक्मचंद उसकी बात को अनसुना कर घर से बाहर चले गए। शीतल, कमरे के दरवाज़े के पीछे खड़ी उनका सारा वार्तालाप सुन रही थी। वह सारी बातें सब सुन कर क्रोध में आपे से बाहर हो गई। उसने अपना सारा ग़ुस्सा अपनी निरीह अम्मा पर निकाला और अम्मा को बहुत खरी-खोटी सुनाई। बेचारी सरला चुप्पी साधे बैठी रही। उसका मन गहन चिंता में डूब गया। 

ऐसे में सरला को अपनी एकमात्र बहन विमला की याद आई। विमला बहुत बड़े घर में ब्याही थी। उनका अपने घर में बड़ा दबदबा भी था। अपनी छोटी बहन सरला की परेशानी से वह भली तरह परिचित थी। समाचार मिलते ही वह चली आई। छोटी बहन की मजबूरियाँ देख उसकी आँखें भर आईं। विमला का सहारा पा कर सरला टूट कर रो दी। सामान्य होने पर उसने शीतल के विवाह की चर्चा आरंभ की। विमला ने बहन को दिलासा देते हुए और अपनी पहचान के परिवार के एक लड़के का रिश्ता सुझाया। लड़के वालों को फोन कर सूचित कर आगे का कार्यक्रम बना लिया। दोनों बहनें बातचीत में व्यस्त हो गईं। अचानक शीतल के आने की आहट पाकर अम्मा तुरंत विषय बदल चुप हो गई पर बेचारी विमला मौसी को कुछ पता ही न चला। वो वहीं रिश्ते का राग अलापती रहीं। सरला, शीतल के क्रोध से डरती थी वो घबरा उठी कहीं शीतल अपनी मौसी को ही खरी-खोटी सुना दे। शीतल सब कुछ देख और समझ रही थी को ग़ुस्से के स्थान पर हँसी आ गई। वह बोली, “मौसी, मेरे लिए किस राजकुमार का रिश्ता लेकर आई हो? आपने अपनी बचपन की सहेली की बेटी की कहानी सुनाई थी न? उनका कैसे अमीरी का ढोंग रचने वाले रंगे सियारों से पाला पड़ गया था।” मौसी भी अचकचा गई। वह शीतल से कुछ कहती इससे पहले ही शीतल उठ कर अपने कमरे के चली गई। सरला घुटनों पर हाथ रख बड़ी कठिनाई से कराहती हुए उठी और रसोई घर की ओर चली गई। 

कुछ समय बाद शीतल जब कमरे से बाहर आई तो देखा मौसी अकेली सिर झुकाए किसी गहरी सोच में डूबी थी। यह देख शीतल को मन ही मन बहुत खेद हुआ। अम्मा और मौसी बेचारी दोनों ही बुज़ुर्ग महिलाएँ थीं। वो दोनों उसके भविष्य के बारे में कम से कम चिंतित तो हैं। भले ही उनके तीर सही निशाने पर नहीं बैठ रहें हों परन्तु दोनों कोशिश तो कर ही रहीं हैं। वह भी क्या करें? अपने जान-पहचान के दायरे में रह जो प्रयास कर सकती हैं, कर रहीं हैं। उन दोनों के पास और चारा भी क्या है? वो दोनों उसके पिता हुक्मचंद जैसी ग़ैर ज़िम्मेदार तो नहीं हैं। यही सोचती हुई वह रसोईघर में जाकर चाय बनाने में अम्मा की मदद करने लगी। उसे देख अम्मा कुछ हैरान और परेशान सी होकर बोली तू बैठ, मैं चाय ला रही हूँ। शीतल बिना कुछ कहे चाय के कप लेकर मौसी के पास जा बैठी। मौसी और अम्मा दोनों मौन हो कर चाय सुड़कने लगीं। मन ही मन अम्मा डर रही थी कि कहीं शीतल दोबारा अपनी मौसी के सामने ही ज़ुबान से ज़हर न उगलने लगे। 

