रंगभूमि: एक विवेचन

15-07-2022

रंगभूमि: एक विवेचन

डॉ. पवनेश ठकुराठी (अंक: 209, जुलाई द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

31 जुलाई, प्रेमचंद जयंती पर विशेषः

 

प्रेमचंद की उपन्यास यात्रा ‘असरारे मआबिद उर्फ़ देवस्थान रहस्य’ नामक उपन्यास से प्रारंभ होती है। प्रेमचंद का यह उपन्यास प्रथम बार वर्ष 1903 से वर्ष 1905 तक बनारस के साप्ताहिक उर्दू पत्र ‘आवाज-ए-खल्क’ में धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुआ था। यह उपन्यास उनके चार प्रारंभिक उपन्यासों के संकलन ‘मंगलाचरण’ में संकलित है। ‘असरारे मआबिद उर्फ़ देवस्थान रहस्य’ उपन्यास मूलतः उर्दू में लिखा गया है। इस उपन्यास के अलावा उनके मंगलाचरण में संकलित तीन अन्य उपन्यासों हमखुर्मा व हमसवाब, प्रेमा और रूठी रानी में से हमखुर्मा व हमसवाब तथा रूठी रानी भी मूलतः उर्दू में ही लिखे गए थे। ‘प्रेमा’ उपन्यास तो वस्तुतः हमखुर्मा व हमसवाब का ही हिंदी रूपांतर है। 

‘असरारे मआबिद’ और ‘हमखुर्मा व हमसवाब’ उपन्यासों के बाद प्रेमचंद के क्रमशः किशना (1907 ई.), रूठी रानी (1907 ई.), वरदान (1912 ई.), सेवासदन (1918 ई.), प्रेमाश्रम (1921 ई.), रंगभूमि (1925 ई.), कायाकल्प (1926 ई.), निर्मला (1925-1926 ई.), प्रतिज्ञा (1927 ई.), गबन (1931 ई.), कर्मभूमि (1932 ई.), गोदान (1936 ई.), और मंगलसूत्र (1948 ई.) उपन्यास प्रकाशित हुए। इस प्रकार प्रेमचंद ने कुल 15 उपन्यास लिखे। इन उपन्यासों में ‘किशना’ एक ऐसा उपन्यास है, जो अभी तक अनुपलब्ध है। ‘मंगलसूत्र’ प्रेमचंद का अपूर्ण उपन्यास है, जो उनकी मृत्यु के ग्यारह वर्षों के पश्चात् 1948 में प्रकाशित हुआ। 

‘रंगभूमि’ प्रेमचंद का सबसे बड़ा उपन्यास है। इस उपन्यास का प्रकाशन गंगा पुस्तक माला कार्यालय, लखनऊ से जनवरी 1925 में1 हुआ था। उर्दू में रंगभूमि का अनुवाद ‘चौगाने हस्ती’ सन् 1927 में दारुल इशायत, लाहौर से2 प्रकाशित हुआ था। वस्तुतः पूर्व के उपन्यासों की तरह प्रेमचंद ने इस उपन्यास को भी मूल रूप में उर्दू में ही लिखा था। आलोचकों ने गोदान के बाद रंगभूमि को ही प्रेमचंद का सर्वाधिक चर्चित उपन्यास माना हैः “हिंदी में प्रेमचंद के सर्वाधिक चर्चित उपन्यास गोदान के बाद प्रेमचंद के जो अन्य महत्त्वपूर्ण चर्चित उपन्यास हैं, रंगभूमि का स्थान उनमें काफ़ी ऊँचा है।”3

‘रंगभूमि’ उपन्यास के केंद्र में पांडेपुर गाँव है। यही उपन्यास की रंगभूमि है। इसी रंगभूमि में अनेक पात्र अपना-अपना पार्ट खेलते हैं। वस्तुुतः इस उपन्यास में प्रेमचंद ने ईसाई, हिंदू और मुस्लिम परिवारों के माध्यम से धार्मिक रूढ़ियों, परंपराओं और धार्मिक चेतनाओं का उद्घाटन तो किया ही है, साथ ही इस उपन्यास में उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्यवाद और औद्योगीकरण के दुष्परिणामों को भी उजागर किया है। डॉ. शैलेश जैदी के अनुसार: “रंगभूमि हिंदी का प्रथम उपन्यास है, जिसमें फैलते हुए औद्योगिक जीवन की लपेट में एक जीते-जागते क़स्बे के उजड़ जाने की कथा लिपिबद्ध की गई है।”4