जैसे-जैसे शीतल की उम्र बड़ रही है उसका स्वभाव भी उग्र होता जा रहा है परन्तु ऐसा कुछ हुआ नहीं। वह मौसी से सामान्य बातचीत करती रही। मौसी के बच्चों का हाल-चाल पूछती रही। शीतल को सामान्य बातचीत करते देख, मौसी हिम्मत करके बोली, “शीतल बेटी सुन, हम कोई तेरे दुश्मन तो हैं नहीं,  बस सोचते हैं कि समय रहते तेरा घर बस जाता तो तेरी अम्मा के दिल को भी शान्ति मिलती। अपने पिता का रवैया तो तू जानती ही है। जीजा जी तो आरंभ से ही बहुत बेपरवाह क़िस्म के इंसान हैं। हमेशा ही अपनी ज़िम्मेदारियों से दूर भागते रहे हैं। पहले भी ऐसे उनका यह रवैया हम सबके लिए जीवन में कड़वाहट घोलता रहा है।”

मौसी की बात सुन कर शीतल सोचने लगी कि यह बात तो मौसी सही कह रही है। शीतल बोली, “मौसी आप सारी बात मुझे स्पष्ट कहिए।”

इस पर मौसी आश्वस्त हो वो धीरे से बात बदलते हुए कहने लगी, “शीतल, मेरे जान-पहचान में एक लड़का है जो सरकारी नौकरी में है। परिवार में लड़के के एक भाई के अलावा एक विधवा माँ है। अगर तुम हामी भरो तो आगे बात चलाएँ?” 

मौसी के दयनीय आवाज़ को सुन शीतल बोली, “मौसी, पहले आप सब परख लो, तसल्ली कर लो। मेरी सहेली के साथ ऐसा हो चुका है। पहले कहते रहे की कोई लालच नहीं है, दो कपड़ों में लड़की ब्याह को ले जाएँगे। बस हमें तो लड़की पढ़ी-लिखी चाहिए। एकाएक जब विवाह की तिथि निकल गई तो वर पक्ष ने लड़के की पढ़ाई पर हुआ ख़र्च का हिसाब बता कर बहाने से कैश की माँग कर दी।”

पूरी बात सुनने के बाद मौसी बोली, “बेटी ऐसे लालची लोगों की तो पुलिस में रिपोर्ट करवानी चाहिए थी। बस आजकल लड़की वाले लोक-लाज के डर से चुप्पी साध लेते हैं।” मौसी आगे बोली, “बेटी यह बात तो उनसे पहले ही पूछ लूँगी, तभी बात आगे बढ़ाई जाएगी। अब तुम हामी भरो तो मैं उनको परसों की तारीख़ दे देती हूँ। लड़के की माँ और लड़का बस दो ही जन देखने के लिए आएँगे।”

शीतल की हामी ने सरला के मन को आश्वस्त कर दिया। वो उत्साहित-सी हो उठी। 

“अब उसने विमला दीदी से कहा कि जीजी अब शीतल के पापा को भी आप ही समझा दो। मेरी तो हर बात उन्हें कड़वी और ग़लत ही लगती है। मेरी किसी भी बात में हामी भरना उन्हें अपना अपमान लगता है,” यह कह कर वह किचन में लंच बनाने के बहाने वहाँ से चली गई। 

शीतल के पिता हुक्मचंद ने जब अपनी बड़ी साली विमला को घर आए देखा तो ज़रा झेंप गए। अभिवादन कर, बोले, “अरे आप कब आईं? पता ही न चला। मैं तो मित्रों के साथ सामने वाले पार्क में ही बैठा था।” 

विमला ने व्यंग्य और हास्य मिश्रित स्वर में जवाब दिया, “जब जागे तब ही सवेरा। मैं तो ज़रूरी काम से आई हूँ। शीतल के लिए एक रिश्ता लाई हूँ।”

रिश्ते की बात सुन हुक्मचंद कुछ अनमने से हो गए बोले, “अब आप लोग मुझे तो बीच में मत घसीटो, आप शीतल से पूछ लो फिर जो सही लगे वह कर लो।”

यह कह वह चाय की चुस्की भरने लगे। यह बात सुन कर विमला को भी तैश आ गया वह रोष में भर कर बोली, “जीजा जी, बेटी के रिश्ते की सलाह क्या पड़ोसियों से लेने जाएँगे। तुम्हारी बेटी है, तुमसे नहीं पूछेंगे तो किससे पूछेंगे?”

बात बिगड़ती देख शीतल के पिता शर्मिंदा से हो गए। बात पलटते हुए बोले, “अच्छा बताओ तो कौन लोग हैं? कब आएँगे?” सारा विवरण सुनने के बाद बोले, “ठीक है, कल मैं घर पर ही रहूँगा।”

शीतल कमरे मैं बैठी सारी बातें सुन रही थी। उसका मन खिन्न हो उठा। उसने अम्मा को रात के भोजन के लिए मना कर दिया और अपने कमरे में चली गई। बिस्तर पर लेट तो गई पर मन बहुत बेचैन था। नींद आँखों से कोसों दूर थी। बचपन से अब तक की स्मृतियों के बादल हृदय के आकाश पर छाने लगे। जब से होश सँभाला घर में दादी और पिता का शासन चलते ही देखा था। उसे याद है कि अम्मा के पास दो या तीन साड़ियाँ हुआ करती थीं जिन्हें वो बड़े सलीक़े से धो-सँवार के पहना करती। वह सारे दिन घर के काम में लगी रहती थीं परन्तु उनकी सेवाएँ लेना सब अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते थे। बेटी को जन्म देने के बाद, उसके हालात और बदतर होती गई। बचपन में उसे न तो दादी का दुलार ही मिला न पिता का प्यार मिला। वह कुशाग्र बुद्धि थी। जैसे-जैसे बड़ी होती गई, अपने दिल-दिमाग़ को पढ़ाई-लिखाई की ओर केंद्रित कर दिया। यह सब देख कर शिक्षिता शीतल भी सोच में डूब जाती, उसके मन में निरन्तर यह संघर्ष चलता था कि बेटी का जन्म लेना हमारे अधिकांश मध्यवर्गीय परिवारों को इतना मायूस क्यों कर देता है? वो मासूम बच्चियाँ अपने माता-पिता और परिवार का क्या छीनने आती हैं? उनके जन्म पर लोगों के दिल बुझ क्यों जाते हैं? दूसरी ओर बेटे जन्म लेते अपने साथ कौन-सी दौलतें लेकर आते हैं? कुछ भी हो यह सोच उसके दिल को बहुत ही ओछी और घटिया लगती रही। इसी सोच ने शीतल को समय से पहले ही बहुत समझदार बना दिया। 
सवेरे उठी तो घर में अम्मा और मौसी ने सफ़ाई अभियान चलाया हुआ था। अम्मा बेड शीट्स, सोफ़ा कवर बदल रही थीं। किचन में अम्मा ने नाश्ता पहले ही तैयार कर दिया था। शीतल को देख मौसी बोली शीतल, कल लड़के वाले तुम्हें देखने आ रहे हैं इसलिए तुम कोई सुंदर-सी साड़ी निकाल के रख लेना। शीतल बिना जवाब दिए कॉलेज के लिए तैयार होती रही। 

अगले दिन कॉलेज में छुट्टी थी। शीतल का मन देर तक सोने को था परन्तु मौसी और अम्मा की बातचीत से उसकी नींद टूट गई। किचन से बहुत अच्छी सुगंध भी आ रही थी। कमरे से बाहर आ कर देखा तो माँ और मौसी ने घर में किसी उत्सव सा माहौल बना रखा था। घर आँगन चमक रहा था। हुक्मचंद भी सूट-बूट पहन कर तैयार थे। आज पहली बार उसने अम्मा को इतना उत्साहित देखा। 

ग्यारह बजे के लगभग एक गाड़ी में मेहमान आ गए। लड़के की माँ, महँगी साड़ी पहने, बड़ा सा-पर्स लिए खोजी निगाहें घुमाती घर का जायज़ा ले रही थी और बेटे को धीमे स्वर में कुछ कह भी रही थी। मौसी को पहचान, वो उनसे गले मिली। सरला और हुक्मचंद ने भी आदर सहित अभिवादन कर मेहमानों को बैठने का संकेत किया। आपस में औपचारिक बातें होने के बाद लड़के की माँ शीतल को बुलाने का आग्रह करने लगीं। शीतल अपने कमरे के पर्दे की ओट में छिपी सारा नज़ारा देख कर वो सोचने लगी, अम्मा बेचारी मेरे विवाह के लिए कितनी उत्सुक हो रही है। मेरे जाने कर बाद वो एकदम अकेली पड़ जाएगी। पिता के शुष्क व्यवहार और प्रताड़नाओं ने उन्हें कभी शान्ति से जीने नहीं दिया। उसके आँखों की कोरें गीली हो गईं। अचानक उसे मौसी के आने आहट आई शायद वो उसे लेने आ रहीं थीं। वह पर्दे से दूर हट गई। 