जीवन एक रंगभूमि है, जिसमें सभी पात्र अपना-अपना अभिनय खेलते हैं। जो जीवन में जीत व हार की कामना न कर, ज़िन्दगी को जीता चला जाता है, वही इस रंगभूमि का असली खिलाड़ी कहलाता है। प्रेमचंद ने इस उपन्यास में दर्शाया है कि मनुष्य को धर्म, नीति एवं अपनी मर्यादा को ध्यान में रखकर जीवन में अपना कर्म निष्काम भाव से करते रहना चाहिए। इस उपन्यास का नायक सूरदास एक ऐसा ही खिलाड़ी है, जो अपने निश्चय पर दृढ़ रहकर हँसते-खेलते हुए इस जीवन रूपी रंगभूमि में अपना पार्ट एक मँझे हुए अभिनेता की तरह खेलता है। वही पांडेपुर की रंगभूमि का भी असली खिलाड़ी है। पांडेपुर की मूल कथा उसी के इर्द-गिर्द घूमती है। युद्धभूमि एक ही होने के बावजूद उसे दो मोर्चों पर संघर्ष करना पड़ता है, पहला जॉन सेवक के विरुद्ध दूसरा अपने गाँव के निवासियों के विरुद्ध। जॉन सेवक सूरदास की ज़मीन में अपना सिगरेट का कारखाना खोलना चाहता है, किन्तु सूरदास गाँव के निवासियों के हित को ध्यान में रखकर ज़मीन बेचने से इनकार कर देता है। जॉन सेवक क़ानूनी, फ़ौजदारी, नीति-अनीति, दमन-शोषण आदि सभी प्रयासों के बावजूद अपने मक़सद में सफल नहीं हो पाता। उसके द्वारा अपनाई साम, दाम, दंड, भेद की नीतियाँ पूर्ण रूप से असफल हो जाती हैं, और अंततः सूरदास ही इस पहले मोर्चे पर विजयी होकर उभरता है। 

दूसरी तरफ़ उसके गाँव के अपने लोग ही, यहाँ तक कि उसका अपना भतीजा मिठुवा भी उससे छोटी-छोटी बातों पर राग-द्वेष रखने लगता है। भैरों पासी उसकी झोपड़ी में आग तक लगा देता है, बावजूद इसके वह हमेशा उसके साथ उदारता, अपनत्व और भाईचारे का बर्ताव करता है। वह उनके छल-कपटों को माफ़ तो करता ही है, साथ ही उनकी यथासंभव मदद भी करता है। अपने विराट् और देवोपम व्यक्तित्व तथा आदर्श चरित्र के कारण ही वह इस दूसरे मोर्चे पर भी विजय ध्वज फहराता है। उसके हितैषी तो सदैव उसके क़ायल रहते ही हैं, किन्तु उसके दुश्मन भी उसकी धर्म-नीति और आदर्शों का लोहा मानते हैं। वह ज़िन्दगी को एक खेल की तरह जीता है और ‘तू रंगभूमि में आया, दिखलाने अपनी माया’5 गीत गाता हुआ ज़िन्दगी के हर रस का आनंद लेता हैः “हमारी बड़ी भूल यही है कि खेल को खेल की तरह नहीं खेलते। खेल में धाँधली करके कोई जीत ही जाय, तो क्या हाथ आएगा? खेलना तो इस तरह चाहिए कि निगाह जीत पर रहे, पर हार से घबराए नहीं, ईमान को न छोड़े। जीत कर इतना न इतराए कि अब कभी हार होगी ही नहीं। यह हार-जीत तो ज़िंदगानी के साथ है।”6

सूरदास के अतिरिक्त सोफिया, जाह्नवी और विनय भी इस रंगभूमि के आदर्श और साहसी योद्धा हैं। सोफिया की अध्ययनप्रियता, धार्मिक चेतना और विनय के प्रति समर्पण का भाव तथा विनय की मातृभक्ति और समाज सेवा उल्लेखनीय है। डॉ. रामविलास शर्मा के अनुसार: “रंगभूमि शायद हिंदी का पहला उपन्यास है, जिसमें एक ईसाई लड़की और एक हिंदू लड़के का प्रेम दिखाया गया है।”7 इस प्रकार विनय-सोफिया का पवित्र प्रेम भी इस उपन्यास की ख़ूबी है। जाह्नवी राष्ट्रप्रेमी नारी है, जो देश की ख़ातिर अपने पुत्र विनय को बलिदान करने में गर्व की अनुभूति करती हैः “यह सच्चा शहीद था। तुम लोग क्यों रोते हो? विनय के लिए? तुम लोगों में कितने ही युवक हैं, कितने ही बाल-बच्चों वाले हैं। युवकों से मैं कहूँगी जाओ और विनय की भाँति प्राण देना सीखो। दुनिया केवल पेट पालने की जगह नहीं है। देश की आँखें तुम्हारी ओर लगी हुई हैं, तुम्हीं इसका बेड़ा पार लगाओगे।”8 डॉ. गांगुली का चरित्र भी एक समाजसेवी राष्ट्रभक्त का चरित्र है। 