शीतल ने गुलाबी साड़ी पहनी थी। मौसी के साथ वह ड्राईंगरूम में आई। अतिथियों का अभिवादन कर बैठ गई। माँ और बेटे दोनों की निगाहें बड़ी बेबाकी से उसे घूरने लगीं। वह असहज सी हो उठी। उसके बाद उन्होंने उससे, उसके बारे विस्तार से जानने के लिए प्रश्नों की झड़ी-सी लगा दी। शीतल सबका मन रखने के लिए उचित उत्तर देती रही। अचानक बेटे ने अपनी माँ से कुछ कहा। लड़के की माँ बोली, “जी राजीव को शीतल पसन्द है, अगर आपको आपत्ति न हो तो दोनों अकेले कहीं बाहर घूमने चले जाएँ, दोनों को एक दूसरे को समझने का अवसर भी मिल जायेगा?”

सरला, शीतल और हुक्मचंद यह सुन कर अनमने-से हो गए। मौसी ने समय की नज़ाकत को देखते हुए उनके प्रस्ताव को उचित मानते हुए उसे मान कर हामी भर दी। शीतल मन ही न तिलमिला उठी पर जब मौसी ने उसे अलग ले जाकर सब समझाया कि अकेले बाहर जाने से शीतल को भी उसे जानने का अवसर मिल जाएगा तो वह मान गई। 

शीतल को उस अनजाने-से युवक के साथ अकेले जाने में बहुत अटपटा-सा लग रहा था पर और कोई चारा न था। युवक ने अपना नाम राजीव बताते हुए कहा कि आप मुझे मेरे नाम से ही सम्बोधित करके बातें करिए, मुझे अच्छा लगेगा। शीतल ने हामी भर दी। राजीव उसे पहले एक होटल में ले गया। वहाँ उसने कॉफ़ी और सेंडविच ऑर्डर किए। कॉफ़ी पीते हुए राजीव ने अचानक लपक कर शीतल का हाथ पकड़ कर चूम लिया। यह देख शीतल हतप्रभ-सी रह गई। वह उठ खड़ी हुई, बोली< “मैं घर लौटना चाहती हूँ।”

राजीव बोला, “तुम आधुनिक ज़माने की पढ़ी-लिखी लड़की हो, छोटी-सी बात पर ही घबरा गई। वैसे अब हम दोनों विवाह सूत्र में बँधने वाले हैं, संकोच मत करो। चलो अब हम फ़िल्म देखने चलते हैं।”

शीतल की इच्छा या अनिच्छा जाने बिना वह शीतल की कमर में हाथ डाल सिनेमा हॉल की ओर चलने लगा। शीतल ने मन ही मन तुरंत एक फ़ैसला ले लिया। वह राजीव से बोली, “आप चलिए, होटल में मेरा पर्स छूट गया मैं अभी लेकर आती हूँ।”

राजीव सड़क पर खड़ा शीतल का इंतज़ार करने लगा परन्तु शीतल होटल के पिछले गेट से निकल अपने घर आ पहुँची। राजीव की माँ अपने घर लौट चुकी थी। दोनों बहनें उत्सुकता से शीतल की प्रतीक्षा कर रहीं थीं। हुक्मचंद घर पर नहीं थे। 

शीतल ने जब अम्मा और मौसी को राजीव द्वारा की गईं ओछी हरकतों के बारे में बताया तो वो दोनों दंग रह गईं। मौसी ने तो क्रोधित होकर राजीव की माँ को फोन लगा कर ख़ूब खरी खोटी सुनाई। अब तीनों ने मिल कर तय किया कि यह बात हुक्मचंद तक नहीं पहुँचनी चाहिए, नहीं तो उन्हें अम्मा और मौसी को प्रताड़ित करने का एक और अवसर हाथ लग जायेगा। बेचारी मौसी बहुत शर्मसार हुई जा रही थी। बहन और भाँजी का भला करने आईं थीं परन्तु दोनों का दिल दुखा दिया। उन्होंने तुरंत घर लौटने की तैयारी कर ली। सरला और शीतल ने उन्हें इस अपराध बोध से उबारने की और रोकने की बहुत कोशिश की पर वह चली गईं। 

रात को दुकान बंद कर जब हुक्मचंद आए तो उन्होंने शीतल से सब बातें विस्तार से पूछने की कोशिश की। इस पर शीतल ने दो टूक जवाब दे दिया कि उसे लड़का ही पसन्द नहीं आया। यह सुनकर वह शीतल पर ही क्रोधित हो उठे वो उसे घमंडी, स्वार्थी और न जाने क्या-क्या कहने लगे। शीतल ने अपनी अम्मा और मौसी को पिता के द्वारा अपमानित होने से बचाने के लिये उसने मौन धारण कर लिया। शीतल को शांत और चुप देख वो भी ख़ामोश हो गए। 

तूफ़ान आकर निकल चुका था। सबका जीवन यथावत चलने लगा। सरला का दिल पूरी तरह टूट गया था। बेटी के लिए सुपात्र न जुटा पाने का दुख को मन से लगा लिया। शीतल अपनी अम्मा के दर्द से अच्छी तरह समझ रही थी। उसके स्वयं के हृदय में भी ख़ुशियों की छोटी-छोटी कलियाँ खिलने लगीं थीं, वो भी मुरझाने लगीं थीं परन्तु अब वह क्या करे? अम्मा का दुख कैसे दूर करे समझ नहीं आ रहा था। 

दो छुट्टियों के बाद जब वह कॉलेज गई तो स्टाफ़ में एक नया चेहरा दिखा। उनके कॉलेज में एक नए प्रोफ़ेसर ने ज्वाइन किया था। प्रोफसर अमन किसी दूसरे शहर से ट्रांसफ़र हो कर यहाँ आए थे। वह अंग्रेज़ी के सीनियर प्रोफ़ेसर थे। कुछ ही दिनों में वह पूरे स्टाफ़ में लोकप्रिय हो गए। प्रोफ़ेसर अमन बहुत विद्वान होने के अतिरिक्त अपने सौम्य स्वभाव, आनंदी चेहरा और सदैव दूसरों की मदद के लिए आगे ऐसे कुछ गुणों के कारण पूरे कॉलेज में वो चर्चा का विषय बन गए थे। शीतल भी इस चर्चा से अछूती नहीं थी। एक दिन बातों ही बातों में स्टाफ़ रूम में किसी ने बताया कि अमन विधुर थे और एक नन्हे से पुत्र के पिता भी थे। बच्चे की देख-भाल अमन की सासू अम्मा, एक आया की देख-रेख में कर रहीं थीं। शीतल सोचने लगी अमन जी कितनी सारी समस्याओं से घिरे हैं परन्तु फिर भी चेहरे पर सौम्य मुस्कान, मन में किसी के लिए न कोई गिला और न कोई शिकवा है। वो कभी क़िस्मत को कोसते सुनाई नहीं पड़ते। शीतल के मन में एक बात बार-बार उठने लगी कि जीवन में रूप, यौवन, धन और बड़ी कारों और बँगलों से कोई सुखी नहीं हो सकता है हमारा व्यवहार और धैर्य ही है ऐसे अस्त्र हैं जिनके बल पर हम अपना जीवन ख़ुशी और आनंद से बिता सकते हैं। 

अब उसे अपने व्यवहार में भी कुछ कमियाँ नज़र आने लगीं। प्रोफसर अमन ने अपने बेटे के जन्मदिन के अवसर पर पूरे स्टाफ़ को अपने घर आमंत्रित किया। वहाँ जाकर उसने पाया कि दावत की सारी व्यवस्था बेहतरीन थी। बच्चा, नानी की गोद में किलक रहा था वह कौतूहल से सब कुछ देख कर चकित हो रहा था। अचानक उसकी नानी जी को किसी ने ज़रूरी काम के लिए पुकारा। वह बच्चे को पास खड़ी शीतल की गोद में दे कर चली गईं। प्यारा-सा बच्चा चकित-सा शीतल को निहारने लगा। शीतल हृदय में ममत्व की भावनायें प्रस्फुटित होने लगीं। उसी समय प्रोफ़ेसर अमन भी अपनी माता जी को खोजते वहाँ आए बच्चे को शीतल की गोद में देखकर मुस्कुराते हुए बोले, “अरे इस शैतान को आपको सँभालना पड़ गया? माता जी न जाने कहाँ गईं?” शीतल ने बताया कि उन्हें किसी ने बुलाया था इस लिए उन्हें जाना पड़ा। 

“अच्छा,” कह कर वो चले गए। 

पार्टी बहुत अच्छी रही। बच्चे को नींद आ गई तो वो शीतल के कंधे पर सिर रख कर सो गया। अमन बच्चे को को अंदर बिस्तर पर सुलाने के लिए कहने लगे। शीतल ने अंदर जाकर देखा, सारा घर अस्त-व्यस्त था। यह देख कर अमन लज्जित हो कर अपनी सफ़ाई देते हुए कहने लगा कि घरेलू मेड अच्छी तरह साफ़-सफ़ाई नहीं करती। मैं व्यस्त रहता हूँ माता जी बेचारी थक जाती हैं। इतने में अमन की सासू माँ भी वहाँ आ गई और शीतल का धन्यवाद करते हुए कहने लगी, “बेटी, तुमने कुछ खाया कि नहीं? मैं तुम्हें मुन्ना थमा कर चली गई थी।”