वस्तुतः प्रेमचंद के उपन्यासों में सबसे प्रमुख विशेषता है उनकी आदर्शवादिता। चरित्रों और उनकी प्रवृत्तियों का निर्देश करने में वे आदशोन्मुखी हैं।9 यही बात उनके इस उपन्यास के चरित्रों में दिखाई देती है। सोफिया, विनय, जाह्नवी, डॉ. गांगुली और सूरदास जैसे चरित्र इस बात की पुष्टि करते हैं। सूरदास की सृष्टि तो प्रेमचंद ने गाँधीवादी आदर्श के नमूने पर ही की है।10 रंगभूमि न सिर्फ़ अपने आदर्श चरित्रों के लिए बल्कि आज़ादी से पूर्व की सामाजिक-राजनीतिक स्थिति के यथार्थ चित्रण, व्यापक देशकाल,11 युगप्रामाणिकता और अपनी महाकाव्यात्मकता के कारण भी हिंदी उपन्यास जगत में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। ‘रंगभूमि’ लेखक का पहला ऐसा उपन्यास है, जिसके महाकाव्यीय उपकरण सर्वाधिक मुखरित हैं।12 मुझे आश्चर्य होता है, डॉ. कमलकिशोर गोयनका के पूर्व के आलोचकों ने ‘रंगभूमि’ को महाकाव्यात्मक उपन्यास घोषित क्यों नहीं किया? अगर प्रेमाश्रम ‘कृषक जीवन का महाकाव्य’ है तो निश्चित रूप से रंगभूमि भी ‘मानव जीवन का महाकाव्य’ है क्योंकि इस उपन्यास में सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, धार्मिक और आर्थिक संदर्भों का युगानुकूल चित्रण होने के साथ-साथ मानवीयता, मनोवैज्ञानिकता, ऐतिहासिकता, दार्शनिकता, आध्यात्मिकता, साहित्यिकता, पौराणिकता और मानवीय समस्याओं, संघर्षों, आदर्शों और जीवन मूल्यों का बख़ूबी चित्रण हुआ है। और साथ ही सूरदास जैसे वीर नायक की स्थापना भी हुई है। डॉ. गोयनका भी मानते हैं कि रंगभूमि की महाकाव्यात्मकता युग के अनेकोमुखी चित्रण एवं वीर चरित्रों की विद्यमानता से पुष्ट होती है।13 इतना ही नहीं इस उपन्यास में भारतीय दर्शन की अनुगूँज सुनाई देती है। ‘गीता’ का कर्मवाद ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन्’ इस उपन्यास का आधार है। सोफिया और विनय के प्रेम में धर्म का बाधक बनना धर्म की कमज़ोरी और उसकी विडंबना को दर्शाता है। धर्म क्या है? धर्म का मानव जीवन में क्या महत्त्व है? जीवन क्या है? जीवन का उद्देश्य क्या है? इन सारे सवालों के जवाब रंगभूमि में मिलते हैं। वस्तुतः धर्म, दर्शन और जीवन इन तीनों चीज़ों से मिलकर बनी है ‘रंगभूमि’। रंगभूमि की अनेक विशेषताओं के कारण ही आलोचक प्रकाशचंद्र गुप्त इसे एक महान साहित्यिक कृति14 और हिंदी उपन्यास लेखन का उत्तुंग हिमशिखर15 घोषित करते हैं।

संदर्भ सूची:

  1. प्रेमचंद के उपन्यासों का शिल्प विधान; डॉ. कमलकिशोर गोयनका, सरस्वती प्रेस, दिल्ली, प्र.सं. 1974, पृ. 66

  2. वही

  3. दलित साहित्य: एक मूल्यांकन; प्रो. चमनलाल, राजपाल एंड संस, दिल्ली, 2008, पृ. 121

  4. प्रेमचंद की उपन्यास यात्रा: नव मूल्यांकन; डॉ. शैलेश जैदी, यूनीवर्सिटी पब्लिशिंग हाउस, अलीगढ़, प्र.सं., जुलाई, 1978, पृ. 232

  5. रंगभूमि, रंगभूमि; प्रेमचंद, मनोज पॉकेट बुक्स, दिल्ली, पृ. 160

  6. वही, पृ. 287

  7. प्रेमचंद और उनका युग; डॉ. रामविलास शर्मा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2014, पृ. 77

  8. रंगभूमि, पृ. 398

  9. प्रेमचंद: साहित्यिक विवेचन; नंददुलारे बाजपेई, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2003, पृ. 17

  10. प्रेमचंद: व्यक्ति और साहित्यकार; मन्मथनाथ गुप्त, सरस्वती प्रेस, इलाहाबाद, 1961, पृ. 221

  11. प्रेमचंद के उपन्यासों का शिल्प-विधान, पृ. 253

  12. वही, पृ. 268

  13. वही, पृ. 269

  14. प्रेमचंद; प्रकाशचंद्र गुप्त, साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली, 2012, पृ. 36

  15. वही

-डॉ. पवनेश ठकुराठी
लोअर माल रोड, तल्ला खोल्टा, अल्मोड़ा, उत्तराखंड-263601
मो० 9528557051
वेबसाइट: www.drpawanesh.com

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