वास्तव में शीतल को कुछ खाने का समय ही नहीं मिला। उसने उनका मन रखते हुए कह दिया कि सब कुछ खा लिया, आप ऐसे मत सोचिए। देर हो चुकी थी। अमन मेहमानों को विदा कर रहे थे। शीतल ने भी जाने के आज्ञा माँगते हुए अपना पर्स उठाया। उसी समय अमन हाथ में एक डिब्बा लिए आ गए और बोले, “आपको तो कुछ खाने-पीने का अवसर ही नहीं मिला, सारे समय तो आप मुन्ने को सँभाले थीं। यह कुछ मिठाई और केक है, आप खाइए और अपने घर पर सबको खिलाइए।” शीतल को बहुत संकोच हो रहा था परन्तु उसे डिब्बा लेना पड़ा। 

दिन बीतते गए। कॉलेज में स्टूडेंट्स, स्टाफ़ सब अमन के शिक्षण और स्वभाव की तारीफ़ करते नहीं थकते थे। परन्तु प्रोफ़ेसर अमन निर्विकार रहते। एक दिन शीतल को पता चला कि प्रोफ़ेसर अमन को तेज़ बुख़ार आ गया। सभी अस्पताल जाकर देख आए थे। शीतल भी कुछ लेक्चरार के साथ जाकर उन्हें देखने गई। बुख़ार से बेसुध हुए अमन अपने बेटे को ही बार-बार पुकार रहे थे। यह देख शीतल का हृदय तड़प उठा। सबकी मदद करने वाले, सबके दुख-सुख में साथ देने वाले आज असहाय अवस्था में बिस्तर पर पड़े हैं। सब लोग उन्हें देखने की औपचारिकता पूरी अपने अपने कार्यों में व्यस्त हो गए। अकेली शीतल को ही रात भर नींद नहीं आई। वह प्रोफ़ेसर अमन के बच्चे के बारे में सोचती रही। सवेरे उठते ही वह तैयार होकर सीधे अमन के घर जा पहुँची। वहाँ जाकर देखा कि बच्चा पापा को न पाकर रो-रो कर बेहाल हो रहा था। वह अपनी आया और नानी के नियंत्रण में नहीं आ रहा था। वो दोनों हैरान परेशान हो रहीं थीं। प्रौढ़ नानी बेचारी थक कर चूर हो रहीं रुआँसी-सी हो गई थीं। शायद घर में अभी तक खाना भी नहीं बना था। पूरा घर बिखरा पड़ा था। शीतल को देख उन्हें कुछ तसल्ली हुई। शीतल ने आगे बढ़ कर बच्चे को गोद में ले लिया। कुछ देर थपथपाया रो-रो के बच्चा भी बेहाल हो गया था; वह सो गया। नौकरानी साफ़-सफ़ाई करने लगी। नानी जी को भी आराम करने को कह शीतल भी उनके पास ही बैठ गई। वो अपनी बेटी की असमय मृत्यु से बुरी तरह व्यथित थी। शीतल की थोड़ी सी सहानुभूति पाकर वो फफक-फफक कर रोने लगी। शीतल के पूछने पर वह बताने लगी कैसे उसकी बेटी को कोरोना महामारी ने छीन लिया था। अमन और मुन्ने का मानो संसार ही लुट गया। वहाँ उनके मन से ख़ुशहाल जीवन की यादें पीछा नहीं छोड़ती थीं इसलिए बस उस शहर को छोड़-छाड़ कर इधर आकर नौकरी ज्वाइन कर ली। शीतल सिर झुकाकर चुपचाप प्रोफसर की दुखद कहानी सुनती रही। घर आकर उसने अम्मा को भी प्रोफसर साहब के जीवन का सारा वृत्तांत सुनाया। अम्मा बोली, “बेटा सच है इस संसार में सभी को कोई न कोई दुख है।” अम्मा निःश्वास भर कर बोली, “नानक दुखिया सब संसार। हम अपने ही दुखों के बारे में सोचते हैं और उसी का रोना रोते रहते हैं जबकि इस दुनिया में कोई दर्द से अछूता नहीं हैं।”

अम्मा ने शीतल को मशवरा दिया कि जब तक प्रोफसर साहब स्वस्थ होकर घर नहीं आ जाते तुम उनके घर जाकर मुन्ने को देख आया करो। अब शीतल रोज़ कॉलेज से आकर सीधा प्रोफ़ेसर साहब के घर चली जाती। 

एक दिन शीतल के मन में न जाने क्या सूझी उसने घर से कुछ खाने के लिए बनाया और अस्पताल प्रोफ़ेसर साहब को देखने अस्पताल चली गई। प्रोफसर साहब उसे देख कर आश्चर्य मिश्रित ख़ुशी से बेड से उठ कर बैठने की कोशिश करने लगे। नर्स ने उन्हें लेटे रहने की हिदायत दी। प्रोफसर, शीतल को मुन्ने की देख-भाल करने के लिए बार-बार धन्यवाद करते नहीं थक रहे थे। शीतल मौन, उनको देखती रही। 

अस्पताल से घर वापस लौटने पर प्रोफसर अमन को अपने घर में बहुत बदलाव नज़र आया। घर बहुत स्वच्छ और व्यवस्थित लग रहा था। अनजाने में उनके मुँह से आह निकल गई वह सोचने लगे कि उनकी पत्नी नीलम के रहते उनका घर ऐसा ही व्यवस्थित रहा करता था। उदास मन से सोचने लगे कि जाने कहाँ गए वो दिन? अचानक मुन्ने की नानी उनके पास आकर बैठ गई। वो कुछ झिझकते हुए बोली, “अमन बेटा, कैसे कहूँ, तुम्हारी बीमारी ने सारे घर को हिला के रख दिया। भला हो उस लड़की का जिसने समय पर आकर हमारी मदद की। मुझे तुम्हें यह कहने में संकोच हो रहा है पर भविष्य के लिए तो तुम्हें कुछ सोचना ही पड़ेगा। अब तुम कोई अच्छी लड़की देख-सुन कर पुनः विवाह कर लो।”

अमन यह सुन कर सकपका के रह गया। कुछ उत्तर देते नहीं बन रहा था। मन ही मन सोचने लगा कौन लड़की मेरे बच्चे को नीलम की तरह ममता दे पाएगी। वो सिर झुकाए चुप बैठा रहा। इधर शीतल अपने मन से अमन को नहीं निकाल पा रही थी। उसने अपने जीवन में अमन जैसे अच्छे इंसान कम ही देखे थे। एक ओर उसके पिता जैसे स्वार्थी और निर्मोही इंसान हैं और दूसरी ओर राजीव जैसे लोग जो नारी को केवल भोग्या के रूप में देखते हैं। वो पढ़ाई-लिखाई करने के बाद भी नारी को सम्मान की दृष्टि से नहीं देखते। उसे अपने जीवन में पुरुषों को लेकर जो अनुभव हुए उन्होंने उसके मन में उठने वाली उमंगों और प्रेम भावनाओं को झुलसा कर रख दिया था। प्रोफ़ेसर अमन उसके जीवन के तपते रेगिस्तान में जल की शीतल फुहारों की तरह आए थे। अनायास ही उसका मन प्रोफ़ेसर साहब की ओर खिंचने लगा। वह घर में अम्मा से भी अक़्सर अमन का ज़िक्र करती रहती। अनुभवी सरला से शीतल की चाहत छिपी नहीं रही परन्तु वो अपने पति के स्वभाव को देखते हुए बेटी की चाहत का समर्थन करने में असमर्थ और बेबस थी। 

कॉलेज में, अमन के अध्यापन के चर्चे आम थे। वह सारे स्टुडेंट से मित्रवत व्यवहार रखते। शीतल भी मौन, सब देखती-सुनती रहती। उसके दिल में अमन के प्रति श्रद्धा और प्रेम दिन प्रति दिन बढ़ता जा रहा था परन्तु घरवालों और समाज की लज्जा ने उसके पैरों में बेड़ियाँ पहना रखी थीं। अचानक एक घटना ने शीतल के जीवन की दिशा को बदल दिया। हुआ ऐसे कि एक दिन जब शीतल कॉलेज से लौटी तो उसने पाया कि अम्मा तेज़ बुख़ार में तप रही थी। उसने तुरन्त दुकान पर फोन कर पापा को सूचित किया परन्तु उन्होंने अपनी व्यस्तता का हवाला देते हुए आने से इंकार कर दिया। मजबूर होकर वो अकेली ही अम्मा को लेकर अस्पताल चली गई। सरला की हालत बहुत चिन्ताजनक थी इस लिए डॉक्टर तुरन्त उपचार में लग गए पर देर हो जाने के कारण दवाओं और इन्जेक्शन का कोई असर नहीं हो पा रहा था। घबराहट में शीतल ने अमन को फोन कर सूचना दी। अमन समाचार मिलते ही आ गये। अम्मा बेहोश थीं। डॉक्टर उपचार में जुटे थे। अमन भी शीतल के साथ सारी रात अम्मा के होश में आने का इंतज़ार करने लगे। सवेरे जब अम्मा को होश आया तो अमर थोड़ी-सी देर के लिए घर चला गया। वहाँ उसके बेटे का रो-रो कर बुरा हाल हो रहा था। अगले दिन अमन ने कॉलेज से छुट्टी ले ली। बेटे को आया को सौंप कर अस्पताल आ गए। इस बीच जब हुक्मचंद ने देखा कि शीतल और उसकी अम्मा, रात भर घर वापस नहीं लौटे तो उनकी खोज-ख़बर लेने वह भी अस्पताल आ गए। सरला को तबीयत में सुधार आ जाने के कारण अब उन्हें कमरे में शिफ़्ट कर दिया गया था। अस्पताल के कमरे में अमर और शीतल को एक साथ बैठा देख कर हुक्मचंद क्रोधित हो उठे। बिना किसी से कुछ पूछे या सुने, अपनी ग़लती पर पर्दा डालने के लिए वह उन दोनों को अपशब्द कहते हुए, उन दोनों पर ग़लत-ग़लत आक्षेप लगाने लगे। वो अमन और शीतल के चरित्र पर लांछन लगाते हुए जो भी मन में आया बोलने लगे। शीतल और अमन दोनों शर्म से पानी पानी हुए जा रहे थे। शोरगुल की आवाज़ सुन डॉक्टर और नर्सेस भी वहाँ आ गए। डॉक्टर ने क्रोधित हो उन सबको मरीज़ के कमरे से बाहर निकलने का आदेश दिया। यह सब तमाशा देख कर सरला को आवेश आ गया। उसने अब तक अपने पति के सारे ज़ुल्म ख़ामोशी से सहन किए थे। अपने घर परिवार को बचाने के लिए हमेशा अपनी इच्छाओं की तिलाजंलि देती रही थी परन्तु अब उसकी सहनशीलता समाप्त हो चुकी थी। अपनी बेटी के आत्मसम्मान के लिए रणचंडी का रूप धारण कर लिया। उसने शीतल का हाथ प्रोफ़ेसर अमन के हाथों में देते हुए कहा कि मुझे मेरी बेटी के लिए ऐसा शालीन, विद्वान और समझदार पति चिराग़ लेकर खोजने से भी नहीं मिलेगा। मेरी बेटी और अमन पर लगाए अनुचित आरोपों के जवाब में मैं उन दोनों को शीघ्र ही विवाह सूत्र में बढ़ाने का प्रण लेती हूँ। 

हुक्मचंद अवाक्‌-से, सरला के इस बदले रूप देख कर हैरान हो उठा। वह आगबबूला हो कर सरला से बोला, “क्यों बुख़ार से तुम्हारा दिमाग़ ख़राब तो नहीं गया?”

सरला भी उच्च स्वर में बोली, “जी नहीं अब तो मैं होश में आई हूँ। अभी तक मैं अपने दिल और दिमाग़ की आवाज़ें अनसुना कर स्वयं और अपनी बेटी पर आपके द्वारा की गई तानाशाही को सहन करती रही। बस अब और नहीं। मैं अभी इसी वक़्त तुमसे रिहाई चाहती हूँ। मेरी बेटी सक्षम है, हम दोनों तुम्हारे बिना भी सम्मान के साथ जी सकते हैं।”

यह कह कर उसने पति को कमरे से बाहर जाने का संकेत किया। डॉक्टर ने भी हुक्मचंद को बाहर जाने का आदेश दे दिया। कोई चारा न देख, अपमानित हुआ हुक्मचंद बोझिल क़दमों से चलता हुआ अस्पताल से बाहर चला गया। उसके कानों में सरला की एक ही आवाज़ गूँज रही थी ‘बस, अब और नहीं’!

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